शृंगार पर दोहे
सामान्यतः वस्त्राभूषण
आदि से रूप को सुशोभित करने की क्रिया या भाव को शृंगार कहा जाता है। शृंगार एक प्रधान रस भी है जिसकी गणना साहित्य के नौ रसों में से एक के रूप में की जाती है। शृंगार भक्ति का एक भाव भी है, जहाँ भक्त स्वयं को पत्नी और इष्टदेव को पति के रूप में देखता है। इस चयन में शृंगार विषयक कविताओं का संकलन किया गया है।
दुरत न कुच बिच कंचुकी, चुपरी सारी सेत।
कवि-आँकनु के अरथ लौं, प्रगटि दिखाई देत॥
नायिका ने श्वेत रंग की साड़ी पहन रखी है। श्वेत साड़ी से उसके सभी अंग आवृत्त हैं। उस श्वेत साड़ी के नीचे वक्षस्थल पर उसने इत्र आदि से सुगंधित मटमैले रंग की कंचुकी धारण कर रखी है। इन दोनों वस्त्रों के बीच आवृत्त होने पर भी नायिका के स्तन सूक्ष्म दृष्टि वाले दर्शकों के लिए छिपे हुए नहीं रहते हैं। भाव यह है कि अंकुरित यौवना नायिका के स्तन श्वेत साड़ी में
छिपाए नहीं छिप रहे हैं। वे उसी प्रकार स्पष्ट हो रहे हैं जिस प्रकार किसी कवि के अक्षरों का अर्थ प्रकट होता रहता है। वास्तव में कवि के अक्षरों में अर्थ भी स्थूलत: आवृत्त किंतु सूक्ष्म दृष्टि के लिए प्रकट रहता है।
तो पर वारौं उरबसी, सुनि, राधिके सुजान।
तू मोहन कैं उर बसी, है उरबसी-समान॥
हे सुजान राधिके, तुम यह समझ लो कि मैं तुम्हारे रूप-सौंदर्य पर उर्वशी जैसी नारी को भी न्यौछावर कर सकता हूँ। कारण यह है कि तुम तो मेरे हृदय में उसी प्रकार निवास करती हो, जिस प्रकार उर्वशी नामक आभूषण हृदय में निवास करता है।
भई जु छवि तन बसन मिलि, बरनि सकैं सुन बैन।
आँग-ओप आँगी दुरी, आँगी आँग दुरै न॥
नायिका न केवल रंग-रूप में सुंदर है अपितु उसके स्तन भी उभार पर हैं। वह चंपकवर्णी पद्मिनी नारी है। उसने अपने रंग के अनुरूप ही हल्के पीले रंग के वस्त्र पहन रखे हैं। परिणामस्वरूप उसके शरीर के रंग में वस्त्रों का रंग ऐसा मिल गया है कि दोनों के बीच कोई अंतर नहीं दिखाई देता है। अर्थात् नायिका के शरीर की शोभा से उसकी अंगिया छिप गई है, किंतु अंगिया के भीतर उरोज नहीं छिप पा रहे हैं। व्यंजना यह है कि नायिका ऐसे वस्त्र पहने हुए है कि उसके स्तनों का सौंदर्य न केवल उजागर हो रहा है, अपितु अत्यंत आकर्षक भी प्रतीत हो रहा है।
जटित नीलमनि जगमगति, सींक सुहाई नाँक।
मनौ अली चंपक-कली, बसि रसु लेतु निसाँक॥
नायिका की नाक पर नीलम जड़ी हुई लोंग को देखकर नायक कहता है कि नायिका की सुहावनी नाक पर नीलम जटित सुंदर लोंग जगमगाती हुई इस प्रकार शोभायमान हो रही है मानों चंपा की कली पर बैठा हुआ भौंरा निःशंक होकर रसपान कर रहा हो।
सायक-सम मायक नयन, रँगे त्रिबिध रंग गात।
झखौ बिलखि दुरि जात जल, लखि जलजात लजात॥
कवि कह रहा है कि नायिका की आँखें ऐसी हैं कि मछलियाँ भी उन्हें देखकर पानी में छिप जाती हैं, कमल लजा जाते हैं। नायिका के मादक और जादुई नेत्रों के प्रभाव से कमल और मछलियाँ लज्जित हो जाती हैं। कारण, नायिका के नेत्र संध्या के समान हैं और तीन रंगों—श्वेत, श्याम और रतनार से रँगे हुए हैं। यही कारण है कि उन्हें देखकर मछली दु:खी होकर पानी में छिप जाती है और कमल लज्जित होकर अपनी पंखुड़ियों को समेट लेता है। सांध्यवेला में श्वेत, श्याम और लाल तीनों रंग होते हैं और नायिका के नेत्रों में भी ये तीनों ही रंग हैं। निराशा के कारण वे श्याम हैं, प्रतीक्षा के कारण पीले या श्वेत हैं और मिलनातुरता के कारण लाल या अनुरागयुक्त हो रहे हैं।
हा हा! बदनु उघारि, दृग सफल करैं सबु कोइ।
रोज सरोजनु कैं परै, हँसी ससी की होइ॥
सखी कहती है कि हे प्रिय सखी! हमारे नेत्र कितनी देर से व्याकुल हैं। मैं हा-हा खा रही हूँ कि तू अपने मुख से घूँघट हटा ले ताकि हमारी व्याकुलता शांत हो और तेरे सुंदर मुख के दर्शन हों। जब तू अपने मुख को अनावृत्त कर लेगी, तो अपनी पराजय में कमल साश्रु हो जाएँगे और मुख के ढके रहने पर इठलाने वाला यह चंद्रमा पूर्णतः उपहास का पात्र बन जाएगा।
तरिवन-कनकु कपोल-दुति, बिच बीच हीं बिकान।
लाल लाल चमकति चुनीं, चौका-चिह्न-समान॥
एक सखी नायिका से कह रही है कि तेरे तरौने अर्थात् कर्णाभूषण का सोना तो तेरे कपोलों की कांति में विलीन हो गया है, किंतु उसमें लगी हुई लाल-लाल चुन्नियाँ अर्थात् माणिक्य दाँतों के चिह्न के समान चमक रही है। वास्तव में नायिका के कपोलों का वर्ण सुनहरा है। अतः सोने का बना हुआ ताटंक गालों की सुनहली कांति में खो जाता है। हाँ, ताटंक में लगी हुई लाल-लाल चुन्नियाँ अवश्य दिखाई पड़ती हैं। वे ऐसी लगती हैं, मानो नायिका के कपोलों में नायक द्वारा लगाए गए दाँतों के चिह्न हों।
नील वसन दरसत दुरत, गोरी गोरे गात।
मनौ घटा छन रुचि छटा, घन उघरत छपि जात॥
हौं रीझी, लखि रीझिहौ, छबिहिं छबीले लाल।
सोनजूही सी ह्वोति दुति, मिलत मालती माल॥
सखी नायक से कहती है कि हे नायक, मैं नायिका के अनिर्वचनीय सौंदर्य को देखकर मुग्ध हो गई हूँ। हे छैल छबीले रसिया ! उस नायिका का वर्ण इतना लावण्यमय और चंपक पुष्प के समान स्वर्णिम है कि उसके गले में पड़ी हुई मालती पुष्पों की सफेद माला सोनजुही के पुष्पों वाली पीतवर्णा लगने लगी है। अभिप्राय यह है कि नायिका चंपक वर्णी पद्मिनी है, उसके गले में मालती की माला है, उसका पीताभ वर्ण ऐसी स्वर्णिम आभा लिए हुए है कि श्वेत मालती पुष्पों की माला भी सोनजुही जैसे सुनहरे फूलों की माला के रूप में आभासित हो रही है।
मुकुत-हार हरि कै हियैं, मरकत मनिमय होत।
पुनि पावत रुचि राधिका, मुख मुसक्यानि उदोत॥
श्रीकृष्ण के हृदय पर पड़ा हुआ सफ़ेद मोतियों का हार भी उनके शरीर की श्याम कांति से मरकत मणि-नीलम-के हार के समान दिखाई देता है। किंतु राधा के मुख की मुस्कराहट की श्वेत-कांति से नीलम का-सा बना हुआ वह मोतियों का हार फिर श्वेत-वर्ण कांति वाला बन जाता है।
सोनजुही सी जगमगति, अँग-अँग जोबन-जोति।
सु-रंग, कसूँभी कंचुकी, दुरँग देह-दुति होति॥
नायिका के अंग-अंग में यौवन की झलक पीली जुही के समान जगमगा रही है। वास्तव में यौवन की ज्योति सोनजुही ही है। अत: कुसुंभ के रंग से रँगी हुई उसकी लाल चुनरी उसके शरीर की पीत आभा से दुरंगी हो जाती है। भाव यह है कि लाल और पीत मिश्रित आभा ही दिखाई दे रही है।
लाल, अलौकिक लरिकई, लखि-लखि सखी सिहाँति।
आज-काल्हि में देखियतु, उर उकसौंही भाँति॥
कोई सखी कह रही है कि हे लाल, उसके अल्हड़ बालपन को मैं यौवन में परिणत होते देख रही हूँ। उसे देख-देखकर न केवल मैं, बल्कि सखियाँ भी प्रसन्नता और आनंद का अनुभव कर रही हैं। तुम देख लेना आजकल में ही उसका वक्षस्थल थोड़े और उभार पर आकर दिखलाई पड़ने लगेगा, अर्थात् सबको आकर्षित करने लगेगा।
देह दुलहिया की बढ़े, ज्यौं-ज्यौं जोबन-जोति।
त्यौं-त्यौं लखि सौत्यैं सबैं, बदन मलिन दुति होति॥
उस नव-दुलहनिया के शरीर में जैसे-जैसे यौवन की कांति बढ़ती जाती है वैसे-वैसे ही उसे देखकर उसकी सौतों के शरीर की कांति मलिन पड़ती जाती है। भावार्थ यह है कि वह नवायौवना अपने सौंदर्य के बढ़ते रहने के कारण सपत्नियों के मन और तन को मलिन करती जा रही है क्योंकि उसके बढ़ते सौंदर्य पर रीझ कर नायक अन्य सपत्नियों को भूल जाएगा।
जुरे दुहुनु के दृग झमकि, रुके न झीनैं चीर।
हलुकी फौज हरौल ज्यौं, परै गोल पर भीर॥
नायिका अपने परिवार के बीच बैठी हुई है। ठीक उसी समय नायक वहाँ आ जाता है। लज्जावश वह तुरंत घूँघट निकाल लेती है, किंतु काम भावना के अतिरेक के कारण वह नायक को देखना भी चाहती है और देखती भी है, इसी स्थिति का वर्णन करते हुए कवि कह है कि नायिका के नेत्र झमक कर नायक के नेत्रों से टकरा गए हैं जो नायिका के झीने घूँघट से स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। यह टकराना वैसे ही है जिस प्रकार आक्रमणकारी फौज द्वारा हरावल (सेना का अग्रभाग) फौज पर आक्रमण किए जाने पर उस पक्ष की फौज भी विपक्षी की फौज से टक्कर लेने लगती है। कहने का तात्पर्य यह है कि नायक-नायिका नेत्रों की सांकेतिक भाषा में प्रेम युद्ध करने लगे हैं।
सालति है नटसाल सी, क्यौं हूँ निकसित नाँहि।
मनमथ-नेजा-नोक सी, खुभी-खुभी जिय माँहि॥
नायक ने जब से नायिका को 'खुभी' नामक आभूषण पहने हुए देखा है तब से उसके प्रति उसकी काम भावना बढ़ गई है और यह भावना उसके हृदय को पीड़ित करती रहती है। नायिका के कान में शोभित 'खुभी' नायक के हृदय में गड़कर कामदेव के भाले की नोक की तरह उसे पीड़ा दे रही है। संकेत यह है कि कर्णाभूषण नायक के हृदय में चुभ रहा है और यही चुभन नायक की कामजनित वेदना को उत्तरोत्तर बढ़ाती जा रही है।
सहज संवारत सरस छब, अलि सो का सुच होत।
सुनि सुख तो लखि लाल मो, मुद मोहन चित पोत॥
हे सखि! तू अत्यंत सुंदर होने पर भी बारंबार शृंगार करती है। ऐसा करने में तुझे क्या सुख मिलता है? (उत्तर में नायिका कहती है) सुन! सुख तो मुझे लाल को देखकर होता है क्योंकि (शृंगार करने पर) वे मुदित होकर मुझे निहारते हैं।
लोभ-लगे हरि-रूप के, करी साँटि जुरि, जाइ।
हौं इन बेची बीच हीं, लोइन बड़ी बलाइ॥
नायिका सखी से कहती है कि हे सखी, मेरे ये नेत्र एक दलदल की तरह हैं और इन्होंने मुझे बड़ी मुसीबत में डाल दिया है। मेरे ये नेत्र रूपी दलाल प्रियतम कृष्ण के सौंदर्य रूपी रुपए के लोभ में पड़कर उनसे साँठ-गाँठ कर बैठे हैं। इस प्रकार इन्होंने मुझे बीच में सौदा करके प्रिय को सौंप दिया है।
जसु अपजसु देखत नहीं, देखत साँवल-गात।
कहा करौं, लालच-भरे, चपल नैन चलि जात॥
यहाँ नायिका अपने विवश प्रेम के विषय में सखी से कह रही है कि हे सखी, मेरे ये चंचल नेत्र यश-अपयश, किसी की प्रशंसा अथवा निंदा की चिंता नहीं करते। वह यह नहीं देखते कि ऐसा करने से मेरी प्रशंसा होगी कि निंदा होगी। ये बस श्याम-शरीर (श्रीकृष्ण) को ही देखते हैं अर्थात् उनको देखने के पश्चात् यश-अपयश की बात भूल जाते हैं। मैं इनका क्या करूँ, ये लालच में भरे हुए श्याम-शरीर को देखने के मोह में चंचल होकर उधर ही चले जाते हैं।
तोरस, राँच्यौ आन-बस, कहौ कुटिल-मति, कूर।
जीभ निबौरी क्यौं लगै, बौरी चाखि अँगूर॥
सखी कहती है कि तेरे प्रेम में अनुरक्त खोटे और निर्दय लोग भले ही दूसरी नायिका के वश में हुआ करें किंतु, अरी बावली! मैं ऐसा नहीं मानती हूँ। ऐसा तो कुटिल बुद्धि वाले ही कह सकते हैं। कारण यह है कि अंगूर चखने के पश्चात् किसी व्यक्ति की जिह्वा को निबौरी कैसे अच्छी लग सकती है?
नैना नैंक न मानहीं, कितौ कह्यौ समुझाइ।
तनु मनु हार हूँ हँसैं, तिन सौं कहा बसाइ॥
हे सखी, मैं अपने इन नेत्रों को चाहे कितना ही समझाऊँ, किंतु ये मेरी थोड़ी-सी भी बात नहीं मानते हैं। ये ऐसे चपल हैं जो तन-मन हार जाने पर भी हँसते रहते हैं। ऐसे नेत्रों पर क्या वश चल सकता है? नायिका के इस कथन का व्यंग्यार्थ यह है कि उसके नेत्र इतने चंचल और रूपासक्त हैं कि नायिका उन्हें वश में करने के लिए लाख प्रयत्न करती है, किंतु वे चंचलतावश अपनी सारी मर्यादा तोड़कर प्रिय को देखकर मुस्करा देते हैं।
पिय तिय सौं हँसि कै कह्यौ, लखैं दिठौना दीन।
चंदमुखी, मुखचंदु तैं, भलौ चंद-समु कीन॥
नायक ने नायिका के मुख पर दिठौना लगा हुआ देखा तो आकर्षण के इन तीव्रतम क्षणों में उसने कहा कि हे चंद्रमुखी, दिठौना लगने से तो तेरा सौंदर्य और बढ़ गया है। अब मुख वास्तविक चंद्रमा के समान हो गया है। भाव यह है कि दिठौना तो इसलिए लगाया गया था कि उसके सौंदर्य को नज़र न लगे, पर उसके लगने से नायिका का सौंदर्य कई गुना बढ़ गया।
चिलक, चिकनई, चटक सौं, लफति सटक लौं आइ।
नारि सलोनी साँवरी, नागिनि लौं डसि जाइ॥
नायक कहीं बैठा हुआ है। अचानक उसके सामने से गौरवर्ण वाली और छरहरी देह वाली नायिका बड़ी तेज़ी से निकल जाती है, उसके निकलने की प्रक्रिया और गति का वर्णन करता हुआ कवि कहता है कि वह नायिका इतनी चमकदार, स्निग्ध और चटकीली है कि क्षणभर में नायक को देखकर पतली छड़ी की तरह लपक कर रह जाती है। नायक बेचारा उसको देखकर ऐसा मूर्छित-सा हो गया है मानो किसी नागिन ने उसे डस लिया हो।
सिया अलिनि की को कहै, सुख सुहाग अनुराग।
विधि हरिहर लखि थकि रहे, जानि छोट निज भाग॥
खंजन लोचन कंज मुख, नित खंडन पर पीर।
अरि गंजन भंजन धनुष, भव रंजन रघुवीर॥
राज रूप रसपान सुख, समुझत हें मों नैन।
पें न बेंन हें नेन कों, नेन नहीं हैं बेंन॥
हे राज! आपकी रूप-माधुरी के रसपान का आनंद मेरे नेत्र अनुभव करते हैं पर (उसका बखान नहीं कर सकते क्योंकि) नेत्रों के वाणी नहीं है और वाणी के नेत्र नहीं हैं।
प्रतिबिंबित जयसाहि-दुति, दीपति दरपन-धाम।
सबु जगु जीतन कौं कर्यौ, काय-ब्यूहु मनु काम॥
बिहारी कह रहे हैं कि राजा जयसिंह की शरीर-द्युति दर्पण-धाम में प्रतिबिंबित होकर इस प्रकार दीपित हो रही है मानों सारे संसार को जीतने के लिए कामदेव ने अनंत रूप धारण करके काय-व्यूह का निर्माण किया हो।
श्रुति कुंडल भल दशन दुति, अरुण अधर छवि ऐन।
हित सौ हँसि बोलहि पिय, हिय हरने मृदु बैन॥
एक-एक आभा भरन, भुवन आभरन अंक।
चारेक दृग दरशन, महाराज होत नर रंक॥
कुसुमित भूषण नगन युत, भुज वल्लरी सुवास।
लालन बीच तमाल के, कंध पर कियो निवास॥
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सिय तेरे गोरे गरे, पोति जोति छवि झाय।
मनहुँ रँगीले लाल की, भुजा रही लपटाय॥
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बारन निकट ललाट यों, सोहत टीका साथ।
राहु गहत मनु चंद पै, राख्यो सुरपति हाथ॥
रघुवर मन रंजन निपुण, गंजन मद रस मैन।
कंजन पर खंजन किधौं, अंजन अंजित नैन॥
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ललित कसन कटि वसन की, ललित तलटकनी चाल।
ललित धनुष करसर धरनि, ललिताई निधिलाल॥
एक चित्त कोउ एक बय, एक नैह इक प्राण।
एक रूप इक वेश ह्वै, क्रीड़त कुँवर सुजान॥
जंघ युगल तव जनक जे, अकि ग्रह उत्सव रंभ।
पिया प्रेम कै भवन कै, किधौ सुंदर बरखंभ॥
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कुसुम क्रीट कवरी गुही, रंग कुम-कुम मुख कंज।
अंजन अंजित युगल दृग, नासा बेसरि मंजु॥
नाभि गंभीर कि भ्रमर यह, नेह निरजगा माहिं।
ता महँ पिय मन मगन ह्वै, नेकहु निकर्यौ नाहिं॥
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है अलि सुंदरि उरज युग, रहे तव उरजु प्रकाश।
नवल नेह के फंद द्वै, अतिपिय सुख की रासि॥
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लस्यो श्याम तव तन कस्यो, कंचुकि बसन बनाय।
राखे हैं मनो प्राण पति, हिये लगाय दुराय॥
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हरि तिय देखे ही बने, अचिरिजु अंग गुन गेह।
कटि कहिबे की जानिये, ज्यों गनिका को नेह॥
कुँवरि छबीली अमित छवि, छिन-छिन औरै और।
रहि गये चितवत चित्र से, परम रसिक शिरमौर॥
गुरु नितंब कटि सिंह मिलि, पट गौतमी प्रवाह।
किंकिण मुनि गण अमर निज, मन अन्हवावत नाह॥
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सखी पद्म गंगा सुभग, भूषन सेवत अंग।
सदा विभूषित आप तन, जुगुल माधुरी रंग॥
नील पीत नव बसन छवि, हिलि मिलि भय यक रंग।
हरे हरे अली कहत हैं, यह धरि सिय पिय अंग॥
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रीझि चितै चित चकित ह्वै, रूप जलधि-सी बाल।
वारत लाल तमाल दुति, अंक माल दै माल॥
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सुबरन! जो सुबरन चहत, सम प्यारी के अंग।
तपहिं तपे बिन पाइहौ, किमि वह सुंदर रंग॥
सब अपने भूषण बसन, अपने ही कर लाल।
लाड़िलि अंग बनाइ छवि, निरखहिं नैन बिसाल॥
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वारि अपन पौ दृगन तैं, डरि अलि कछू कहून।
रहत उतारत हीय महिं, पियहू राई लून॥
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तो वक जावक रंग छवि, निरखति अलि अनुराग।
मनु मन भावन प्रेम रस, पावत पायन लाग॥
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सिय तव रूप अपार पिय, पियत न नैन अघाय।
भये चहत सुर राज से, सियरै अति अकुलाय॥
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