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वीर पर दोहे

विकट परिस्थिति में भी

आगे बढ़कर अपने कर्तव्यों का पालन करने वाले व्यक्ति को वीर कहा जाता है और उसकी वीरता की प्रशंसा की जाती है। इस चयन में वीर और वीरता को विषय बनाती कविताओं को शामिल किया गया है।

मतवालो जोबन सदा, तूझ जमाई माय।

पड़िया थण पहली पड़ै, बूढ़ी धण सुहाय॥

हे माता! तुम्हारा दामाद सदा यौवन में मस्त हैं। उन्हें पत्नी का वृद्धत्व नहीं सुहाता। इसलिए पत्नी के स्तन ढीले पड़ने के पहले ही वे अपना देहपात कर डालेंगे। अर्थात्

प्रेम और शौर्य दोनों का एक साथ निर्वाह वीरों का आदर्श रहा है।

सूर्यमल्ल मिश्रण

कंत घरे किम आविया, तेहां रौ घण त्रास।

लहँगे मूझ लुकीजियै, बैरी रौ विसास॥

कायर पति के प्रति वीरांगना की व्यंग्यात्मक उक्ति है—हे पति-देव! घर कैसे पधार

आए? क्या तलवारों का बहुत डर लगा? ठीक तो है। आइए, मेरे लहँगे में छिप

सूर्यमल्ल मिश्रण

माई एहड़ा पूत जण, जेहड़ा राण प्रताप।

अकबर सूतो ओझकै, जाण सिराणै साँप॥

हे माता ऐसे पुत्रों को जन्म दे, जैसा राणा प्रताप है। जिसको अकबर सिरहाने का साँप समझ कर सोता हुआ चौंक पडता है।

पृथ्वीराज राठौड़

हेली तिल तिल कंत रै, अंग बिलग्गा खाग।

हूँ बलिहारी नीमड़ै, दीधौ फेर सुहाग॥

नीम की प्रशंसा करती हुई एक वीरांगना कहती है—हे सखी! पति के शरीर पर तिल-तिल भर जगह पर भी तलवारों के घाव लगे थे परंतु मैं नीम वृक्ष पर बलिहारी हूँ कि उसके उपचार ने मुझे फिर सुहाग दे दिया।

सूर्यमल्ल मिश्रण

धव जीवे भव खोवियौ, मो मन मरियौ आज।

मोनूं ओछै कंचुवै, हाथ दिखातां लाज॥

हे पति! तुमने युद्ध में जीवित बचकर (अपनी कीर्ति को नष्ट करके) जन्म ही वृथा खो दिया। अतः मेरे मन का सारा उल्लास आज मर गया है। अब मुझे सुहाग-चिह्न ओछी कंचुकी में हाथ लगाते भी अर्थात् पहनने में भी लज्जा आती है। इस प्रकार के सौभाग्य से तो वैधव्य अच्छा!

सूर्यमल्ल मिश्रण

पाइ विलग्गी अन्त्रडी सिरु ल्हसिउँ खन्धस्सु।

तो वि कटारइ हत्थडउ बलि किज्जउं कंतस्सु॥

पाँव तक अँतड़ियाँ लटक रही हैं, सिर (कटकर) कंधे से झूल गया है, लेकिन हाथ कटारी पर है। ऐसे कंत की मैं बलि जाऊँ।

हेमचंद्र

हियडा जइ वेरिअ घणा तो किं अब्भि चडाहुँ।

अम्हाहिं बे हत्थडा जइ पुणु मारि मराहुँ॥

हे मन, यदि दुश्मन बहुत हैं तो क्या बादल पर चढ़ जाऊँ? हमारे भी दो हाथ हैं, मार कर मरेंगे।

हेमचंद्र

खोयो मैं घर में अवट, कायर जंबुक काम।

सीहां केहा देसड़ा, जेथ रहै सो धाम॥

सिंहों के लिए कौनसा देश और कौनसा परदेश! वे जहाँ रहें, वहीं उनका घर हो जाता है। किंतु खेद है कि मैंने तो घर पर रहकर ही सियार के से कायरोचित कामों में अपनी पूरी उम्र बिता दी।

सूर्यमल्ल मिश्रण

एहु जम्मु नग्गहं गियउ भड-सिरि खग्गु भग्गु।

तिक्खाँ तुरिय माणिया गोरी गलि लग्गु॥

वह जन्म व्यर्थ गया जिसने शत्रु के सिर पर खड्ग का वार नहीं किया, तीखे घोड़े पर सवारी की और गोरी को गले ही लगाया।

मुंज

कंत सुपेती देखतां, अब की जीवण आस।

मो थण रहणै हाथ हूँ, घातै मुंहड़ै घास॥

हे कंत! बालों की सफ़ेदी देखते हुए अब और जीने की कितनी आशा है कि मेरे स्तनों पर रहने वाले हाथों से शत्रु के सामने आप मुँह में तिनका ले लेते हैं! अर्थात् आप जैसे वृद्ध को जीवन के प्रति मोह दिखाकर मुझ जैसी वीरांगना को लज्जित नहीं करना चाहिए।

सूर्यमल्ल मिश्रण

भल्ला हुआ जु मारिआ बहिणि महारा कंतु।

लज्जेज्जंतु वयंसिअहु जइ भग्गा धर एंतु॥

हे बहिन, भला हुआ मेरा कंत मारा गया। यदि भागा हुआ घर आता तो मैं सखियों में लजाती।

हेमचंद्र

डाकी ठाकर सहण कर, डाकण दीठ चलाय।

मायड़ खाय दिखाय थण, धण पण वलय बताय॥

प्रतापी स्वामी जब अपने सेवकों के अपराध पर भी मौन धारण कर लेता है तब उन अपराधी सेवकों का मरण हो जाता है मानो उनके अपराध को सहन करके समर्थ स्वामी अपने मौन द्वारा उनको खा जाता है। जिस प्रकार डाकिन अपने भक्ष्य को नज़र से खा जाती है (लोगों में विश्वास है कि डाकिन की नज़र लगने पर आदमी मर जाता है) उसी प्रकार युद्ध से लौटे हुए कायर पुत्र को माता जब अपने स्तनों की ओर इशारा करके कहती है कि तूने इनका दूध लजा दिया तो उस कायर पति को देखकर अपने चूड़े की तरफ़ इशारा करके कहती है कि तूने इस चूड़े को लजा दिया तो उस कायर पुत्र का मरण हो जाता है। इसी प्रकार जब स्त्री भी युद्ध से लौटे हुए अपने कायर पति को देखकर अपने चूड़े की तरफ़ इशारा करके कहती है कि तूने इस चूड़े को लजा दिया तब उस कायर पति का मरण हो जाता है। इस प्रकार के वीरोचित व्यवहार से माता अपने पुत्र को और पत्नी अपने पति को खा जाती है, उनमें कुछ भी बाक़ी नहीं छोड़ती।

सूर्यमल्ल मिश्रण

रैदास सोई सूरा भला, जो लरै धरम के हेत।

अंग−अंग कटि भुंइ गिरै, तउ छाड़ै खेत॥

रैदास कहते हैं कि वही शूरवीर श्रेष्ठ होता है जो धर्म की रक्षा के लिए लड़ते−लड़ते अपने अंग−प्रत्यंग कटकर युद्धभूमि में गिर जाने पर भी युद्धभूमि से पीठ नहीं दिखाता।

रैदास

सूर समर करनी करहीं, कहि जनावहिं आप।

विद्यमान रिपु पाइ रन, कायर करहिं प्रलाप॥

शूरवीर युद्ध में काम करके दिखाते हैं, मुँह से बातें बना कर अपनी बड़ाई नहीं करते। इसके विपरीत कायर पुरुष युद्ध में शत्रु को सामने देखकर बकवाद करने लगते हैं। भाव यह है कि वीर पुरुष काम करके दिखाते हैं, बातें नहीं बनाते और नीच पुरुष बातें तो बढ़कर बनाते हैं पर काम के समय भाग जाते हैं।

तुलसीदास

सूर पूछे टीपणौ, सुकन देखै सूर।

मरणां नू मंगळ गिणे, समर चढे मुख नूर॥

शूरवीर ज्योतिषी के पास जाकर युद्ध के लिए मुहूर्त नहीं पूछता, शूर शकुन नहीं देखता। वह मरने में ही मंगल समझता है और युद्ध में उनके मुँह पर तेज चमक

आता है।

कविराजा बाँकीदास

लाऊं पै सिर लाज हूं, सदा कहाऊं दास।

गण ह्वै गाऊं तूझ गुण, पाऊंवीर प्रकास॥

हे गणपति! मैं आपके चरणों में लज्जा से अपना सिर झुकता हूँ क्योंकि मैं आपका सदा दास कहलाता हूँ। अतः मैं आप का गण होकर आपका गुण-गान करता हूँ जिससे मुझे वीर रस का प्रकाश मिले। अर्थात् मैं दासत्व की भावना का उन्मूलन करके अपनी इस कृति में वीर रस का मूर्तिमान स्वरूप खड़ा कर सकूँ।

सूर्यमल्ल मिश्रण

समली और निसंक भख, अबंक राह जाह।

पण धण रौ किम पेखही, नयण बिणट्ठा नाह॥

हे चील! और दूसरे अंगों को तो तू भले ही निःसंकोच खा किंतु नेत्रों की तरफ़ मत जा। क्योंकि यदि तू प्राणनाथ को नेत्र-विहीन कर देगी तो वे अपनी पत्नी का सती होने का प्रणपालन कैसे देखेंगे।

सूर्यमल्ल मिश्रण
  • संबंधित विषय : सती

सहणी सबरी हूं सखी, दो उर उलटी दाह।

दूध लजाणै पूत सम, बलय लजाणौ नाह॥

हे सखी! और सब बातें मुझे सहन हो जाती हैं किंतु यदि प्राणनाथ मेरी चूड़ियों को लजा दें और पुत्र मेरे दूध को, तो ये दो बातें मेरे लिए समान रूप से दाहकारी एवं हृदय को उलट देने वाली हैं—असह्य हैं।

सूर्यमल्ल मिश्रण

थाल बजंता हे सखी, दीठौ नैण फुलाय।

बाजां रै सिर चेतनौ, भ्रूणां कवण सिखाय॥

नवजात शिशु के लिए माता अपनी सखी से कहती है कि प्रसूतिकाल के समय ही बजते हुए थाल को इसने आँखें फुला-फुला कर देखा। हे सखी! बाजा सुनते ही उल्लसित हो जाना गर्भ में ही इन्हें कौन सिखाता है? अर्थात् शूर-वीर के लिए उत्साह और स्फूर्ति जन्मजात होती है।

सूर्यमल्ल मिश्रण

एइ ति घोड़ा एह थलि एइ ति निसिआ खग्ग।

एत्थु मणीसिम जाणिअइ जो नवि वालइ वग्ग॥

ये वे घोड़े हैं, यह वह स्थली है, ये वे निशित खड्ग हैं, यहाँ यदि घोड़े की बाग मोड़े तो पौरुष जानिए।

हेमचंद्र

सूतो देवर सेज रण, प्रसव अठी मो पूत।

थे घर बाभी बाँट थण, पालौ उभय प्रसूत॥

देवरानी अपनी जेठानी से कहती है कि हे भावज! इधर तो मेरे पुत्र उत्पन्न हुआ है और उधर आपके देवर रणशय्या पर सो गए हैं। अब यही उचित है कि आप अपना एक-एक स्तन मेरे आपके शिशु में बाँट कर दोनों को पालें; मैं सती होऊँगी।

सूर्यमल्ल मिश्रण
  • संबंधित विषय : सती

कंत भलाँ घर आविया, पहरीजै मो बेस।

अब धण लाजी चूड़ियाँ, भव दूजै भेटेस॥

हे कंत! आप घर पधार आए हैं तो अच्छी बात है! मेरे वस्त्र पहन लीजिए। आपकी पत्नी तो इन चूड़ियों से लज्जित हो रही है। उससे तो दूसरे जन्म में ही भेंट हो सकेगी अर्थात् जीते जी अपना मिलन नहीं होगा।

सूर्यमल्ल मिश्रण

हथलेवै ही मूठ किण, हाथ विलग्गा माय।

लाखां बातां हेकलो चूड़ौ मो लजाय॥

पाणिग्रहण के अवसर पर पति की हथेली के तलवार की मूठ के निशानों का मेरे हाथ से स्पर्श हुआ जिससे हे माता! मैं जान गईं कि चाहे कुछ भी हो जाए युद्ध में अकेले होने पर भी वे मेरे चूड़े को कभी लजाएँगे। अर्थात् या तो युद्ध में विजयी होकर लौटेंगे अथवा वीरगति प्राप्त करेंगे।

सूर्यमल्ल मिश्रण

भोला की डर भागियौ, अंत पहुड़ै ऐण।

बीजी दीठां कुल बहू, नीचा करसी नैण॥

रे मुर्ख। किस डर से तू भाग आया? क्या मृत्यु घर पर नहीं आएगी? (मृत्यु निश्चित है, चाहे वह युद्धक्षेत्र में हो चाहे घर पर) दूसरी बात यह है कि तेरे कारण वह बेचारी कुल-वधू शर्म से नीची आँखें करेगी कि उसे ऐसा कायर पति मिला।

सूर्यमल्ल मिश्रण

मणिहारी जा रही सखी, अब हवेली आव।

पीव मुवा घर आविया, विधवां किसा बणाव॥

हे सखी मनिहारिन! चली जा; फिर इस घर पर आना। पति मरे हुए घर गए हैं (युद्ध से भागकर आना मरण समान है); फिर मुझ जैसी विधवाओं के लिए शृंगार कैसा?

सूर्यमल्ल मिश्रण

कंत लखीजै दोहि कुल, नथी फिरंती छाँह।

मुड़ियां मिलसी गींदवौ, वले धणरी बाँह॥

हे पति! अपने दोनों कुलों पर दृष्टि रखना, कि इस जीवन पर जो ढलती फिरती छाया के समान है। यदि आप युद्ध से पीठ दिखाकर आए तो सिरहाने के लिए तकिया भले ही मिल जाए, प्रियतमा की भुजाएँ तो फिर मिलने की नहीं।

सूर्यमल्ल मिश्रण

पुत्ते जाएँ कवणु गुणु अवगुणु कवणु मुएण।

जा बप्पी की भुंहडी चम्पिज्जइ अवरेण॥

पुत्र के जन्म लेने से क्या लाभ और उसके मरने से क्या हानि यदि पिता की भूमि शत्रु द्वारा दबा ली जाए!

हेमचंद्र

तीहाँ देस विदेस सम, सीहाँ किसा उतन्न।

सीह जिकै वन संचरै, को सीहाँरौ वन्न॥

सिंहों के लिये देश-विदेश बराबर हैं। उनका वतन कैसा? सिंह जिन वनों मे पहुँच जाते हैं वे वन ही उनके अपने स्वदेश हो जाते हैं।

कविराजा बाँकीदास

खग्ग-विसाहिउ जहिँ लहहुँ पिय तहिंदेसहिँ जाहुँ।

रण-दुब्भिक्खें भग्गाइं विणु जुज्झें वलाहुँ॥

हे प्रिय, जहाँ खड्ग का व्यवसाय हो उसी देश में चलें। रण के अभाव में हम क्षीण हो गए हैं, बिना युद्ध के स्वस्थ नहीं रह पाएँगे।

हेमचंद्र

जे खल भग्गा तो सखी, मोताहल सज थाल।

निज भग्गा तो नाह रौ, साथ सुनो टाल॥

हे सखी! यदि शत्रु भाग गए हों तो मोतियों से थाल सजा ला (जिससे प्राणनाथ की आरती उतारूँगी) और यदि अपने ही लोग भाग चले हों तो पति का साथ मत बिछुड़ने दे अर्थात् मेरे शीघ्र सती होने की तैयारी कर।

सूर्यमल्ल मिश्रण
  • संबंधित विषय : सती

चमर हुळे नह सीह सिरै, छत्र धारे सीह।

हांथळ रा बळ सू हुवौ, मृगराज अबीह॥

सिंह के सिर पर चँवर नहीं डुलाये जाते और सिंह कभी मस्तक पर छत्र धारण नहीं करता। वह तो अपने पंजे के बल से ही निर्भय हुआ है।

कविराजा बाँकीदास

रण पाखै दुमनौ रहै, लाज नैण समाय।

पग लंगर पाछा दियण, सौ बानैत कहाय॥

सच्चा धनुर्धर वह कहलाता है जो रण के बिना उद्विग्न रहता है और जिसको युद्ध का अवसर मिलने के कारण निठल्लेपन पर इतनी लज्जा आती है कि उसकी आँखें शर्म के मारे नीची हो जाती है। रणक्षेत्र में पीछे हटने के दृढ़ निश्चय से जो पाँवों में लंगर डाल लेता है, वही सच्चा वीर कहलाता है।

सूर्यमल्ल मिश्रण

दमँगल बिण अपचौ दियण, बीर धणी रौ धान।

जीवण धण बाल्हा जिकां, छोड़ौ जहर समान॥

वीर स्वामी का अन्न युद्ध के बिना नहीं पचा करता। अतः जिन्हें जीवन और स्त्री प्रिय हैं वे उस अन्न को जहर के समान समझकर छोड़ दें।

सूर्यमल्ल मिश्रण

बाघ करें नह कोट बन, बाघ करे नह बाड़।

बाघा रा बघवार सूं, झिले अंगजी झाड़॥

सिंह वन के चारों ओर तो कोट बनाता है और काँटों की दीवार लगाता है। सिंहों के शरीर की गंध ही से छोटे-छोटे वृक्ष उन्नति के शिखर पर पहुँच जाते हैं।

कविराजा बाँकीदास

कापुरसाँ फिट कायराँ, जीवण लालच ज्ययाँह।

अरि देखै आराण मै, तृण मुख माँझळ त्याँह॥

कुपुरुष कायरों को धिक्कार है, जो जीने के लोभ से शत्रु को युद्ध में देखते ही मुँह में तिनका ले लेते हैं।

कविराजा बाँकीदास

सूरातन सूराँ चढ़े, सत सतियाँसम दोय।

आडी धारा ऊतरै, गणे अनळ नू तोय॥

शूरवीरों में वीरत्व चढ़ता है और सतियो में सतीत्व। ये दोनों एक समान है। शूरवीर

तलवार से कटते हैं और सती अग्नि को जल समझती है।

कविराजा बाँकीदास
  • संबंधित विषय : सती

जइ भग्गा पारक्कडा तो सहि मज्झु पिएण।

अह भग्गा अम्हहं तणा तो ते मारिअडेण॥

हे सखी, यदि शत्रु भागे हैं तो मेरे प्रिय (के डर) से, और यदि हमारे लोग भागे हैं तो उनके मारे जाने से।

हेमचंद्र

कायर घर आवण करै, पूछे ग्रह दुज पास।

सरग वास खारौ गिणे, सब दिन प्यारौ सास॥

कायर पुरुष वापस घर आने की सोचता है, वह ब्राह्मण से अपने ग्रह पूछता है। उसे सदैव अपने प्राण प्यारे लगते हैं और स्वर्गवास को वह बुरा समझता है।

कविराजा बाँकीदास

सखी अमीणौ साहिबो, निरभै काळो नाग।

सिर राखे मिण सामभ्रम, रीझैं सिंधू राग॥

हे सखी! मेरा प्रीतम निडर, काला साँप है जो अपने मस्तक पर स्वामिभक्ति-रूपी मणि को धारण करता है और सिंधु राग को सुन कर रीझता है।

कविराजा बाँकीदास

महु कंतहो गुट्ट-ट्टिअहो कउ झुम्पडा वलन्ति।

अह रिउ-रुहिरें उल्हवइ अह अप्पणे भन्ति॥

मेरे कंत के बस्ती में रहते हुए झोपड़े कैसे जलते हैं? या तो वह शत्रु के रक्त से बुझा देता है या अपने रक्त से, इसमें संदेह नहीं है।

हेमचंद्र

कृपण जतन धन रौ करै, कायर जीव जतन्न।

सूर जतन उण रौ करै, जिण रौ खाधौ अन्न॥

कंजूस अपने धन की रक्षा का यत्न करता है और कायर अपने प्राण की रक्षा का। लेकिन शूरवीर उसकी रक्षा का यत्न करता है जिसका अन्न उसने खाया है।

कविराजा बाँकीदास

सखी अमीणौ साहिबो, सूर धीर समरत्थ।

जुध मे वामण डड जिम, हेली बाधै हत्थ॥

हे सखी ! मेरा पति शूरवीर, धीर और समर्थ है। युद्ध में उसके हाथ वामनावतार (विष्णु) के दंड के समान बढ़ते हैं।

कविराजा बाँकीदास

नमसकार सूरां नरां, पूरा सतपुरसाँह।

भाग्थ गज थाटां भिडै, अडै भुजाँ उरसाँह॥

उन पूर्ण वीर सत्पुरुषों को नमस्कार है, जो युद्ध में हाथियों के समूह से जा भिडते हैं और जिनकी भुजाएँ आकाश से जा लगती हैं।

कविराजा बाँकीदास

सुन्दर दोऊ दल जुरै, अरु बाजै सहनाइ।

सूरा कै मुख श्री चढै, काइर दे फिसकाइ॥

सुंदरदास

अरे, फिरत कत, बावरे! भटकत तीरथ भूरि।

अजौं धारत सीस पै सहज सूर-पग-धूरि॥

वियोगी हरि
  • संबंधित विषय : देश

सुन्दर सूर गांसणा, डाकि पडै रण मांहिं।

घाव सहै मुख सांमही, पीठि फिरावै नांहिं॥

सुंदरदास

बसत सदा ता भूमि पै, तीरथ लाख-करोर।

लरत-मरत जहँ बाँकुरे, बिरूझि बीर बरजोर॥

वियोगी हरि
  • संबंधित विषय : देश

सुन्दर बरछी झलहलैं, छूटै बहु दिसि बांण।

सूरा पडै पतंग ज्यौं, जहाँ होइ घंमसांण॥

सुंदरदास

जगी जोति जहँ जूझ की, खगी खंग खुलि झूमि।

रँगा रूधिर सों धूरि, सो धन्य धन्य रण-भूमि॥

वियोगी हरि
  • संबंधित विषय : देश

कै कृपाण की धार कै, अनल-कुंड कौ ठाट।

एही बीर-बधून के, द्वै अन्हान के घाट॥

वियोगी हरि

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