नीति पर दोहे

नीति-विषयक दोहों और

अन्य काव्यरूपों का एक विशिष्ट चयन।

‘तुलसी’ काया खेत है, मनसा भयौ किसान।

पाप-पुन्य दोउ बीज हैं, बुवै सो लुनै निदान॥

गोस्वामी जी कहते हैं कि शरीर मानो खेत है, मन मानो किसान है। जिसमें यह किसान पाप और पुण्य रूपी दो प्रकार के बीजों को बोता है। जैसे बीज बोएगा वैसे ही इसे अंत में फल काटने को मिलेंगे। भाव यह है कि यदि मनुष्य शुभ कर्म करेगा तो उसे शुभ फल मिलेंगे और यदि पाप कर्म करेगा तो उसका फल भी बुरा ही मिलेगा।

तुलसीदास

राम नाम अवलंब बिनु, परमारथ की आस।

बरषत वारिद-बूँद गहि, चाहत चढ़न अकास॥

राम-नाम का आश्रय लिए बिना जो लोग मोक्ष की आशा करते हैं अथवा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी चारों परमार्थों को प्राप्त करना चाहते हैं वे मानो बरसते हुए बादलों की बूँदों को पकड़ कर आकाश में चढ़ जाना चाहते हैं। भाव यह है कि जिस प्रकार पानी की बूँदों को पकड़ कर कोई भी आकाश में नहीं चढ़ सकता वैसे ही राम नाम के बिना कोई भी परमार्थ को प्राप्त नहीं कर सकता।

तुलसीदास

उहां कबहूँ जाइए, जहाँ हरि का नाम।

दिगंबर के गाँव में, धोबी का क्या काम॥

मलूकदास

अगलिअ-नेह-निवट्टाहं जोअण-लक्खु वि जाउ।

वरिस-सएण वि जो मिलइ सहि सोक्खहं सो ठाउ॥

अगलित स्नेह में में पके हुए लोग लाखों योजन भी चले जाएँ और सौ वर्ष बाद भी यदि मिलें तो हे सखि, मैत्री का भाव वही रहता है।

हेमचंद्र

तोय मोल मैं देत हौ, छीरहि सरिस बढ़ाइ।

आँच लागन देत वह, आप पहिल जर जाइ॥

दूध पानी को अपने में मिलाकर उसका मूल्य अपने ही समान बना देता है। पर जब दूध को आग पर गर्म किया जाता है तो दूध से पहले पानी अपने को जला लेता है और दूध को बचा लेता है। मित्रता हो तो दूध और पानी जैसी हो।

रसनिधि

आवत हिय हरषै नहीं, नैनन नहीं सनेह।

‘तुलसी’ तहाँ जाइए, कंचन बरसे मेह॥

जिस घर में जाने पर घर वाले लोग देखते ही प्रसन्न हों और जिनकी आँखों में प्रेम हो, उस घर में कभी जाना चाहिए। उस घर से चाहे कितना ही लाभ क्यों हो वहाँ कभी नहीं जाना चाहिए।

तुलसीदास

पंचहँ णायकु वसिकरहु, जेण होंति वसि अण्ण।

मूल विणट्ठइ तरुवरहँ, अवसइँ सुक्कहिं पण्णु॥

पाँच इंद्रियों के नायक मन को वश में करो जिससे अन्य भी वश में होते हैं। तरुवर का मूल नष्ट कर देने पर पर्ण अवश्य सूखते हैं।

जोइंदु

ब्राह्मण खतरी बैस सूद रैदास जनम ते नांहि।

जो चाहइ सुबरन कउ पावइ करमन मांहि॥

कोई भी मनुष्य जनम से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र नहीं होता। यदि कोई मनुष्य उच्च वर्ण को प्राप्त करना चाहता है तो वह केवल सुकर्म से ही उसे प्राप्त कर सकता है। सुकर्म ही मानव को ऊँचा और दुष्कर्म ही नीचा बनाता है।

रैदास

जो आवै सत्संग में, जात वर्ण कुलखोय।

सहजो मैल कुचील जल, मिलै सुगंगा होय॥

सहजो कहती हैं कि जैसे एकदम मैला-गंदा पानी गंगा में मिले जाने पर उसी के समान पवित्र हो जाता है, उसी प्रकार संत जनों की संगति से कौआ अर्थात् मूर्ख व्यक्ति भी हंस अर्थात् ज्ञानी-विवेकी बन जाता है।

सहजोबाई

समदरसी ते निकट है, भुगति-भुगति भरपूर।

विषम दरस वा नरन तें, सदा सरबदा दूर॥

जो लोग समदर्शी हैं, प्राणीमात्र के लिए समान भाव रखते हैं, उनको भोग और मोक्ष दोनों अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। इसके विपरीत जो विषमदर्शी हैं, जो भेद-भावना से काम लेते हैं, उन्हें वह मुक्ति कदापि नहीं प्राप्त हो सकती। ऐसे लोगों से भोग और मोक्ष दोनों दूर भागते हैं।

चंदबरदाई

दुर्जन दर्पण सम सदा, करि देखौ हिय गौर।

संमुख की गति और है, विमुख भए पर और॥

दुर्जन शीशे के समान होते हैं, इस बात को ध्यान से देख लो, क्योंकि दोनों ही जब सामने होते हैं तब तो और होते हैं और जब पीछ पीछे होते हैं तब कुछ और हो जाते हैं। भाव यह है कि दुष्ट पुरुष सामने तो मनुष्य की प्रशंसा करता है और पीठ पीछे निंदा करता है, इसी प्रकार शीशा भी जब सामने होता है तो वह मनुष्य के मुख को प्रतिबिंबित करता है; पर जब वह पीठ पीछे होता है तो प्रतिबिंबित नहीं करता।

तुलसीदास

दिवेहि विढत्तउँ खाहि वढ़ संचि एक्कु वि द्रम्मु।

को वि द्रवक्कउ सो पडइ जेण समप्पइ जम्मु॥

हे मूर्ख, दिन-दिन कमाये धन को खा, एक भी दाम संचित मत कर। कोई भी ऐसा संकट पड़ेगा जिससे जीवन ही समाप्त हो जाएगा।

हेमचंद्र

सज्जन हित कंचन-कलश, तोरि निहारिय हाल।

दुर्जन हित कुमार-घट, बिनसिन जुरै जमाल॥

सज्जन पुरुष का प्रेम सुवर्ण के कलश के समान है जो कि टूट जाने पर जुड़ जाता है, पर दुर्जन का प्रेम मिट्टी के घड़े-सा है जो कि टूटने पर जुड़ ही नहीं सकता।

जमाल

रोस करि जौ तजि चल्यौ, जानि अँगार गँवार।

छिति-पालनि की माल में, तैंहीं लाल सिंगार॥

हे लाल! यदि तुझे कोई गँवार मनुष्य, जो तेरे गुणों को नहीं पहचानता, छोड़कर चला भी गया तो भी कुछ बुरा मत मान; क्योंकि गँवार लोग भले ही तुम्हारा आदर करें पर राजाओं के मुकुटों का तो तू ही शृंगार है। भाव यह है कि किसी विद्वान् गुणी व्यक्ति का कोई मूर्ख यदि आदर भी करे तो भी उसे दु:खी नहीं होना चाहिए, क्योंकि समझदार लोग तो उसका सदा सम्मान ही करेंगे।

मतिराम

नहिं परागु नहिं मधुर मधु, नहिं बिकासु इहिं काल।

अली कली ही सौं बंध्यौ, आगैं कौन हवाल॥

नायिका में आसक्त नायक को शिक्षा देते हुए कवि कहता है कि तो अभी इस कली में पराग ही आया है, मधुर मकरंद ही तथा अभी इसके विकास का क्षण ही आया है। अरे भौरे! अभी तो यह एक कली मात्र है। तुम अभी से इसके मोह में अंधे बन रहे हो। जब यह कली फूल बनकर पराग तथा मकरंद से युक्त होगी, उस समय तुम्हारी क्या दशा होगी? अर्थात् जब नायिका यौवन संपन्न सरसता से प्रफुल्लित हो जाएगी, तब नायक की क्या दशा होगी?

बिहारी
  • संबंधित विषय : फूल

कपट वचन अपराध तैं, निपट अधिक दुखदानि।

जरे अंग में संकु ज्यौं, होत विथा की खानि॥

अपराध करने से भी अपराध करके झूठ बोलना और कपट-भरे वचनों से उस अपराध को छिपाने का प्रयत्न करना बहुत अधिक दु:ख देता है। वे कपट वचन तो जले हुए अंग में मानो कील चुभाने के समान अधिक दु:खदायक और असत्य प्रतीत होते हैं।

मतिराम

दया धर्म हिरदे बसै, बोलै अमृत बैन।

तेई ऊँचे जानिए, जिन के नीचे नैन॥

मलूकदास

जो गुण गोवइ अप्पणा पयडा करइ परस्सु।

तसु हउँ कलि-जुगि दुल्लहहो बलि किज्जउँ सुअणस्सु॥

जो अपना गुण छिपाए और दूसरे का गुण प्रकट करे, कलिकाल में दुर्लभ उस सज्जन पर मैं बलि-बलि जाऊँ।

हेमचंद्र

घर दीन्हे घर जात है, घर छोड़े घर जाय।

‘तुलसी’ घर बन बीच रहू, राम प्रेम-पुर छाय॥

यदि मनुष्य एक स्थान पर घर करके बैठ जाय तो वह वहाँ की माया-ममता में फँसकर उस प्रभु के घर से विमुख हो जाता है। इसके विपरीत यदि मनुष्य घर छोड़ देता है तो उसका घर बिगड़ जाता है, इसलिए कवि का कथन है कि भगवान् राम के प्रेम का नगर बना कर घर और बन दोनों के बीच समान रूप से रहो, पर आसक्ति किसी में रखो।

तुलसीदास

बिनु विश्वास भगति नहीं, तेही बिनु द्रवहिं राम।

राम-कृपा बिनु सपनेहुँ, जीव लहि विश्राम॥

भगवान् में सच्चे विश्वास के बिना मनुष्य को भगवद्भक्ति प्राप्त नहीं हो सकती और बिना भक्ति के भगवान् कृपा नहीं कर सकते। जब तक मनुष्य पर भगवान् की कृपा नहीं होती तब तक मनुष्य स्वप्न में भी सुख-शांति नहीं पा सकता। अत: मनुष्य को भगवान् का भजन करते रहना चाहिए ताकि भगवान् के प्रसन्न हो जाने पर भक्त को सब सुख-संपत्ति अपने आप प्राप्त हो जाय।

तुलसीदास

मन मैला मन निरमला, मन दाता मन सूम।

मन ज्ञानी अज्ञान मन, मनहिं मचाई धूम॥

रसनिधि कवि कहते हैं कि मन ही मैला या अपवित्र है और मन ही पवित्र है, मन ही दानी है और मन ही कंजूस है। मन ही ज्ञानी है, और मन ही अज्ञानी है। इस प्रकार मन ने सारे संसार में अपनी धूम मचा रखी है।

रसनिधि

जीविउ कासु वल्लहउं घणु पणु कासु इट्ठु।

दोणिण वि अवसर-निवडिअइं तिण-सम गणइ विसिट्ठु॥

जीवन किसे प्यारा नहीं? धन किसे इष्ट नहीं? किंतु मौक़ पड़ने पर महान पुरुष दोनों को तिनके के समान गिनता है।

हेमचंद्र

सरिहिँ सरेहि सरवरेहिँ वि उज्जाण-वणेहिं।

देस रवण्णा होंति वढ़ निवसन्तेहिँ सुअणेहिं॥

हे मूढ़, सरिताओं से, सरों से, सरोवरों से, और उद्यानों और वनों से भी! किंतु बसते हुए सज्जनों से देश रमणीय होते हैं।

हेमचंद्र

बलि-अब्भत्थणि महु-महणु लहुईहूआ सोइ।

जइ इच्छहु वड्डत्तणउं देहु मग्गहु कोई॥

बलि की अभ्यर्थना करने से (दान मांगने से) विष्णु भी छोटे हो गए। यदि बड़प्पन चाहते हो तो (दान) दो, किसी से माँगो मत।

हेमचंद्र

धन्नो कहै ते धिग नरां, धन देख्यां गरबाहिं।

धन तरवर का पानड़ा, लागै अर उड़ि जाहिं॥

धन्ना भगत

क्या गंगा क्या गोमती, बदरी गया पिराग।

सतगुर में सब ही आया, रहे चरण लिव लाग॥

फूलीबाई

सज्जन एहा चाहिये, जेहा तरवर ताल।

फल भच्छत पानी पियत, नाहि करत जमाल॥

सज्जन को तालाब और वृक्ष-सा परोपकारी होना चाहिए। ये दोनों पानी पीने और फल खाने के लिए किसी को मना नहीं करते हैं।

जमाल

ऐसो मीठो नहिं पियुस, नहिं मिसरी नहिं दाख।

तनक प्रेम माधुर्य पें, नोंछावर अस लाख॥

प्रेम जितना मिठास दाख में है, मिसरी में और अमृत में। प्रेम के तनिक माधुर्य पर ऐसी लाखों वस्तुएँ न्योछावर है।

दयाराम

वम्भ ते विरला के वि नर जे सव्वंग छइल्ल।

जे बंका ते वंचयर जे उज्जुअ ते बइल्ल॥

हे ब्रह्मन्, वे नर कोई विरले ही होते हैं जो सर्वाङ्ग छैल हों। जो बाँके हैं, वे वंचक होते हैं और जो सरल होते हैं, वे बैल होते हैं।

हेमचंद्र

किरतिम देव पूजिए, ठेस लगे फुटि जाय।

कहैं मलूक सुभ आत्मा, चारों जुग ठहराय॥

मलूकदास

हिंदू तो हरिहर कहे, मुस्सलमान खुदाय।

साँचा सद्गुरु जे मिले, दुविधा रहे ना काय॥

संत बाबालाल

परसा तब मन निर्मला, लीजै हरिजल धोय।

हरि सुमिरन बिन आत्मा, निर्मल कभी होय॥

संत परशुरामदेव

राम-राम के नाम को, जहाँ नहीं लवलेस।

पानी तहाँ पीजिए, परिहरिए सो देस॥

मलूकदास

जब लग स्वांस सरीर में, तब लग नांव अनेक।

घट फूटै सायर मिलै, जब फूली पूरण एक॥

फूलीबाई

गैंणा गांठा तन की सोभा, काया काचो भांडो।

फूली कै थे कुती होसो, रांम भजो हे रांडों॥

फूलीबाई

‘तुलसी’ संत सुअंब तरु, फूलि फलहिं पर हेत।

इतते ये पाहन हनत, उतते वे फल देत॥

तुलसीदास कहते हैं कि सज्जन और रसदार फलों वाले वृक्ष दूसरों के लिए फलते-फूलते हैं क्योंकि लोग तो उन वृक्षों पर या सज्जनों पर इधर से पत्थर मारते हैं पर उधर से वे उन्हें पत्थरों के बदले में फल देते हैं। भाव यह है कि सज्जनों के साथ कोई कितना ही बुरा व्यवहार क्यों करे, पर सज्जन उनके साथ सदा भला ही व्यवहार करते हैं।

तुलसीदास

अरी मधुर अधरान तैं, कटुक बचन मत बोल।

तनक खुटाई तैं घटै, लखि सुबरन को मोल॥

रसनिधि
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय। 
टूटे से फिर ना मिले, मिले गाँठ परि जाय॥ 

रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय। 
सुनि अठिलैहैं लोग सब, बाँटि न लैहैं कोय॥

एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय। 
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय॥

चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध-नरेस। 
जा पर बिपदा पड़त है, सो आवत यह देस॥

दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे आहिं। 
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमिटि कूदि चढ़ि जाहिं॥

धनि रहीम जल पंक को लघु जिय पिअत अघाय। 
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पिआसो जाय॥

नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत। 
ते रहीम पशु से अधिक, रीझेहु कछू न देत॥

बिगरी बात बने नहीं, लाख करौ किन कोय। 
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय॥

रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि। 
जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तरवारि॥

रहिमन निज संपति बिना, कोउ न बिपति सहाय। 
बिनु पानी ज्यों जलज को, नहिं रवि सके बचाय॥

रहिमन पानी राखिए, बिनु पानी सब सून। 
पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून॥
रहीम

कामी कंथ के कारणै, कै करीये सिणगार।

पत को पत रीझायलो, फूली को भरतार॥

फूलीबाई

असन बसन सुत नारि सुख, पापिहुँ के घर होइ।

संत-समागम रामधन, ‘तुलसी’ दुर्लभ दोइ॥

भोजन, वस्त्र, पुत्र और स्त्री-सुख तो पापी के घर में भी हो सकते हैं; पर सज्जनों का समागम भगवान् और राम रूपी धन की प्राप्ति ये दोनों बड़े दुर्लभ हैं। भाव यह है कि जिसके बड़े भाग्य होते हैं उसे ही भगवद्भक्ति तथा सज्जन पुरुषों की संगति प्राप्त होती है।

तुलसीदास

मान रखिवौ माँगिबौ, पिय सों सहज सनेहु।

‘तुलसी’ तीनों तब फबैं, जब चातक मत लेहु॥

माँगकर भी अपने मान को बचाए रखना, साथ ही प्रिय से स्वाभाविक प्रेम भी बनाए रखना—ये तीनों बातें तभी अच्छी लग सकती हैं, जब कि व्यक्ति पपीहे के समान आचरण अपने व्यवहार में लाए। पपीहा बादल से पानी की बूँदों की प्रार्थना भी करता है और अपने स्वाभिमान को भी बनाए रखता है। क्योंकि उसके हृदय में बादल के प्रति सच्चा प्रेम है, वह बादल के सिवा और किसी से कुछ नहीं माँगता। भाव यह कि सच्चा प्रेमी अपने प्रियतम से माँग कर भी अपने प्रेम और मान की रक्षा कर लेता है, पर दूसरे लोगों का माँगने से मान और प्रेम घट जाता है।

तुलसीदास

परज्या कौ रक्षा करै सोई स्वामि अनूप।

तर सब कौं छहियाँ करै, सहै आप सिर धूप॥

जान कवि

डाकी ठाकर सहण कर, डाकण दीठ चलाय।

मायड़ खाय दिखाय थण, धण पण वलय बताय॥

प्रतापी स्वामी जब अपने सेवकों के अपराध पर भी मौन धारण कर लेता है तब उन अपराधी सेवकों का मरण हो जाता है मानो उनके अपराध को सहन करके समर्थ स्वामी अपने मौन द्वारा उनको खा जाता है। जिस प्रकार डाकिन अपने भक्ष्य को नज़र से खा जाती है (लोगों में विश्वास है कि डाकिन की नज़र लगने पर आदमी मर जाता है) उसी प्रकार युद्ध से लौटे हुए कायर पुत्र को माता जब अपने स्तनों की ओर इशारा करके कहती है कि तूने इनका दूध लजा दिया तो उस कायर पति को देखकर अपने चूड़े की तरफ़ इशारा करके कहती है कि तूने इस चूड़े को लजा दिया तो उस कायर पुत्र का मरण हो जाता है। इसी प्रकार जब स्त्री भी युद्ध से लौटे हुए अपने कायर पति को देखकर अपने चूड़े की तरफ़ इशारा करके कहती है कि तूने इस चूड़े को लजा दिया तब उस कायर पति का मरण हो जाता है। इस प्रकार के वीरोचित व्यवहार से माता अपने पुत्र को और पत्नी अपने पति को खा जाती है, उनमें कुछ भी बाक़ी नहीं छोड़ती।

सूर्यमल्ल मिश्रण
  • संबंधित विषय : वीर

संतत सहज सुभाव सों, सुजन सबै सनमानि।

सुधा-सरस सींचत स्रवन, सनी-सनेह सुबानि॥

दुलारेलाल भार्गव

बड़े बड़न के भार कों, सहैं अधम गँवार।

साल तरुन मैं गज बँधै, नहि आँकन की डार॥

दीनदयाल गिरि

सदा झूठहीं बोलिहैं, तिहि आदर घटि जाइ।

कबहू बोलै साँचु वहु, तऊ को पतियाइ॥

जान कवि

तीन भाँति के द्रुजन हैं पंडित कहत बिचित्र।

अप बैरी, बैरी सजन, पुनि द्रुजनन कौ नित्र॥

जान कवि

पीपा पाप कीजिये, अलगौ रहिये आप।

करणी जासी आपणी, कुण बैटौ कुण बाप॥

संत पीपा

साधुन की निंदा बिना, नहीं नीच बिरमात।

पियत सकल रस काग खल, बिनु मल नहीं अघात॥

दीनदयाल गिरि

परनारी पर सुंदरी, बिरला बंचै कोइ।

खातां मीठी खाँड़ सी, अंति कालि विष होइ॥

पराई स्त्री तथा पराई सुंदरियों से कोई बिरला ही बच पाता है। यह खाते (उपभोग करते) समय खाँड़ के समान मीठी (आनंददायी) अवश्य लगती है किंतु अंततः वह विष जैसी हो जाती है।

कबीर

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