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यौवन पर दोहे

यौवन या जवानी बाल्यावस्था

के बाद की अवस्था है, जिसे जीवनकाल का आरंभिक उत्कर्ष माना जाता है। इसे बल, साहस, उमंग, निर्भीकता के प्रतीक रूप में देखा जाता है। प्रस्तुत चयन में यौवन पर बल रखती काव्य-अभिव्यक्तियों को शामिल किया गया है।

दुरत कुच बिच कंचुकी, चुपरी सारी सेत।

कवि-आँकनु के अरथ लौं, प्रगटि दिखाई देत॥

नायिका ने श्वेत रंग की साड़ी पहन रखी है। श्वेत साड़ी से उसके सभी अंग आवृत्त हैं। उस श्वेत साड़ी के नीचे वक्षस्थल पर उसने इत्र आदि से सुगंधित मटमैले रंग की कंचुकी धारण कर रखी है। इन दोनों वस्त्रों के बीच आवृत्त होने पर भी नायिका के स्तन सूक्ष्म दृष्टि वाले दर्शकों के लिए छिपे हुए नहीं रहते हैं। भाव यह है कि अंकुरित यौवना नायिका के स्तन श्वेत साड़ी में

छिपाए नहीं छिप रहे हैं। वे उसी प्रकार स्पष्ट हो रहे हैं जिस प्रकार किसी कवि के अक्षरों का अर्थ प्रकट होता रहता है। वास्तव में कवि के अक्षरों में अर्थ भी स्थूलत: आवृत्त किंतु सूक्ष्म दृष्टि के लिए प्रकट रहता है।

बिहारी

भई जु छवि तन बसन मिलि, बरनि सकैं सुन बैन।

आँग-ओप आँगी दुरी, आँगी आँग दुरै न॥

नायिका केवल रंग-रूप में सुंदर है अपितु उसके स्तन भी उभार पर हैं। वह चंपकवर्णी पद्मिनी नारी है। उसने अपने रंग के अनुरूप ही हल्के पीले रंग के वस्त्र पहन रखे हैं। परिणामस्वरूप उसके शरीर के रंग में वस्त्रों का रंग ऐसा मिल गया है कि दोनों के बीच कोई अंतर नहीं दिखाई देता है। अर्थात् नायिका के शरीर की शोभा से उसकी अंगिया छिप गई है, किंतु अंगिया के भीतर उरोज नहीं छिप पा रहे हैं। व्यंजना यह है कि नायिका ऐसे वस्त्र पहने हुए है कि उसके स्तनों का सौंदर्य केवल उजागर हो रहा है, अपितु अत्यंत आकर्षक भी प्रतीत हो रहा है।

बिहारी

मतवालो जोबन सदा, तूझ जमाई माय।

पड़िया थण पहली पड़ै, बूढ़ी धण सुहाय॥

हे माता! तुम्हारा दामाद सदा यौवन में मस्त हैं। उन्हें पत्नी का वृद्धत्व नहीं सुहाता। इसलिए पत्नी के स्तन ढीले पड़ने के पहले ही वे अपना देहपात कर डालेंगे। अर्थात्

प्रेम और शौर्य दोनों का एक साथ निर्वाह वीरों का आदर्श रहा है।

सूर्यमल्ल मिश्रण

जटित नीलमनि जगमगति, सींक सुहाई नाँक।

मनौ अली चंपक-कली, बसि रसु लेतु निसाँक॥

नायिका की नाक पर नीलम जड़ी हुई लोंग को देखकर नायक कहता है कि नायिका की सुहावनी नाक पर नीलम जटित सुंदर लोंग जगमगाती हुई इस प्रकार शोभायमान हो रही है मानों चंपा की कली पर बैठा हुआ भौंरा निःशंक होकर रसपान कर रहा हो।

बिहारी

तंत्री नाद, कबित्त रस, सरस राग, रति-रंग।

अनबूड़े बूड़े, तरे जे बूड़े सब अंग॥

वीणा आदि वाद्यों के स्वर, काव्य आदि ललित कलाओं की रसानुभूति तथा प्रेम के रस में जो व्यक्ति सर्वांग डूब गए हैं, वे ही इस संसार-सागर को पार कर सकते हैं। जो इनमें डूब नहीं सके हैं, वे इस भव-सिंधु में ही फँसकर रह जाते हैं अर्थात् संसार-का संतरण नहीं कर पाते हैं। कवि का तात्पर्य यह है कि तंत्री-नाद इत्यादि ऐसे पदार्थ हैं जिनमें बिना पूरण रीति से प्रविष्ट हुए कोई भी आनंद नहीं मिल पाता है। यदि इनमें पड़ना हो तो पूर्णतया पड़ो। यदि पूरी तरह नहीं पड़ सकते हो तो इनसे सर्वथा दूर रहना ही उचित श्रेयस्कर है।

बिहारी

कठिन उठाये सीस इन, उरजन जोबन साथ।

हाथ लगाये सबन को, लगे काहू हाथ॥

रसलीन

लई सुधा सब छीनि विधि, तुव मुख रचिवे काज।

सो अब याही सोच सखि, छीन होत दुजराज॥

बैरीसाल

तेरस दुतिया दुहुन मिलि, एक रूप निज ठानि।

भोर साँझ गहि अरुनई, भए अधर तुब आनि॥

रसलीन

तुव पग तल मृदुता चितैं, कवि बरनत सकुचाहिं।

मन में आवत जीभ लों, मत छाले पर जाहिं॥

रसलीन

दाग सीतला को नहीं, मृदुल कपोलन चारु।

चिह्न देखियत ईठ की, परी दीठ के भारु॥

रसलीन

दमकति दरपन-दरप दरि, दीपसिखा-दुति देह।

वह दृढ़ इकदिसि दिपत, यह मृदु दिसनिस-नेह॥

दुलारेलाल भार्गव

अंग-अंग-नग जगमगत दीप-सिखा सी देह।

दिया बढाऐं हूँ रहै बड़ौ उज्यारौ गेह॥

दूती नायक से कह रही है कि देखो, नायिका की देह आभूषणों में जड़े हुए नगों से दीप-शिखा के समान दीपित हो रही है। घर में यदि दीपक बुझा दिया जाता है तब भी उस नायिका के रूप के प्रभाव से चारों ओर प्रकाश बना रहता है। दूती ने यहाँ नायिका के वर्ण-सौंदर्य के साथ-साथ उसके व्यक्तित्व में उदित होने वाली शोभा, दीप्ति और कांति आदि की अतिशयता को भी व्यक्त कर दिया है।

बिहारी

हौं रीझी, लखि रीझिहौ, छबिहिं छबीले लाल।

सोनजूही सी ह्वोति दुति, मिलत मालती माल॥

सखी नायक से कहती है कि हे नायक, मैं नायिका के अनिर्वचनीय सौंदर्य को देखकर मुग्ध हो गई हूँ। हे छैल छबीले रसिया ! उस नायिका का वर्ण इतना लावण्यमय और चंपक पुष्प के समान स्वर्णिम है कि उसके गले में पड़ी हुई मालती पुष्पों की सफेद माला सोनजुही के पुष्पों वाली पीतवर्णा लगने लगी है। अभिप्राय यह है कि नायिका चंपक वर्णी पद्मिनी है, उसके गले में मालती की माला है, उसका पीताभ वर्ण ऐसी स्वर्णिम आभा लिए हुए है कि श्वेत मालती पुष्पों की माला भी सोनजुही जैसे सुनहरे फूलों की माला के रूप में आभासित हो रही है।

बिहारी

सोनजुही सी जगमगति, अँग-अँग जोबन-जोति।

सु-रंग, कसूँभी कंचुकी, दुरँग देह-दुति होति॥

नायिका के अंग-अंग में यौवन की झलक पीली जुही के समान जगमगा रही है। वास्तव में यौवन की ज्योति सोनजुही ही है। अत: कुसुंभ के रंग से रँगी हुई उसकी लाल चुनरी उसके शरीर की पीत आभा से दुरंगी हो जाती है। भाव यह है कि लाल और पीत मिश्रित आभा ही दिखाई दे रही है।

बिहारी

नई तरुनई नित नई, चिलक चिकनई चोप।

नज़र नई नैनन नई, नई-नई अंग ओप॥

विक्रम

गदराने तन गोरटी, ऐपन-आड़ लिलार।

हूठ्यौ दै, इठलाइ दृग करै गँवारि सुवार॥

ग्रामीण नायिका की अदा पर रीझकर नायक कह रहा है कि यह गदराए हुए शरीर वाली गोरी ग्रामीणा अपने ललाट पर ऐपन का आड़ा तिलक लगाए हुए, कमर पर हाथ रखे हुए इठला-इठला कर अपनी आँखों से घायल किए दे रही है। अभिप्राय यह है कि नायिका यद्यपि ग्रामीण है, फिर भी वह अपने कटाक्षों और हाव-भाव आदि के द्वारा नायक को आकृष्ट कर रही है।

बिहारी

लाल, अलौकिक लरिकई, लखि-लखि सखी सिहाँति।

आज-काल्हि में देखियतु, उर उकसौंही भाँति॥

कोई सखी कह रही है कि हे लाल, उसके अल्हड़ बालपन को मैं यौवन में परिणत होते देख रही हूँ। उसे देख-देखकर केवल मैं, बल्कि सखियाँ भी प्रसन्नता और आनंद का अनुभव कर रही हैं। तुम देख लेना आजकल में ही उसका वक्षस्थल थोड़े और उभार पर आकर दिखलाई पड़ने लगेगा, अर्थात् सबको आकर्षित करने लगेगा।

बिहारी

देह दुलहिया की बढ़े, ज्यौं-ज्यौं जोबन-जोति।

त्यौं-त्यौं लखि सौत्यैं सबैं, बदन मलिन दुति होति॥

उस नव-दुलहनिया के शरीर में जैसे-जैसे यौवन की कांति बढ़ती जाती है वैसे-वैसे ही उसे देखकर उसकी सौतों के शरीर की कांति मलिन पड़ती जाती है। भावार्थ यह है कि वह नवायौवना अपने सौंदर्य के बढ़ते रहने के कारण सपत्नियों के मन और तन को मलिन करती जा रही है क्योंकि उसके बढ़ते सौंदर्य पर रीझ कर नायक अन्य सपत्नियों को भूल जाएगा।

बिहारी

जमला जोबन फूल है, फूलत ही कुमलाय।

जाण बटाऊ पंथसरि, वैसे ही उठ जाय॥

यौवन एक फूल है जो कि फूलने के बाद शीघ्र ही कुम्हला जाता है। वह तो पथिक-सा है जो मार्ग में तनिक-सा विश्राम लेकर,अपनी राह लेता है।

जमाल

तरवर पत्त निपत्त भयो, फिर पतयो ततकाल।

जोबन पत्त निपत्त भयो, फिर पतयौ जमाल॥

पतझड़ में पेड़ पत्तों से रहित हुआ पर तुरंत ही फिर पल्लवित हो गया। पर यौवन-रूपी तरुवर पत्तों से रहित होकर फिर लावण्य युक्त नहीं हुआ।

जमाल

बेधक अनियारे नयन, बेधत करि निषेधु।

बरबस बेधतु मो हियौ, तो नासा को बेधु॥

नायक कह रहा है कि हे प्रिय नायिका, तुम्हारे नुकीले नेत्र बेधक हैं अर्थात् भीतर तक घायल कर देते हैं। जो नेत्र नुकीले होते हैं, वे देखने वाले के हृदय में गहरा घाव करते हैं। अत: यदि वे घायल करते हैं या कर रहे हैं तो स्वाभाविक है। यहाँ कोई अनौचित्य नहीं है। आश्चर्य तो यह है कि नायिका के छिद्र-छेद ने नायक के हृदय को बलात् घायल कर दिया है।

बिहारी

कहि लहि कौनु सकै, दुरी सौनजाइ मैं जाइ।

तन की सहज सुबास बन, देती जौ बताइ॥

गौरवर्णा नायिका तीव्र गति से दौड़ती हुई पीली चमेली की झाड़ों में घुस गई है। उसकी उस क्रिया को देखकर नायक उसकी सखी से कह रहा है कि तुम्हीं बताओ कि पीली चमेली में छिपी हुई उस नायिका को कौन पा सकता था यदि उसके शरीर की स्वाभाविक सुगंधि उस जंगल में उसका पता बता देती। अभिप्राय यह है कि नायिका इतनी पीतवर्णा है कि पीली चमेली के बीच उसकी उपस्थिति का पता ही नहीं चलता है।

बिहारी

सघन कुंज, घन घन–तिमिरु, अधिक अँधेरी राति।

तऊ दुरिहै, स्याम वह, दीपसिखा सी जाति॥

कुंज सघन है, बादलो का अंधकार घना है, तथा रात भी अँधेरी है; तथापि हे श्याम! वह दीपशिखा-सी नायिका छिपेगी नहीं (क्योंकि, अँधेरे में दिया नहीं छिपता)।

बिहारी

गोरे उरजन स्यामता, दृगन लगत यह रूप।

मानो कंचन घट धरे, मरकत कलस अनूप॥

रसलीन

त्रिबली, नाभि दिखाइ कर, सिर ढकि, सकुचि समाहि।

गली, अली की ओट कै, चली भली बिधि चाहि॥

नायक अपने सखा से कहता है कि नायिका अपने उदर की तीन रेखाएँ एवं नाभि दिखलाकर संकोच करती हुई अपने हाथ से अपना सिर ढंककर और फिर उसे सामने करके, अपनी सखी की ओट करके मुझे अच्छी तरह देखती हुई गली में चली गई।अभिप्राय यह है कि नायिका ने अपनी त्रिबली और नाभि दिखलाई, कुछ श्रृंगारिक चेष्टाएँ की-जैसे आँचल से सिर ढका, फिर नायक के समक्ष आई और अपनी सखी की ओट में छिपकर नायक को देखकर मुस्कराती हुई चली गई। ये सभी चेष्टाएँ श्रृंगारिक थीं और इन्हीं चेष्टाओं ने नायक के हृदय को प्रेम और पीड़ा से भर दिया है।

बिहारी
  • संबंधित विषय : देह

लौनैं मुहँ दीठि लगै, यौं कहि दीनौ ईठि।

दूनी है लागन लगी, दियैं दिठौना दीठि॥

हे सखी, तुम्हारे सुंदर मुख को नज़र लगने से बचाने के लिए तुम्हारे मस्तक पर डिठौना लगा दिया था, किंतु परिणाम फिर भी कुछ और ही निकला। डिठौना लगाने से तो तुम्हारे मुख की शोभा और भी बढ़ गई तथा दृष्टि पहले की अपेक्षा और अधिक जमने लगी। भाव यह है कि नायिका के सुंदर मुख को नज़र से बचाने के लिए उस पर काली टीकी लगाई गई थी। लोक विश्वास यही है कि सुंदर वस्तु में यदि थोड़ी कुरूपता ला दी जाए तो फिर नज़र लगने का भय नहीं रहता है, किंतु यहाँ तो स्थिति और भी विषम हो गई। डिठौना सौंदर्य का अपकर्ष करने की अपेक्षा उत्कर्ष करने लगा।

बिहारी

कौंहर सी एडिनु की, लाली देखि सुभाइ।

पाइ महावरु देइ को, आपु भई बे-पाइ॥

नाइन जब नायिका के पैरों में महावर लगाने आई तो वह उसकी एड़ी की इंद्रायण जैसी सहज लालिमा देखकर इतना अधिक मुग्ध हो गई कि उसे अपना ही होश नहीं रहा। परिणामस्वरूप वह नायिका की एड़ी पर महावर लगाना ही भूल गई।

बिहारी

केसरि कै सरि क्यौं सकै, चंपकु कितकु अनूपु।

गात-रूप लखि जातु दुरि, जातरूप कौ रूपु॥

नायिका के रंग की समानता केसर कैसे कर सकती है? उसके सामने प्रसिद्ध उपमान चंपक कितना सुंदर लग पाता है? जहाँ तक स्वर्ण का संबंध है, उसका रूप तो नायिका के शारीरिक सौंदर्य को देखकर छिप ही जाता है।

बिहारी

पहिरैं भूषन होत है, सब के तन छबि लाल।

तुव तन कंचन तै सरस, जोति होत जमाल॥

आभूषण पहनने से सबके शरीर पर सौंदर्य छा जाता है, पर तेरे तन का रंग तो सुवर्ण से भी अधिक आभायुक्त है। इस हेतु आभूषणों से तेरे शरीर पर कोई दीप्ति नहीं आती।

जमाल

जमला जोबन फूल है, फूलत ही कुमलाय।

जाण बटाऊ पंथसरि, वैसे ही उठ जाय॥

यौवन एक फूल है जो कि फूलने के बाद शीघ्र ही कुम्हला जाता है। वह तो पथिक-सा है जो मार्ग में तनिक-सा विश्राम लेकर अपनी राह लेता है।

जमाल

जब तरणापो मुझ्झ थो, पाय परत नित लाल।

कर ग्रह सीस नवावती, जोबन गरब जमाल॥

जब मैं तरुणी थी, तब यौवनमद के कारण मैं प्रियतम को बलपूर्वक नवाती थी और वे नित्य मेरे पाँव पड़ते थे।

जमाल

वाहि लखैं लोइन लगै, कौन जुवति की जोति।

जाकैं तन की छाँह-ढिग, जोन्ह छाँह सी होति॥

नायक अपने मित्र से कहता है कि जिसके शरीर की छाया के आगे चंद्रमा की ज्योत्स्ना फीकी लगती है, विस्मृत करने का कोई प्रश्न नहीं है। वास्तविकता यह है कि उसके रूप-सौंदर्य को देखने के बाद किसी दूसरी नायिका का सौंदर्य आँखों में समाता ही नहीं है।

बिहारी

तन सुवरन के कसत यों, लसत पूतरी श्याम।

मनौ नगीना फटिक मैं, जरी कसौटी काम॥

रसलीन

निरखि निरखि वा कुचन गति, चकित होत को नाहिं।

नारी उर तें निकरि कै, पैठत नर उर माहिं॥

रसलीन

कछु जोबन आभास तें, बढ़ी बधू दुति अंग।

ईंगुर छीर परात में, परत होत जो रंग॥

कृपाराम

बारन निकट ललाट यों, सोहत टीका साथ।

राहु गहत मनु चंद पै, राख्यो सुरपति हाथ॥

रसलीन

फूलत कहा सरोज! तू, निज छबि अतुलित जान।

मम प्यारी मुख-कंज लखि, मिटि जैहै अभिमान॥

मोहन

यौं भुजबंद की छवि लसी, झवियन फूंदन घौर।

मानो झूमत हैं छके, अमी कमल तर भौंर॥

रसलीन

अरुन दशन तुब वदन लहि, को नहिं करै प्रकास।

मंगल सुत आये पढ़न, विद्या बानी पास॥

रसलीन

गई रात, साथी चले, भई दीप-दुति मंद।

जोबन-मदिरा पी चुक्यौ, अजहुँ चेति मति-मंद॥

दुलारेलाल भार्गव

लसति रोमावलि कुचन बिच, नीले पट की छाँह।

जनु सरिता जुग चंद्र बिच, निश अंधियारी माँह॥

बैरीसाल

विधु सम तुव मुख लखि भई, पहिचानन की संग।

विधि याही ते जनु कियो, सखि मयंक में पंग॥

बैरीसाल

सूछम कटि वा बाल की, कहौं कवन परकार।

जाके ओर चितौत हीं, परत दृगन में बार॥

रसलीन

सुधा लहर तुव बाँह के, कैसे होत समान।

वा चखि पैयत प्रान को, या लखि पैयत प्रान॥

रसलीन

मुख छवि निरखि चकोर अरु, तन पानिप लखि मीन।

पद-पंकज देखत भँवर, होत नयन रसलीन॥

रसलीन

यह सोभा त्रबलीन की, ऐसी परत निहारि।

कटि नापत विधि की मनौ, गड़ी आँगुरी चारि॥

बैरीसाल

गति गयंद केहरी कटि, मंद हँसनि मुख इंदु।

नयन उभय सोभित भये, द्वै दल मनु अरविंदु

मोहन

तन तैं निकसि गई नई, सिसुता सिसिर समाज।

अंग-अंग प्रति जगमग्यौ, नव जोबन रितुराज॥

विक्रम

झूलत जोर हिंडोर जब, चढ़ि अंबर-बिच जायँ।

तड़ित-मुदिर-महँ मिलि रहे, लली-लाल लखायँ॥

मोहन

खिझवति हँसति लजाति पुनि, चितवति चमकति हाल।

सिसुता जोबन की ललक, भरे बधूतन ख्याल॥

कृपाराम

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