भाषा पर उद्धरण
भाषा मानव जाति द्वारा
प्रयुक्त वाचन और लेखन की प्रणाली है जिसका उपयोग वह अपने विचारों, कल्पनाओं और मनोभावों को व्यक्त करने के लिए करता है। किसी भाषा को उसका प्रयोग करने वाली संस्कृति का प्रतिबिंब कहा गया है। प्रस्तुत चयन में कविता में भाषा को एक महत्त्वपूर्ण इकाई के रूप में उपयोग करती कविताओं का संकलन किया गया है।
हमेशा पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी से निराश रही है। नई पीढ़ी भी पुरानी पीढ़ी बनकर निराश होती रही है।
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हिंदी अगर एक छोटी-सी भाषा होती, लोग उसे प्रेम और मनुष्यता के साथ बरतते तो उसका लेखक इतना अकेला नहीं होता।
भाषा की जान होता है मुहावरा।
जो नहीं हैं, मैं उनकी जगह लेना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ, वे मेरे मुँह से बोलें।
शिल्प भाषा का अंतःकरण है।
उस भाषा के साहित्य का दुर्भाग्य तय है, जहाँ आलोचक महान् हों, कवि नहीं।
भारत की सारी भाषाएँ राष्ट्रभाषाएँ हैं। हिंदी ही सिर्फ़ राष्ट्रभाषा है, यह मानना भी एक खंडित सत्य होगा।
भरोसा बनाए रखो कि तुम्हें भाषा पर सचमुच भरोसा है और हाँ, इसकी कोई समय-सीमा नहीं।
अगर राजनीति के बाहर भी स्वतंत्रता के कोई मतलब हैं तो हमें उसको एक ऐसी भाषा में भी खोजना, और दृढ़ करना होगा जो राजनीति की भाषा नहीं है।
कविता भाषा का भाषा में स्वराज है।
मुझे पाने दो पहले ऐसी बोली जिसके दो अर्थ न हों।
भाषा का बहुस्तरीय होना उसकी जागरूकता की निशानी है।
भाषा का होना कविता के होने की गारंटी है।
एक सरल वाक्य बचाना मेरा उद्देश्य है।
यह कड़वी हक़ीक़त कि हम हिंदी के लेखक एक-दूसरे को शौक़, प्यार और उदारता से नहीं पढ़ते। अक्सर तो पढ़ते ही नहीं। पढ़ भी लें तो बता नहीं देते कि पढ़ लिया है।
भाषा स्मृतियों का पुंज है और विलक्षण यह है कि स्मृतियाँ पुरानी और एकदम ताज़ा भाषा में घुली-मिली होती हैं।
मैं उन लोगों से घृणा करता हूँ जो उर्दू को सिर्फ़ एक मज़हब की भाषा मानते हैं। ऐसे लोग सिर्फ़ एक भाषा से घृणा नहीं करते, बल्कि इस देश से भी बैर करते हैं।
जनभाषा पर कुछ भी कहने के पहले यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वह बहता नीर है। केवल सामाजिक संबंधों से ही उसे जाना और पहचाना जा सकता है और विवेकपूर्ण संतुलन से ही उसे काव्य का समर्थ माध्यम बनाया जा सकता है।
कविता की बुनियाद भाषा में है।
अपनी भाषा हमें ताक़त देती है।
बाज़ार चाहे भी तो भाषा के बिना ज़िंदा नहीं रह सकता जबकि भाषा की प्रकृति में वह अंतर्निहित शक्ति होती है कि वह बाज़ार के साथ भी ज़िंदा रहे और बाज़ार के बिना भी ज़िंदा रह सके।
मेरे पास पाणिनि में सिर खपाने का समय नहीं है। भाषा ठीक करने से पहले, मैं मनुष्यों को ठीक करना चाहता हूँ।
भाषा की लड़ाई दरअसल नफ़े-नुकसान की लड़ाई है। सवाल भाषा का नहीं है। सवाल है नौकरी का!
गद्य लिखना भाषा को सार्वजनिक बनाते जाना है।
भाषा के भीतर कविता की भाषा की अतिगामी प्रकृति कविता की भाषा को ज्ञान की भाषा से अलग करती है।
किसी के लिए जीवन भर भाषा, मात्र गाली होती है तो किसी के लिए भाषा मंत्र होती है।
भाषा की अवहेलना किसी भी रचना को सहज ही साहित्य के क्षेत्र से बाहर फेंक देती है और शिल्प की अवहेलना कला के क्षेत्र से।
भाषा को जीवन और रचनाकार बनाते हैं।
मुझे ग़लत भाषा बहुत आकृष्ट करती है। अजब बात है, क्योंकि जीवंतता उसी में होती है और लगातार चुनौती के रूप में वहाँ रहती है। और मैं इधर मानने लगा हूँ कि जो भाषा ग़लत लिखने और बोलने की जितनी छूट देती है अपने समाज में, वह उतनी ही ज़िंदा रहती है।
दुनिया की कोई भाषा नहीं जो पृथक व्यक्तियों के निगूढ़तम मर्म के बीच वास्तविक सेतु का काम कर सके।
मुझे लगता है हमेशा दो पहलू होते है। और दो में से एक पहलू हमेशा कहे के परे चला जाता है। एक अकेला विलक्षण। जो आप हैं; जो आप किसी से कह नहीं सकते। और दूसरी तरफ़ वह जो आप कह सकते हैं। उन चीज़ों के बारे में हम कैसे जानते हैं जिनके बारे में हम बातें करते हैं। हम शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। शब्द कभी कुछ नहीं कहते, लेकिन हमारे पास कहने के लिए सिर्फ़ शब्द हैं।
भाषा एक टूटा हुआ आईना है।
भाषा का तेवर हर किसी का अपना होता है। इसमें तानाशाही नहीं चल सकती पंडितों की।
भाषा की जान होता है मुहावरा।
एक कलाकार के पास प्रकृति होनी चाहिए। उसे उसकी लय के साथ ख़ुद को पहचानना चाहिए, उन प्रयासों से जो उस निपुणता को तैयार करेंगे जो बाद में उसे अपनी भाषा में ख़ुद को व्यक्त करने में सक्षम बनाएगा।
भाषा कोई काम नहीं करती, राजनीति हमारे लिए विवेच्य नहीं है, यह बात कहने के लिए भी क्या आपको कई पृष्ठों तक भाषा का ही उपयोग नहीं करना पड़ा? और थोड़ी-बहुत राजनीति का भी? और अगर ऐसा होता है, फिर तो प्रमाणित ही हो जाता है कि लेखक का काम है, भाषा के द्वारा ही भाषा के झूठ पर विजय पाना।
क्या कोई व्यक्ति स्वप्न में भी यह सोच सकता है कि अँग्रेज़ी भविष्य में किसी भी दिन भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है? फिर राष्ट्र के पाँवों में यह बेड़ी किस लिए?
देश की जनता के साथ देश के शिक्षितों के व्यवधान का एक प्रमुख कारण विदेशी भाषा का माध्यम है।
भाषा, भाषा ही होती है—गद्य या पद्य नहीं, और न ही सरल या कठिन।
भाषा को यह गाली का स्वरूप या मंत्र की महत्ता देने वाला स्वयं मनुष्य है।
लाश! यह शब्द कितना घिनौना है। आदमी अपनी मौत से, अपने घर में, अपने बाल-बच्चों के सामने मरता है तब भी बिना आत्मा के उस बदन को लाश ही कहते हैं और आदमी सड़क पर किसी बलवाई के हाथों मारा जाता है, तब भी बिना आत्मा के उस बदन को लाश ही कहते हैं। भाषा कितनी ग़रीब होती है।
भाषा तो वाद्य है।
अर्थ प्राणों में समाता है, निकलता नहीं।
जब कोई अपनी समझ दूसरे को जताने की इच्छा करता है, तब आकार-इंगित-चेष्टा के बाद माध्यम उसका समर्थ सहायक बनता है; वह है भाषा।
अँग्रेज़ी में कुछ सीखना एक बात है, अँग्रेज़ी को अपने सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यो का माध्यम बना लेना दूसरी बात है। जापानियों, चीनियों आदि ने अँग्रेज़ी से सीखा है, लेकिन अपनी भाषाओं के कद अविकसित मानकर उन्होंने अँग्रेज़ी को राजभाषा नहीं बनाया।
कोई भी भाषा अनपढ़ों के हाथों में सुरक्षित रहती है।
यदि विचार भाषा को दूषित करते हैं तो भाषा भी विचारों को दूषित कर सकती है।
समग्रता में भाषा, रूपक की सतत प्रक्रिया है। अर्थमीमांसा का इतिहास संस्कृति के इतिहास का एक पहलू है। भाषा एक ही समय में एक जीवित वस्तु, जीवन और सभ्यताओं के जीवाश्मों का संग्रहालय है।
निष्ठाहीनता, स्पष्ठ भाषा की दुश्मन है। जब किसी के वास्तविक और घोषित उद्देश्यों के बीच एक अंतर होता है तब वह स्वतः ज़्यादा शब्दों और मुहावरों की तरफ मुड़ जाता है। उस मछली की तरह जो स्याही उगलती है।