प्रकृति पर उद्धरण
प्रकृति-चित्रण काव्य
की मूल प्रवृत्तियों में से एक रही है। काव्य में आलंबन, उद्दीपन, उपमान, पृष्ठभूमि, प्रतीक, अलंकार, उपदेश, दूती, बिंब-प्रतिबिंब, मानवीकरण, रहस्य, मानवीय भावनाओं का आरोपण आदि कई प्रकार से प्रकृति-वर्णन सजीव होता रहा है। इस चयन में प्रस्तुत है—प्रकृति विषयक कविताओं का एक विशिष्ट संकलन।
प्रकृति, आदर्श, जीवन-मूल्य, परंपरा, संस्कार, चमत्कार—इत्यादि से मुझे कोई मोह नहीं है।
सूरज नहीं चाँद तारे संगीत चित्र भी नहीं कविता से भी सुंदर लगता है मनुष्य।
मनुष्य की रचना प्रकृति ने उसके ‘स्व’ के लिए की ही नहीं है।
पृथ्वी में जो कुछ जीव जगत, पत्थर, नदी, पहाड़, समुद्र, जंगल, वनस्पति मनुष्य इत्यादि हैं वे सब पृथ्वी की सोच की तरह थे। मन की बात की तरह। मनुष्य की सोच में पता नहीं कैसे ब्रह्मांड आ गया था।
कोयल के कूकने और गेट के भीतर अख़बार के गिरने की आवाज़ एक साथ आए तो सबसे पहले क्या—कान या आँख?
यह सापेक्ष समय जब बीतता है तो हमें वैसे ही तराशता चलता है जैसे कि जल अपनी मसृणता में भी, कैसी ही चट्टान क्यों न हो, शताब्दियों तक टकराते-टकराते अंततः ढहा कर रख देता है।
मैं प्रकृति को कभी नहीं छूता। मैं उसे वैसे ही लेता हूँ जैसे मुझे वह मिली है।
किअर्केगार्ड के अनुसार सभी चीजों में पक्षियों की तरह पर्याप्त धैर्य और उड़ान की इच्छा रखता हूँ। स्वेच्छा से आँख मूँद कर पूरे धैर्य के साथ, प्रतिरोध के बीच चमकने का मक़सद लिये किये गये दैनन्दिन के कार्य दरअसल ऐसे विधान हैं, जो हमें नियन्त्रित करने की ईश्वर की आकांक्षा में बाधक नहीं हैं। रात दर रात हम जीवन के अध्यायों को बिना व्यवधान के ढक सकते हैं, बिना उनसे कोई विचार लिये जो ईश्वर की शरण में होते हैं।
नारी मन से ख़ुब प्यार करके भी, ऊपर से निरपेक्ष भाव बनाए रख सकती है। यह छल नहीं है, उसकी प्रकृति है।
प्रकृति कभी भी अपने नियमों को नहीं तोड़ती है।
प्रकृति से मेरा क्या अभिप्राय है, शायद इसे मैं न समझा सकूँगा। अगर किसी वस्तु को बिना सोचे-विचारे, केवल उसका मुख देखकर, मेरे मन ने स्वीकार किया है, तो वह प्रकृति है।