
व्यर्थ कार्यों के लिए प्रयत्न करने वाले कौन व्यक्ति सचमुच तिरस्कार के पात्र नहीं होते?

शब्दों की भारी फ़िज़ूलख़र्ची इस युग में हुई है, हो रही है, इस कारण शब्द की सार्थकता में अविश्वास बढ़ा है और निरे कर्म के प्रति आकर्षण इतना बढ़ा है कि कर्मी उन अच्छे-भले उद्यमों का अनिवार्य प्रत्यय बन गया है जिनमें पहले से कर्म की प्रधानता थी।

रंगकर्मी और शिक्षाकर्मी का भला क्या अर्थ हो सकता है? ये संरचनाएँ भी उस फ़िज़ूलख़र्ची के ही उदाहरण हैं जिनके कारण भाषा की अवमानना हुई है। इसका प्रतिकार फ़िज़ूलख़र्ची रोककर ही संभव है।

यदि संसार को देखने में भाषा-शिक्षण ने कोई नया या निराला आयाम नहीं जोड़ा तो उसकी ज़रूरत क्या है और उसे गणित और विज्ञान के समतुल्य एक शिक्षण-विषय क्यों माना जाए?

आवश्यकता से अधिक बोलना व्यर्थ है।

जो आपके काम का नहीं है, उसे हटाएँगे तभी नए और बेहतर अनुभवों के लिए जगह बनेगी।