धर्म पर उद्धरण
धारयति इति धर्म:—यानी
जिसने सब कुछ धारण कर रखा है, वह धर्म है। इन धारण की जाती चीज़ों में सत्य, धृति, क्षमा, अस्तेय, शुचिता, धी, इंद्रिय निग्रह जैसे सभी लक्षण सन्निहित हैं। धर्म का प्रचलित अर्थ ‘रिलीज़न’ या मज़हब भी है। प्रस्तुत चयन में धर्म के अवलंब पर अभिव्यक्त रचनाओं का संकलन किया गया है।



मैं जीवन के बाद के जीवन की कल्पना नहीं कर पाता : जैसे ईसाई या अन्य धर्मों के लोग विश्वास रखते हैं और मानते हैं जैसे कि सगे-संबंधियों और दोस्तों के साथ हुई बातचीत जिसे मौत आकर बाधित कर देती है, और जो आगे भी जारी रहती है।

यज्ञ, अध्ययन, दान, तप, सत्य, क्षमा, दया और निर्लोभता—ये धर्म के आठ प्रकार के मार्ग बताए गए हैं। इनमें से पहले चारों का तो कोई दंभ के लिए भी सेवन कर सकता है, परंतु अंतिम चार तो जो महात्मा नहीं है, उनमें रह ही नहीं सकते।

धर्म का पालन करते हुए ही जो धन प्राप्त होता है, वही सच्चा धन है जो अधर्म से प्राप्त होता है वह धन तो धिक्कार देने योग्य है। संसार में धन की इच्छा से शाश्वत धर्म का त्याग कभी नहीं करना चाहिए।

भारतीय धर्म ने और भारतीय संस्कृति ने कभी नहीं कहा कि केवल हमारा ही एक धर्म सच्चा है और बाक़ी के झूठे हैं। हम तो मानते हैं कि सब धर्म सच्चे हैं, मनुष्य के कल्याण के लिए प्रकट हुए हैं। सब मिल कर इनका एक विशाल परिवार बनता है। इस पारिवारिकता को और आत्मीयता को को जो चीज़ें खंडित करती है उनकी छोड़ देने के लिए सब को तैयार रहना ही चाहिए। हर एक धर्म-समाज अंतर्मुख होकर अपने दिल को टटोल कर देखे कि जागतिक मानवीय एकता का द्रोह हमसे कहाँ तक हो रहा है।

दया और क्षमा भी मानव के धर्म हैं, तो शक्तिवान होना और उपयुक्त समय पर देश और धर्म की रक्षा के लिए शक्ति का प्रयोग करना भी धर्म है।

समाज धर्म के कारण से संगठित रहते हैं चाहे लोग उसका (धर्म का प्रदर्शन करें या उसे अपने हृदय में रखें। जब धर्म समाप्त हो जाता है तब पारस्परिक विश्वास भी नष्ट हो जाता है, लोगों का आचरण भ्रष्ट हो जाता है और उसका फल राष्ट्र को भुगतना पड़ता है। धर्म सुलाने वाला नहीं है अपितु शक्ति का आधार-स्तंभ है।

कामना, भय, लोभ अथवा जीवन-रक्षा के लिए भी धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए। धर्म नित्य है जबकि सुख-दुःख अनित्य हैं, जीव नित्य है तथा बंधन का हेतु अनित्य है।

धर्म कुछ संकुचित संप्रदाय नहीं है, केवल बाह्याचार नहीं है। विशाल, व्यापक धर्म है ईश्वरत्व के विषय में हमारी अचल श्रद्धा, पुनर्जन्म में अविरल श्रद्धा, सत्य और अहिंसा में हमारी संपूर्ण श्रद्धा।

मैं सब धर्मो को सच मानता हूँ। मगर ऐसा एक भी धर्म नहीं है जो संपूर्णता का दावा कर सके। क्योंकि धर्म तो हमें मनुष्य जैसी अपूर्ण सत्ता द्वारा मिलता है, अकेला ईश्वर ही संपूर्ण है। अतएव हिंदू होने के कारण अपने लिए हिंदू धर्म को सर्वश्रेष्ठ मानते हुए भी मैं यह नहीं कह सकता कि हिंदू धर्म सबके लिए सर्वश्रेष्ठ है; और इस बात को तो स्वप्न में भी आशा नहीं रखता कि सारी दुनिया हिंदू धर्म को अपनाए। आपकी भी यदि अपने ग़ैर-ईसाई भाइयों की सेवा करनी है तो आप उनकी सेवा करनी है तो आप उनकी सेवा उन्हें ईसाई बनाकर नहीं, बल्कि उनके धर्म की त्रुटियों को दूर करने में और उसे शुद्ध बनाने में उनकी सहायता करके भी कर सकते हैं।

एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति का धर्म परिवर्तन करने को मैं उचित नहीं मानता। मेरी कोशिश किसी दूसरे के धार्मिक विश्वास को हिलाने की या उनकी नींव खोदने की नहीं, बल्कि उसे अपने धर्म का एक अच्छा अनुयायी बनाने की होनी चाहिए। इसका तात्पर्य है सभी धर्मों की सच्चाई में विश्वास और इस कारण उन सबके प्रति आदरभाव का होना। इसका यह बी मतलब है कि हममें सच्ची विनयशीलता होनी चाहिए, इस तथ्य की ल्वीकृति होनी चाहिए कि चूँकि सभी धर्मों को हाड़-माँस के अपूर्ण माध्यम से दिव्य-ज्ञान प्राप्त हुआ है, इसलिए सभी धर्मों में कम या ज़्यादा मात्रा में मानवीय अपूर्णताएँ मौजूद हैं।

मैं समझा दूँ कि धर्म से मेरा क्या मतलब है। मेरा मतलब हिंदू धर्म से नहीं है जिसकी मैं बेशक और सब धर्म से ज़्यादा क़ीमत आँकता हूँ। मेरा मतलब उस मूल धर्म से है जो हिंदू धर्म से कहीं कहीं उच्चतर है, जो मनुष्य के स्वभाव तक का परिवर्तन कर देता है, जो हमें अंतर के सत्य से अटूट रूप से बाँध देता है और जो निरंतर अधिक शुद्ध और पवित्र बनाता रहता है। वह मनुष्य की प्रकृति का ऐसा स्थायी तत्त्व है जो अपनी संपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए कोई भी क़ीमत चुकाने को तैयार रहता है और उसे तब तक बिल्कुल बेचैन बनाए रखता है जब तक उसे अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं हो जाता, अपने स्त्रष्टा के और अपने बीच का सच्चा संबंध समझ में नहीं आ जाता।

हे राजा! धन से धर्म का पालन, कामना की पूर्ति, स्वर्ग की प्राप्ति, हर्ष की वृद्धि, क्रोध की सफलता, शास्त्रों का श्रवण और अध्ययन तथा शत्रुओं का दमन—ये सभी वही कार्य सिद्ध होते हैं।

सच्चा धन तो है बस धर्म, जो हिंदू का जीवन मर्म।

सब धर्म ईश्वर की देन हैं, परंतु उनमें मानव की अपूर्णता की पुट है, क्योंकि वे मनुष्य की बुद्धि और भाषा के माध्यम से गुज़रते हैं।

धर्म भटक जाता है, क्योंकि मनुष्य भटक जाता है।

धन-संचय से ही धर्म, काम, लोक तथा परलोक की सिद्धि होती है। धन को धर्म से ही पाने की इच्छा करे, अधर्म से कभी नहीं।

हमें तो एक ही धर्म की आवश्यकता है जो मानवात्मा को मुक्त करता हो; जो मनुष्य के मन में भय को नहीं आस्था को, औपचारिकता को नहीं स्वाभाविकता को, यांत्रिक जीवन की नीरसता को नहीं नैसर्गिक जीवन की रसात्मकता को बढ़ावा देता हो। हमें नहीं चाहिए ऐसा धर्म जो मनुष्य के मन का यंत्रीकरण कर देता हो, जिसका फल धार्मिक कट्टरता के रूप में सामने आता है। हमें ऐसा धर्म नहीं चाहिए जो लक्ष्यों का यंत्रीकरण करके अपने अनुयायियों से बिल्कुल एक जैसा आचरण करने की माँग करने लगता है।

‘‘विवेक तो बदरंग होता है।’’ जबकि जीवन एवं धर्म रंगों से भरे-पूरे होते हैं।

जो धर्म करने के लिए धनोपार्जन की इच्छा करता है, उसका धन की इच्छा न करना ही अच्छा है। कीचड़ लगा कर धोने की अपेक्षा मनुष्यों के लिए उसका स्पर्श न करना ही श्रेष्ठ है।

प्रत्येक जाति में मनुष्य को बाल्यकाल ही में एक धर्म-संघ का सदस्य बना देने की मूर्खतापूर्ण प्रथा चली आ रही है। जब उसमें जिज्ञासा नहीं, प्रेरणा नहीं, तब उसके धर्मग्रहण करने का क्या तात्पर्य हो सकता है?

धर्म से अर्थ प्राप्त होता है। धर्म के सुख का उदय होता है। धर्म से ही मनुष्य सब कुछ पाता है। इस संसार में धर्म ही सार है।

धर्म परिवर्तन करने के बारे में मैं यह नहीं कहना चाहता कि यह कभी उचित हो ही नहीं सकता। हमें दूसरों को अपना धर्म बदलने के लिए निमंत्रण नहीं देना चाहिए। मेरा धर्म सच्चा है और दूसरे सब धर्म झूठे हैं, इस तरह की जो मान्यता इन निमंत्रणों के पीछे रहती है, उसे मैं दोषपूर्ण मानता हूँ। लेकिन जहाँ ज़बरदस्ती से या ग़लतफ़हमी से किसी ने अपना धर्म छोड़ दिया हो, वहाँ उस में जाने में बाधा नहीं होनी चाहिए। इतना ही नहीं उसे प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। इसे धर्म-परिवर्तन नहीं कहा जा सकता।

हर व्यक्ति को जो चीज़ हृदयंगम हो गई है, वह उसके लिए धर्म है। धर्म बुद्धिगम्य वस्तु नहीं, हृदयगम्य है। इस लिए धर्म मूर्ख लोगों के लिए भी है।

सारा जीवन धर्म-क्षेत्र है और संसार भी धर्म है। केवल आध्यात्मिक ज्ञान की आलोचना और भक्ति का भाव ही धर्म नहीं है, कर्म भी धर्म है। हमारे सारे साहित्य में यही उच्च शिक्षा अति प्राचीन काल से सनातन भाव से व्याप्त हो रही है।

हे भारत! धर्म, अर्थ, भय, कामना तथा करुणा से दिया गया दान पाँच प्रकार का जानना चाहिए।


धर्म का पालन ज़ोर ज़बरदस्ती से नहीं हो सकता धर्म का पालन करने के लिए मरना होगा। संसार में ऐसा कोई धर्म पैदा नहीं हुआ, जिसमें मरना न पड़ा हो। मरने का रहस्य सीखने के बाद ही धर्म में ताक़त पैदा होती है धर्म के वृक्ष को मरने वाले ही सींचते हैं।

धर्म विश्वास की अपेक्षा व्यवहार अधिक है।

यदि धर्म का नाश किया जाए तो वह कर्ता को नष्ट कर देता है और रक्षित धर्म कर्ता की रक्षा करता है।

इस प्रकार संसार में धन पाकर जो लोग उसे मित्रों और धर्म में लगाते हैं, उनके धन सारवान हैं, नष्ट होने पर अंत में वे धन ताप नहीं पैदा करते।


अत्यंत लोभी का अर्थ और अधिक आसक्ति रखने वालों का काम—ये दोनों ही धर्म को हानि पहुँचाते हैं। जो मनुष्य काम से धर्म और अर्थ को अर्थ से धर्म और काम को तथा धर्म से अर्थ और काम को हानि न पहुँचा कर धर्म, अर्थ और काम तीनों का यथोचित रूप से सेवन करता है, वह अतयंत सुख प्राप्त करता है।

मन, वचन और कर्म से सब प्राणियों के प्रति अद्रोह, अनुग्रह और दान—यह सज्जनों का सनातन धर्म है।

धर्म आकाश से नीचे नहीं उतरता, धरती से ऊपर उठता है।

धर्म संपूर्ण जीवन की पद्धति है। धर्म जीवन का स्वभाव है। ऐसा नहीं हो सकता कि हम कुछ कार्य तो धर्म की मौजूदगी में करें और बाक़ी कामों के समय उसे भूल जाएँ।

हे जगदीश्वर, इस संसार में काले से भी काले कर्म करके जो लोग ललाट पर चंदन का सफ़ेद लेप लीपते हैं, उनकी भी गणना जब हम बड़े-बड़े धार्मिकों में की गई सुनाते हैं, तब हमारे मुँह से हँसी निकल ही जाती है।

आजकल और बातों की तरह धर्म-परिवर्तन ने भी व्यापार का रूप ले लिया हैं।

सारे ही धर्म एक समान बात कहते हैं। मनुष्यता ऊँचे गुणों को विकसित करना ही धर्म का उद्देश्य है।

धर्म ही लोक में सर्वश्रेष्ठ है। धर्म में सत्य प्रतिष्ठित है।

यदि धर्म को नष्ट किया जाए तो वह मनुष्य का नाश कर देता है। इसमें संशय नहीं है।

लोकयात्रा का निर्वाह करने के लिए ही धर्म का प्रतिपादन किया गया है। सर्वथा हिंसा न की जाए अथवा दुष्ट की हिंसा की जाए, यह प्रश्न उपस्थित होने पर जिसमें धर्म की रक्षा हो, वहीं कार्य श्रेष्ठ मानना चाहिए।

कुछ विद्वानों का मत है कि वेदों में प्रतिपादित वस्तु ही धर्म है किंतु दूसरे लोग धर्म का यह लक्षण स्वीकार नहीं करते। हम किसी भी मत पर दोषारोपण नहीं करते। इतना अवश्य है कि वेद में सभी बातों का विधान नहीं है।

अपने धर्म की चिंता मनुष्य नहीं करता किंतु दूसरों के लिए वह बराबर धर्म बनाता चलता है।

मुझे अपना धर्म झूठा लगे तो मुझे उसका त्याग कर चाहिए। दूसरे धर्म में जो कुछ अच्छा लगे, उसे मैं अपने धर्म में ले सकता हूँ लेना चाहिए। मेरा धर्म अपूर्ण लगे तो उसे पूर्ण बनाना मेरा फ़र्ज़ है। उसमें दोष दिखाई दें तो उन्हें दूर करना भी फ़र्ज़ है।

जाति का धर्म से कोई संबंध नहीं है।

धर्म का प्रवाह, कर्म, ज्ञान और भक्ति इन तीन धाराओं में चलता है। इन तीनों के सामंजस्य से धर्म अपनी पूर्ण सजीव दशा में रहता है। किसी एक के भी अभाव से वह विकलांग रहता है।

धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन की सुगंध गुलाब के फूल से अधिक मधुर और सूक्ष्म होती है।

मूल्य आज संपदा और सत्ता के संग्रह का बना हुआ है। धर्म अब वह है जो बताता है कि मूल्य संग्रह नहीं बल्कि अपरिग्रह है। संग्रह में आदमी हर किसी के पास से चीज़ों को अपनी ओर बटोरता है, लेकिन इसमें वह हर किसी के स्नेह को गँवाता भी जाता है। स्नेह को खोकर चीज़ को पा लेना, पाना नहीं गँवाना है। यह दृष्टि धर्म ही देता है और वह भोग की जगह त्याग की प्रतिष्ठा करता है। इसीलिए वह राजनीति और कर्म नीति परिणाम नहीं ला पाएगी जो धर्म नीति से हीन है।