
मैंने स्वतंत्र होने के लिए अपने तरीक़े से प्रयास किया है।



प्रार्थना उपवास बिना नहीं होती, और उपवास यदि प्रार्थना का अभिन्न अंग न हो तो वह शरीर की मात्र यंत्रणा है, जिससे किसी का कुछ लाभ नहीं होता। ऐसा उपवास तीव्र आध्यात्मिक प्रयास है, एक आध्यात्मिक संघर्ष है। वह प्रायश्चित और शुद्धिकरण की प्रक्रिया है।
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व्यर्थ कार्यों के लिए प्रयत्न करने वाले कौन व्यक्ति सचमुच तिरस्कार के पात्र नहीं होते?

हमें कठिनाइयों को मानना चाहिए, उनका विश्लेषण करना चाहिए और उनके विरुद्ध संघर्ष करना चाहिए। जगत में सीधे मार्ग कहीं नहीं हैं, हमें टेढ़े-मेढ़े मार्ग तय करने के लिए तैयार रहना चाहिए तथा मुफ़्त में सफलता प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए।

यह ऐसी शिक्षा है जिस पर तुम्हें ध्यान देना चाहिए, प्रयत्न करो, प्रयत्न करो, पुनः प्रयत्न करो। यदि पहली बार में तुम सफल नहीं होते, तो प्रयत्न करो, प्रयत्न करो, पुनः प्रयत्न करो।

उचित उपाय से न किया हुआ प्रयास अन्य अनेक व्यक्तियों का आश्रय प्राप्त होने पर भी व्यर्थ हो जाएगा।

जिस चीज़ की हमें दरकार है वह हमेशा कठिन नहीं रहती है क्या? जब हम भरसक प्रयत्न करते हैं तब कठिन वस्तु आसान हो जाती है।

पुरुषार्थहीन मनुष्य इस संसार में कभी फलता फूलता नहीं। मनुष्य को कुमार्ग से हटाकर सुमार्ग में लगा दे—ऐसी भाग्य में शक्ति नहीं है। पहले किया हुआ पुरुषार्थ ही एकत्रित होकर भाग्य बनकर गुरु के समान अपने अभीप्सित स्थान पर ले जाता है।

दैव और पुरुषार्थ दोनों एक दूसरे के सहारे रहते हैं, परंतु उदार विचार वाले पुरुष सर्वदा शुभ कर्म करते हैं और नपुंसक दैव के भरोसे पड़े रहते हैं।

भाग्यरहित पुरुषार्थ और पुरुषार्थरहित भाग्य सर्वत्र व्यर्थ हो जाते हैं। इन दोनों में पहला पक्ष ही सिद्धांतभूत एवं श्रेष्ठ है अर्थात् दैव के सहयोग के बिना पुरुषार्थ काम नहीं देता है।

पुरुषार्थी सर्वत्र भाग्य के अनुसार प्रतिष्ठा प्राप्त करता है, परंतु पुरुषार्थहीन सम्मान से भ्रष्ट होकर घाव पर नमक छिड़कने के समान कष्ट पाता है।

पुरुषार्थहीन भाग्य अथवा भाग्यहीन पुरुषार्थ इन दो ही कारणों से मनुष्य का उद्योग निष्फल होता है।

जो हम हो नहीं सकते, उसके लिए प्रयत्न करना बेकार है।

मैं बालू में से भी तेल निकालने का प्रयत्न करता हूँ बशर्ते कि वह बालू मुझे अच्छी लग जाए।

सौभाग्य न होना किसी के लिए दोष नहीं है। समझकर सत्प्रयत्न न करना ही दोष है।


किया हुआ पुरुषार्थ ही भाग्य का अनुसरण करता है। दैव किसी भी व्यक्ति को बिना पुरुषार्थ के कुछ नहीं दे सकता।
