सीता पर दोहे
सीता राम-कथा की नायिका
और अराध्य देवी के रूप में भारतीय संस्कृति से अभिन्न रही हैं। भारतीय स्त्री-विमर्श में उनका प्रादुर्भाव एक उदाहरण के रूप में हुआ है, जहाँ समाज की पितृसत्तात्मकता को प्रश्नगत किया गया है। प्रस्तुत चयन में सीता और सीता के बहाने संवाद करती कविताओं को शामिल किया गया है।
सीता लखन समेत प्रभु, सोहत तुलसीदास।
हरषत सुर बरषत सुमन, सगुन सुमंगल बास॥
तुलसी कहते हैं कि सीता और लक्ष्मण के सहित प्रभु श्री रामचंद्र जी सुशोभित हो रहे हैं, देवतागण हर्षित होकर फूल बरसा रहे हैं। भगवान का यह सगुण ध्यान सुमंगल-परम कल्याण का निवास स्थान है।
बिनहीं रितु तरुबर फरत, सिला द्रबति जल जोर।
राम लखन सिय करि कृपा, जब चितबत जेहि मोर॥
श्री राम, लक्ष्मण और सीता जब कृपा करके जिसकी तरफ़ ताक लेते हैं तब बिना ही ऋतु के वृक्ष फलने लगते हैं और पत्थर की शिलाओं से बड़े ज़ोर से जल बहने लगता है।
चित्रकूट सब दिन बसत, प्रभु सिय लखन समेत।
राम नाम जप जाप कहि, तुलसी अभिमत देत॥
सीता और लक्ष्मण सहित प्रभु श्री राम चित्रकूट में सदा-सर्वदा निवास करते हैं। तुलसी कहते हैं कि वे राम-नाम का जप जपने वाले को इच्छित फल देते हैं।
पंचबटी बट बिटप तर, सीता लखन समेत।
सोहत तुलसीदास प्रभु, सकल सुमंगल देत॥
पंचवटी में वटवृक्ष के नीचे सीता और लक्ष्मण समेत प्रभु श्री राम सुशोभित हैं। तुलसी कहते हैं कि यह ध्यान सब सुमंगलों का दाता है।
गौतम तिय गति सुरति करि, नहिं परसति पग पानि।
मन बिहसे रघुबंस मनि, प्रीति अलौकिक जानि॥
मुनि गौतम की पत्नी अहल्या की गति को याद करके (जो चरणस्पर्श करते ही देवी बनकर आकाश में उड़ गई थी) श्री सीता जी अपने हाथों से भगवान् श्री राम जी के पैर नहीं छूतीं। रघुवंश-विभूषण श्री राम सीता के इस अलौकिक प्रेम को जानकर मन-ही-मन हँसने लगे।
जयति जयति सर्वेश्वरी, जन रक्षक सुखदानि।
जय समर्थ अह्लादिनी, सक्ति सील गुन खानि॥
बैरि बंधु निसिचर अधम, तज्यो न भरें कलंक।
झूठें अघ सिय परिहरी, तुलसी साई ससंक॥
शत्रु रावण के भाई, नीच राक्षस और (भाई को त्याग देने के कलंक से भरे रहने पर भी विभीषण को तो राम ने अपनी शरण में ले लिया और झूठे ही अपराध के कारण पवित्रात्मा सीता का त्याग कर दिया। तुलसीदास के स्वामी श्री राम बड़े ही सावधान हैं (लीला व्यवहार में अपने अंदर किसी प्रकार का दोष नहीं आने देते)।
सिया अलिनि की को कहै, सुख सुहाग अनुराग।
विधि हरिहर लखि थकि रहे, जानि छोट निज भाग॥
गलबहियाँ कब देखिहौं, इन नयमन सियराम।
कोटि चन्द्र छबि जगमगी, लज्जित कोटिन काम॥
हँस बीरी रघुबर लई, सिय मुख पंकज दीन।
सिया लीन कर कंज में, प्रीतम मुख धरि दीन॥
राम चरन मदिरादि मद, रहत घरी दुइ जाम।
बिरह अनल उतरै नहीं, जब लगि मिलहिं न राम॥
महा मधुर रस धाम श्री, सीता नाम ललाम।
झलक सुमन भासत कबहुँ, होत जोत अभिराम॥
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बिहरत गलबाहीं दिये, सिय रघुनन्दन भोर।
चहुँ दिशि ते घेरे फिरत, केकी भँवर चकोर॥
यथा विषय परिनाम में, बिसर जात सुधि देह।
सुमिरत श्री सिय नाम गुन, कब इमि होय सनेह॥
रघुबर प्यारी लाड़ली, लाड़लि प्यारे राम।
कनक भवन की कुंज में, बिहरत है सुखधाम॥
बसै अवध मिथिलाथवा, त्यागि सकल जिस आस।
मिलिहैं सिय रघुनंद मोहिं, अस करि दृढ़ विश्वास॥
जैति सिया तड़िता बरण, मेघ बरण जय राम।
जै सिय रति मद नाशिनी, जै रति पति जित साम॥
दास दासि अरु सखि सखा, इनमें निज रुचि एक।
नातो करि सिय राम सों, सेवै भाव विवेक॥
हे सीते नृप नंदिनी, हे प्रीतम चितचोर।
नवल बधू की वीटिका, लीजे नवल किशोर॥
नाम गाम में रुचि सदा, यह नव लक्षण होइ।
सिय रघुनंदन मिलन को, अधिकारी लखु सोइ॥
राम चरन दुख मिटत है, ज्यों विरही अतिहीर।
राम बिरह सर हिय लगे, तन भरि कसकत पीर॥
इत कलँगी उत चन्द्रिका, कुंडल तरिवन कान।
सिय सिय बल्लभ मों सदा, बसो हिये बिच आन॥
राम चरन रबिमनि श्रवत, निरषि बिरहिनी पीव।
अग्नि निरषि जिमि घृत द्रवत, राम रूप लखि जीव॥
विधि हरिहर जाकहँ जपत, रहत त्यागि सब काम।
सो रघुबर मन महँ सदा, सिय को सुमिरत नाम॥
होरी रास हिंडोलना, महलन अरु शिकार।
इन्ह लीलन की भावना, करे निज भावनुसार॥
भुक्ति मुक्ति की कामना, रही न रंचक हीय।
जूठन खाय अघाय नित, नाम रटों सिय पीय॥
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बहुरि त्रिपाद विभूति ये, श्री, भू, लीला, धाम।
अवलोकहु रमनीक अति, अति विस्तरित ललाम॥
जनक नंदनी नाम नित, हित हिय भरि जो लेत।
ताके हाथ अधीन ह्वै, लाल अपन पौ देत॥
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श्री जानकि-पद-कंज सखि, करहि जासु उर ऐन।
बिनु प्रयास तेहि पर द्रवहि, रघुपति राजिव नैन॥
ललिताई रघुनंद की, सो आलंब विभाव।
ललित रसाश्रित जनन को, मिलन सदा मनुचाव॥
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रंग रंगीली लाड़ली, रंग रंगीलो लाल।
रंग रंगीली अलिन में, कब देखौं सियलाल॥
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