
समाज ने स्त्रीमर्यादा का जो मूल्य निश्चित कर दिया है, केवल वही उसकी गुरुता का मापदंड नहीं। स्त्री की आत्मा में उसकी मर्यादा की जो सीमा अंकित रहती है, वह समाज के मूल्य से बहुत अधिक गुरु और निश्चित है, इसी से संसार भर का समर्थन पाकर जीवन का सौदा करने वाली नारी के हृदय में भी सतीत्व जीवित रह सकता है और समाज भर के निषेध से घिर कर धर्म का व्यवसाय करने वाली सती की साँसें भी तिल-तिल करके असती के निर्माण में लगी रह सकती हैं।

तुम्हारे हाथ स्वार्थमयी पृथ्वी की कलुष-कालिमा पोंछ देते हैं। प्रेम के दीप जलाकर, कर्तव्य की तपस्या से तुम संसार-पथ में गरिमा का वितरण करती हो।

घर की दीवारों में स्त्री को मर्यादित रखना किस काम का? वास्तविक मर्यादा तो उसका सतीत्व ही है।

परिवार मर्यादाओं से बनता है। परस्पर कर्त्तव्य होते हैं, अनुशासन होता है और उस नियत परंपरा में कुछ जनों की इकाई एक हित के आसपास जुटकर व्यूह में चलती है। उस इकाई के प्रति हर सदस्य अपना आत्मदान करता है, इज़्ज़त ख़ानदान की होती है। हर एक उससे लाभ लेता है और अपना त्याग देता है।

भौहें टेढ़ी करने पर भी दृष्टि और अधिक उत्सुक होकर उधर देखने लगती है, वाणी रुद्ध होने पर भी यह दग्ध मुख मुस्कराए बिना नहीं रहता, चित्त को कठोर करने पर भी शरीर पुलकित हो जाता है। भला उसकी दृष्टि के सामने मान का निर्वाह किस तरह होगा?

आज्ञा का उल्लंघन करने वाली प्रजा जो मन में आता है, बोलती है और जो मन में आता है, करती है तथा इस प्रकार सभी मर्यादाओं को अस्त-व्यस्त कर देती है। मर्यादारहित समाज इस लोक और परलोक से स्वामी और स्वयं को गिरा देता है।

मित्र को कृतज्ञ, धर्मनिष्ठ, सत्यवादी, क्षुद्रताहित, दृढ़ निष्ठा वाला, जितेंद्रिय, मर्यादा में स्थित और मित्र को न त्यागने वाला होना चाहिए।

सती की स्थिति (मर्यादा) मृणालतंतु के समान है जो थोड़ी भी चपलता से टूट जाती है।

उचित पाबंदी को निभाकर चलना उतना ही कल्याण-कारी है, जितना अनुचित पाबंदी को तोड़ कर चलना।

मर्यादा? भाग्य ने झुकने के लिए जिन्हें परवश कर दिया है, उन लोगों के मन में मर्यादा का ध्यान और भी अधिक रहता है यह उनकी दयनीय दशा है।

दूसरों को मर्यादा देकर, दूसरों से मर्यादा प्राप्त करना चाहिए।

हम मर्यादा को तोड़ते हैं, तो उच्छृंखल हो जाते हैं और बंधन को तोड़ते हैं तो विद्रोही।