प्रकृति पर उद्धरण
प्रकृति-चित्रण काव्य
की मूल प्रवृत्तियों में से एक रही है। काव्य में आलंबन, उद्दीपन, उपमान, पृष्ठभूमि, प्रतीक, अलंकार, उपदेश, दूती, बिंब-प्रतिबिंब, मानवीकरण, रहस्य, मानवीय भावनाओं का आरोपण आदि कई प्रकार से प्रकृति-वर्णन सजीव होता रहा है। इस चयन में प्रस्तुत है—प्रकृति विषयक कविताओं का एक विशिष्ट संकलन।
जो कमज़ोरी सब मनुष्यों में हो सकती है, वह कमज़ोरी नहीं—बल्कि मनुष्य की प्रकृति का गुण-धर्म है।
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एक निरी कामकाजी दृष्टि के द्वारा एक कामकाजी व्यक्ति को खेत, कृषि-विज्ञान और नीतिशास्त्र की किताबों के पन्नों की तरह दिखाई देते हैं, खेतों की हरियाली किस तरह से गाँव के कोने तक फैल गई है—उसे भावुक ही देखता है।
रंग और रूप में अविच्छेद्य संबंध होता है। जहाँ रूप वहाँ रंग, जहाँ रंग वहाँ रूप। यह है प्राकृतिक नियम।
प्रकृति में प्रत्यक्ष की हम प्रतीति करते हैं, साहित्य और ललिल कला में अप्रत्यक्ष हमारे निकट प्रतीयमान होता है।
खेल प्रकृति की सबसे सुंदर रचना हैं।
स्त्री को पाकर, स्त्री को समझकर, उसे अपनी बाँहों और आत्मा में महसूस करके ही प्रकृति की गति और प्रकृति की सुंदरता को और प्रकृति के रहस्य को लिया, भोगा और समझा जा सकता है।
कविता के रंग चित्रकला के प्रकृति-रंग नहीं होते।
बहुत से बुद्धिमान लोगों के पास समझ की कमी होती है, बहुत से मूर्खों के पास दयालु स्वभाव होता है, ख़ुशी का अंत अक्सर आँसुओं में होता है, लेकिन मन के अंदर क्या है—यह कभी नहीं बताया जा सकता है।
प्रकृति सिर्फ़ वह नहीं जो आँखों को नज़र आती है… आत्मा की अंदरूनी तस्वीर में भी यह मौजूद होती है।
आदिम मानव प्रकृति को अपने प्रत्यक्ष व्यवहार में बरतता है।
हमें अपनी तीन अवस्थाएँ दिखाई देती हैं। तीनों ही बड़े स्तरों पर मानव जीवन का निर्माण कर डालती हैं। एक अवस्था है प्राकृतिक, दूसरी धार्मिक नैतिकता की और तीसरी होती है आध्यात्मिकता की।
मनुष्य के पास केवल जगत-प्रकृति ही नहीं, समाज-प्रकृति नामक एक और आश्रय भी है। इस समाज के साथ मनुष्य का कौन-सा संबंध सत्य है—इस बात पर विचार करना चाहिए।
मानव स्वभाव पानी जैसा है। वह अपने बर्तन के आकार में ढल जाता है।
प्रकृति में हरा रंग एक बात है, साहित्य में हरे का अर्थ अलग होता है।
प्यार… प्रकृति की तरह है, लेकिन उल्टा—पहले यह फल देता है, फिर फूलता है, फिर मुरझाने लगता है, फिर यह अपने बिल में बहुत गहराई तक चला जाता है, जहाँ कोई इसे नहीं देखता, जहाँ यह आँखों से ओझल हो जाता है और अंततः लोग अपनी आत्मा के भीतर दबे उस रहस्य के साथ मर जाते हैं।
हमें बुरे स्वभाव की व्याख्या हीन भावना की निशानी के रूप में करनी चाहिए।
किसी विषय को अपने से ऊँचा बताने और मानने का अधिकार केवल प्रकृति को ही है, किसी अन्य को नहीं।
तितलियाँ वे फूल ही हैं जो किसी धूप वाले दिन उड़ गए, जब प्रकृति स्वयं को सबसे अधिक आविष्कारशील और उपजाऊ महसूस कर रही थी।
कल्पना प्रकृति पर मनुष्य की हुकूमत है।
प्रकृति क़तई नैतिक नहीं है।
ज़्यादातर समय, वे बच्चे स्वस्थ और मज़बूत होते हैं, प्रकृति अपनी देखभाल ख़ुद करती है।
द्रौपदी जैसा उत्कट, विराट और प्राकृतिक स्त्रीत्व का अविष्कार अन्यत्र मिलना मुश्किल है।
प्रकृति ईश्वर की शक्ति का क्षेत्र है और जीवात्मा उसके प्रेम का क्षेत्र है।
नारी प्रकृति के विधान से नहीं, समाज के विधान से भोग्य है। प्रकृति में और समाज में स्त्री और पुरुष अन्योन्याश्रय हैं।
पुरुषों और स्त्रियों के बीच अगर कोई मानसिक अंतर है भी, तो वह उनकी शिक्षा और हालत के अंतर का स्वाभाविक परिणाम है—उसमें प्रकृति प्रदत अंतर बहुत कम है।
स्त्री किसी भी अवस्था की क्यों न हो, प्रकृति से माता है और पुरुष किसी भी अवस्था का क्यों न हो, प्रकृति से बालक है।
दया और दवा में कोई एहसानमंदी नहीं है। अगर उधार लेना प्राकृतिक नहीं हो तो देने का कोई अर्थ भी है।
सृष्टि के पूर्व एकत्व रहता है, सृष्टि हुई कि वैविध्य शुरू हुआ। अतः यदि यह विविधता समाप्त हो जाए, तो सृष्टि का ही लोप हो जाएगा।
हमारी अंतः प्रकृति में एक नारी विद्यमान है।
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मौसम मेरे चारों ओर है ज़रूर, पर अपना अर्थ खो चुका है।
योगशास्त्र के मतानुसार, आत्मा अविद्या के कारण प्रकृति के साथ संयुक्त हो गई है, प्रकृति के पंजे से छुटकारा पाना ही हमारा उद्देश्य है। यही सारे धर्मों का एकमात्र लक्ष्य है।
यदि प्रकृति के द्वार को कैसे खटखटाना चाहिए, उस पर कैसे आघात देना चाहिए—केवल यह ज्ञात हो गया, तो बस प्रकृति अपना सारा रहस्य खोल देती है।
गंगोत्री, यमुनोत्री या फिर नर्मदा कुंड—ये वे स्थान हैं, जहाँ नदी पहाड़ की कोख से निकलकर पहाड़ की गोद में आती है।
चिकित्सा की कला में रोगी को ख़ुश करना शामिल है, जबकि बीमारी को प्रकृति ठीक करती है।
भूलना प्राय: प्राकृतिक है, याद रखना प्राय: कृत्रिम।
जब तक हम प्रकृति के हाथ से अपना उद्धार नहीं कर लेते, तब तक हम ग़ुलाम हैं। प्रकृति जैसा कहती है, हम उसी प्रकार चलने को लाचार होते हैं।
धुआँधार में नर्मदा का ऐश्वर्य है, बंदरकूदनी में उसका वैराग्य। धुआँधार में मद भरी मौज है, तो बंदरकूनी में शांति का पारावार। फिर भी नर्मदा का ऐश्वर्य और उसका वैराग्य, उसका उल्लास और उसका गांभीर्य, उसका निनाद और उसका—मानो एक ही है।
भारत का सदैव यही संदेश रहा है। आत्मा प्रकृति के लिए नहीं, वरन् प्रकृति आत्मा के लिए है।
यह ज्ञात करा देना ही कि आत्मा प्रकृति से संपूर्ण स्वतंत्र है, प्रकृति का एकमात्र लक्ष्य है।
भारतीय दार्शनिकों के मतानुसार सारा जगत् दो पदार्थों से निर्मित है। उनमें से एक का नाम है आकाश। यह आकाश एक सर्वव्यापी, सर्वानुस्यूत सत्ता है। जिस किसी वस्तु का आकार है; जो कोई वस्तु कुछ वस्तुओं के मिश्रण से बनी है, वह इस आकाश से ही उत्पन्न हुई है। यह आकाश ही वायु में परिणत होता है; यही तरल पदार्थ का रूप धारण करता है, यही फिर ठोस आकार को प्राप्त होता है।'
'नारायण' का अभिप्राय है, ब्रह्म का वह स्वरूप जो नर-प्रकृति का अनुरंजनकारी हो।
यह प्रकृति का राजनीतिक नियम है कि जो लोग किसी आदिम मूल सत्ता के अधीन होते हैं, वे शुरू में ख़ुद उस सत्ता का विरोध करने के बजाय, सिर्फ़ उसके क्रूरतम पहलुओं का विरोध करते हैं।
कला प्रकृति की पुत्री है।
तुम जितना ही प्रकृति से दूर भागोगे, वह उतना ही तुम्हारा अनुसरण करेगी और यदि तुम उसकी ज़रा भी परवाह न करो, तो वह तुम्हारी दासी बनकर रहेगी।
अपने ही सुख-दुख के रंग में रंग कर प्रकृति को देखा तो क्या देखा? मनुष्य ही सब कुछ नहीं है। प्रकृति का अपना रूप भी है।
समुद्र धरती को बादल भेजता है। वह जानता है कि धरती उसकी कितनी तीव्रता से प्रतीक्षा कर रही है। इसीलिए वह उसे साधारण डाक से न भेजकर, हवाई-डाक से भेजता है, रजिस्टर्ड ए. डी. से भेजता है। नदी मानो धरती की समुद्र को बादल मिलने की पावती है—एकनालेजमेंट है। नदियों के मटमैले पानी देखकर समुद्र आश्वस्त हो जाता है कि पानी के जो पार्सल उसने धरती को भेजे थे, वे उसे सही-सलामत मिल गए हैं।
इस सृष्टि का सत्य तर्क नहीं कर्म है, सत्य और धर्म दोनों ही का बहाव कर्म की उपत्यका के भीतर ही मिल सकता है।
जिस विशेष अर्थ में पंतजी प्रकृति-सौंदर्य के कवि हैं, उस अर्थ में उदाहरणतः प्रसादजी नहीं।
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