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प्रेम पर दोहे

प्रेम के बारे में जहाँ

यह कहा जाता हो कि प्रेम में तो आम व्यक्ति भी कवि-शाइर हो जाता है, वहाँ प्रेम का सर्वप्रमुख काव्य-विषय होना अत्यंत नैसर्गिक है। सात सौ से अधिक काव्य-अभिव्यक्तियों का यह व्यापक और विशिष्ट चयन प्रेम के इर्द-गिर्द इतराती कविताओं से किया गया है। इनमें प्रेम के विविध पक्षों को पढ़ा-परखा जा सकता है।

कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।

भरे भौन मैं करत हैं, नैननु ही सब बात॥

सखी कह रही है कि नायक अपनी आँखों के इशारे से कुछ कहता है अर्थात् रति की प्रार्थना करता है, किंतु नायिका उसके रति विषयक निवेदन को अस्वीकार कर देती है। वस्तुतः उसका अस्वीकार स्वीकार का ही वाचक है तभी तो नायक नायिका के निषेध पर भी रीझ जाता है। जब नायिका देखती है कि नायक इतना कामासक्त या प्रेमासक्त है कि उसके निषेध पर भी रीझ रहा है तो उसे खीझ उत्पन्न होती है। ध्यान रहे, नायिका की यह खीझ भी बनावटी है। यदि ऐसी होती तो पुनः दोनों के नेत्र परस्पर कैसे मिलते? दोनों के नेत्रों का मिलना परस्पर रति भाव को बढ़ाता है। फलतः दोनों ही प्रसन्नता से खिल उठते हैं, किंतु लज्जित भी होते हैं। उनके लज्जित होने का कारण यही है कि वे यह सब अर्थात् प्रेम-विषयक विविध चेष्टाएँ भरे भवन में अनेक सामाजिकों की भीड़ में करते हैं।

बिहारी

रैदास प्रेम नहिं छिप सकई, लाख छिपाए कोय।

प्रेम मुख खोलै कभऊँ, नैन देत हैं रोय॥

रैदास कहते हैं कि प्रेम कोशिश करने पर भी छिप नहीं पाता, वह प्रकट हो ही जाता है। प्रेम का बखान वाणी द्वारा नहीं हो सकता। प्रेम को तो आँखों से निकले हुए आँसू ही व्यक्त करते हैं।

रैदास

कहि रहीम इक दीप तें, प्रगट सबै दुति होय।

तन सनेह कैसे दुरै, दृग दीपक जरु दोय॥

रहीम कहते हैं कि जब एक ही दीपक के प्रकाश से घर में रखी सारी वस्तुएँ स्पष्ट दीखने लगती हैं, तो फिर नेत्र रूपी दो-दो दीपकों के होते तन-मन में बसे स्नेह-भाव को कोई कैसे भीतर छिपाकर रख सकता है! अर्थात मन में छिपे प्रेम-भाव को नेत्रों के द्वारा व्यक्त किया जाता है और नेत्रों से ही उसकी अभिव्यक्ति हो जाती है।

रहीम
  • संबंधित विषय : आँख

ख़ुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।

तन मेरो मन पीउ को, दोउ भए एक रंग॥

ख़ुसरो कहते हैं कि उसके सौभाग्य की रात्रि बहुत अच्छी तरह से बीत गई, उसमें परमात्मा प्रियतम के साथ जीवात्मा की पूर्ण आनंद की स्थिति रही। वह आनंद की अद्वैतमयी स्थिति ऐसी थी कि तन तो जीवात्मा का था और मन प्रियतम का था, परंतु सौभाग्य की रात्रि में दोनों मिलकर एक हो गए, अर्थात दोनों में कोई भेद नहीं रहा और द्वैत की स्थिति नहीं रही।

अमीर ख़ुसरो

माथे तिलक हाथ जपमाला, जग ठगने कूं स्वांग बनाया।

मारग छाड़ि कुमारग उहकै, सांची प्रीत बिनु राम पाया॥

ईश्वर को पाने के लिए माथे पर तिलक लगाना और माला जपना केवल संसार को ठगने का स्वांग है। प्रेम का मार्ग छोड़कर स्वांग करने से ईश्वर की प्राप्ति नहीं होगी। सच्चे प्रेम के बिना परमात्मा को पाना असंभव है।

रैदास

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो छिटकाय।

टूटे से फिर मिले, मिले गाँठ परिजाय॥

रहीम कहते हैं कि प्रेम का रिश्ता बहुत नाज़ुक होता है। इसे झटका देकर तोड़ना यानी ख़त्म करना उचित नहीं होता। यदि यह प्रेम का धागा (बंधन) एक बार टूट जाता है तो फिर इसे जोड़ना कठिन होता है और यदि जुड़ भी जाए तो टूटे हुए धागों (संबंधों) के बीच में गाँठ पड़ जाती है।

रहीम

प्रेम दिवाने जो भये, मन भयो चकना चूर।

छके रहे घूमत रहैं, सहजो देखि हज़ूर॥

सहजोबाई कहती हैं कि जो व्यक्ति ईश्वरीय-प्रेम के दीवाने हो जाते हैं, उनके मन की सांसारिक वासनाएँ-कामनाएँ एकदम चूर-चूर हो जाती हैं। ऐसे लोग सदा आनंद से तृप्त रहते हैं तथा संसार में घूमते हुए परमात्मा का साक्षात्कार कर लेते हैं।

सहजोबाई

‘तुलसी’ सब छल छाँड़िकै, कीजै राम-सनेह।

अंतर पति सों है कहा, जिन देखी सब देह॥

गोस्वामी जी कहते हैं कि सब छल-कपटों को छोड़ कर भगवान् की सच्चे हृदय से भक्ति करो। उस पति से भला क्या भेदभाव है जिसने सारे शरीर को देखा हुआ है। भाव यह कि जैसे पति अपनी पत्नी के सारे शरीर के रहस्यों को जानता है वैसे ही प्रभु सारे जीवों के सब कर्मों को जानता है।

तुलसीदास

मुसलमान सों दोस्ती, हिंदुअन सों कर प्रीत।

रैदास जोति सभ राम की, सभ हैं अपने मीत॥

हमें मुसलमान और हिंदुओं दोनों से समान रूप से दोस्ती और प्रेम करना चाहिए। दोनों के भीतर एक ही ईश्वर की ज्योति प्रकाशित हो रही है। सभी हमारे−अपने मित्र हैं।

रैदास

कबीर यहु घर प्रेम का, ख़ाला का घर नाँहि।

सीस उतारै हाथि करि, सो पैठे घर माँहि॥

परमात्मा का घर तो प्रेम का है, यह मौसी का घर नहीं है जहाँ मनचाहा प्रवेश मिल जाए। जो साधक अपने सीस को उतार कर अपने हाथ में ले लेता है वही इस घर में प्रवेश पा सकता है।

कबीर

प्रेम पंथ की पालकी, रैदास बैठियो आय।

सांचे सामी मिलन कूं, आनंद कह्यो जाय॥

रैदास कहते हैं कि वे प्रेम−मार्ग रूपी पालकी में बैठकर अपने सच्चे स्वामी से मिलने के लिए चले हैं। उनसे मिलने की चाह का आनंद ही निर्वचनीय है, तो उनसे मिलकर आनंद की अनुभूति का तो कहना ही क्या!

रैदास

तो पर वारौं उरबसी, सुनि, राधिके सुजान।

तू मोहन कैं उर बसी, है उरबसी-समान॥

हे सुजान राधिके, तुम यह समझ लो कि मैं तुम्हारे रूप-सौंदर्य पर उर्वशी जैसी नारी को भी न्यौछावर कर सकता हूँ। कारण यह है कि तुम तो मेरे हृदय में उसी प्रकार निवास करती हो, जिस प्रकार उर्वशी नामक आभूषण हृदय में निवास करता है।

बिहारी

मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ।

जा तन की झाँई परैं, स्यामु हरित-दुति होइ॥

इस दोहे के तीन अलग-अलग अर्थ बताए गए हैं।

बिहारी

लाल लली ललि लाल की, लै लागी लखि लोल।

त्याय दे री लय लायकर, दुहु कहि सुनि चित डोल॥

लाल को लली से और लली को लाल से मिलने की इच्छा है। दोनों मुझे कहते हैं, अरी तू उससे मुझे मिलाकर विरहाग्नि को शांत कर। इनकी बातें सुनते-सुनते मेरा भी चित्त विचलित हो गया है।

दयाराम

नैनाँ अंतरि आव तूँ, ज्यूँ हौं नैन झँपेऊँ।

नाँ हौं देखौं और कूँ, नाँ तुझ देखन देऊँ॥

आत्मारूपी प्रियतमा कह रही है कि हे प्रियतम! तुम मेरे नेत्रों के भीतर जाओ। तुम्हारा नेत्रों में आगमन हाते ही, मैं अपने नेत्रों को बंद कर लूँगी या तुम्हें नेत्रों में बंद कर लूँगी। जिससे मैं तो किसी को देख सकूँ और तुम्हें किसी को देखने दूँ।

कबीर
  • संबंधित विषय : आँख

जमला ऐसी प्रीत कर, ज्यूँ बालक की माय।

मन लै राखै पालणौ, तन पाणी कूँ जाय॥

प्रीति तो ऐसी करो जैसी एक माता अपने बालक से करती है। वह जब पानी भरने जाती है तब अपने मन को तो झूले में पड़े बालक के पास ही छोड़ जाती है। ( उसका तन तो उसकी संतान से दूर रहता है पर मन उसी में लगा रहता है)।

जमाल
  • संबंधित विषय : माँ

सायक-सम मायक नयन, रँगे त्रिबिध रंग गात।

झखौ बिलखि दुरि जात जल, लखि जलजात लजात॥

कवि कह रहा है कि नायिका की आँखें ऐसी हैं कि मछलियाँ भी उन्हें देखकर पानी में छिप जाती हैं, कमल लजा जाते हैं। नायिका के मादक और जादुई नेत्रों के प्रभाव से कमल और मछलियाँ लज्जित हो जाती हैं। कारण, नायिका के नेत्र संध्या के समान हैं और तीन रंगों—श्वेत, श्याम और रतनार से रँगे हुए हैं। यही कारण है कि उन्हें देखकर मछली दु:खी होकर पानी में छिप जाती है और कमल लज्जित होकर अपनी पंखुड़ियों को समेट लेता है। सांध्यवेला में श्वेत, श्याम और लाल तीनों रंग होते हैं और नायिका के नेत्रों में भी ये तीनों ही रंग हैं। निराशा के कारण वे श्याम हैं, प्रतीक्षा के कारण पीले या श्वेत हैं और मिलनातुरता के कारण लाल या अनुरागयुक्त हो रहे हैं।

बिहारी

जमला ऐसी प्रीत कर, जैसी मच्छ कराय।

टुक एक जल थी बीछड़े, तड़फ-तड़फ मर जाय॥

प्रीत तो ऐसी करनी चाहिए जैसी मछली जल से करती है। जल से यदि वह थोड़ी देर भी अलग हो जाती है तो तड़प-तड़पकर मर जाती है।

जमाल

जमला लट्टू काठ का, रंग दिया करतार।

डोरी बाँधी प्रेम की, घूम रह्या संसार॥

विधाता ने काठ के लट्टू को रंगकर प्रेम की डोरी से बांधकर उसे फिरा दिया और वह संसार में चल रहा है।

अभिप्राय यह है कि पंचतत्त्व का यह मनुष्य शरीर विधाता ने रचा और सजाकर उसे जन्म दिया। यह शरीर संसार में अपने अस्तित्व को केवल प्रेम के ही कारण स्थिर रख रहा है।

जमाल

फूलति कली गुलाब की, सखि यहि रूप लखै न।

मनौ बुलावति मधुप कौं, दै चुटकी की सैन॥

एक सखी दूसरी सखी से चटचटा कर विकसित होती हुई कली का वर्णन करती हुई कहती है कि हे सखि, इस खिलती हुई गुलाब की कली का रूप तो देखो न। यह ऐसी प्रतीत होती है, मानो अपने प्रियतम भौंरे को रस लेने के लिए चुटकी बजाकर इशारा करती हुई अपने पास बुला रही हो।

मतिराम

जो तेरे घट प्रेम है, तो कहि-कहि सुनाव।

अंतरजामी जानि है, अंतरगत का भाव॥

मलूकदास

ऐसी बाँणी बोलिये, मन का आपा खोइ।

अपना तन सीतल करै, औरन कौं सुख होइ॥

कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि।

ऐसैं घटि घटि राँम है, दुनियाँ देखै नाँहि॥

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहिं।

सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि॥

सुखिया सब संसार है, खाए अरु सोवै।

दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै॥

बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र लागै कोइ।

राम बियोगी ना जिवै, जिवै तो बौरा होइ॥

निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ।

बिन साबण पाँणीं बिना, निरमल करै सुभाइ॥

पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया कोइ।

एकै आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होइ॥

हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।

अब घर जालौं तासका, जे चले हमारे साथि॥

कबीर

चकमक सु परस्पर नयन, लगन प्रेम परि आगि।

सुलगि सोगठा रूप पुनि, गुन-दारू दूड जागि॥

चकमक के सदृश नेत्र जब आपस में टकराते हैं तो उनसे प्रेम की चिनगारियाँ निकलती हैं। फिर रूप रूपी सोगठे (रूई) पर इनके गिरने से आग सुलग जाती है, किंतु पूर्णतया प्रज्वलित तभी होती है जब उसका संयोग गुण रूपी शराब से होता है।

दयाराम

प्रेम प्रेम सब कोउ कहै, कठिन प्रेम की फाँस।

प्रान तरफि निकरै नहीं, केवल चलत उसाँस॥

रसखान

प्रेम हरी को रूप है, त्यौं हरि प्रेम स्वरूप।

एक होइ द्वै यो लसै, ज्यौं सूरज अरु धूप॥

रसखान

सतगुरु हम सूँ रीझि करि, एक कह्या प्रसंग।

बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग॥

सद्गुरु ने मुझ पर प्रसन्न होकर एक रसपूर्ण वार्ता सुनाई जिससे प्रेम रस की वर्षा हुई और मेरे अंग-प्रत्यंग उस रस से भीग गए।

कबीर

पूरी माँगति प्रेम सो, तजी कचौरी प्रीत।

बराबरी के नेह में, कह जमाल का रीत॥

वह नायिका कचोड़ी चाहकर पूरी मांगती है। बड़ा बड़ी (एक सूखी तरकारी) के प्रेम के कारण वह इस प्रकार क्यों आचरण कर रही है? अभिप्राय यह है कि नायिका अपने पति से पूरी (पूर्ण) प्रीति माँगती है, वह कचौरी (अधूरापन) नहीं चाहती। बराबरी के प्रेम में पूर्णता ही होती है।

जमाल

प्रेम खेतौं नीपजै, प्रेम दृष्टि बिकाइ।

राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ॥

प्रेम किसी खेत में उत्पन्न नहीं होता और वह किसी हाट (बाज़ार) में ही बिकता है। राजा हो अथवा प्रजा, जिस किसी को भी वह रुचिकर लगे वह अपना सिर देकर उसे ले जा सकता है।

कबीर

आसिक मासूक ह्वै गया, इसक कहावै सोइ।

दादू उस मासूक का, अलह आसिक होइ॥

जब प्रेमी और प्रेमिका (प्रेम-पात्र) एक रूप हो जाते हैं, तो वह सच्चा इश्क़ कहलाता है। इस अद्वैत की स्थिति में स्वयं ईश्वर उसके प्रेमी और विरहिणी प्रेमिका (प्रेम-पात्र) बन जाते हैं।

दादू दयाल

गंगा जमुना सुरसती, सात सिंधु भरपूर।

‘तुलसी’ चातक के मते, बिन स्वाती सब धूर॥

गंगा, यमुना, सरस्वती और सातों समुद्र ये सब जल से भले ही भरे हुए हों, पर पपीहे के लिए तो स्वाति नक्षत्र के बिना ये सब धूल के समान ही हैं; क्योंकि पपीहा केवल स्वाति नक्षत्र में बरसा हुआ जल ही पीता है। भाव यह है कि सच्चे प्रेमी अपनी प्रिय वस्तु के बिना अन्य किसी वस्तु को कभी नहीं चाहता, चाहे वह वस्तु कितनी ही मूल्यवान् क्यों हो।

तुलसीदास

अति सूक्षम कोमल अतिहि, अति पतरो अति दूर।

प्रेम कठिन सब ते सदा, नित इकरस भरपूर॥

रसखान

रक्खइ सा विस-हारिणी बे कर चुम्बिवि जीउ।

पडिबिम्बिउ-मुंजालु जलु जेहिं अडोहिउ पीउ॥

वह पनिहारिन अपने उन दोनों हाथों को चूमकर जी रही है, जिनसे मुंज- प्रतिबिंबित जल प्रिय को पिलाया था।

हेमचंद्र

प्रेम-रसासव छकि दोऊ, करत बिलास विनोद।

चढ़त रहत, उतरत नहीं, गौर स्याम-छबि मोद॥

ध्रुवदास

हरि रस पीया जाँणिये, जे कबहूँ जाइ खुमार।

मैमंता घूँमत रहै, नाँहीं तन की सार॥

राम के प्रेम का रस पान करने का नशा नहीं उतरता। यही राम-रस पीने वाले की पहचान भी है। प्रेम-रस से मस्त होकर भक्त मतवाले की तरह इधर-उधर घूमने लगता है। उसे अपने शरीर की सुधि भी नहीं रहती। भक्ति-भाव में डूबा हुआ व्यक्ति, सांसारिक व्यवहार की परवाह नहीं करता और उसकी दृष्टि में देह-धर्म नगण्य हो जाता है।

कबीर

कागद पर लिखत बनत, कहत सँदेसु लजात।

कहि है सबु तेरौ हियौ मेरे हिय की बात॥

नायिका अपने प्रेयस को पत्र लिखने बैठती है तभी या तो उसके हाथ काँपने लगते हैं या वह भावावेश में आकर इतनी भाव-विभोर हो जाती है कि कंपन स्नेह अश्रु जैसे सात्विक भाव काग़ज़ पर अक्षरों का आकार नहीं बनने देते। इसके विपरीत यदि वह किसी व्यक्ति के माध्यम से नायक के पास संदेश भेजे तो यह समस्या उठ खड़ी होती है कि किसी दूसरे व्यक्ति से अपने मन की गुप्त बातें कैसे कहे? स्पष्ट शब्दों में संदेश कहने में उसे लज्जा का अनुभव होता है। विकट परिस्थिति है कि नायिका तो पत्र भेज सकती है और संदेश ही प्रेषित कर सकती है। इस विषमता से ग्रस्त अंततः वह हताश होकर ख़ाली काग़ज़ का टुकड़ा बिना कुछ लिखे ही नायक के पास भेज देती है। इस काग़ज़ के टुकड़े को भेजने के साथ वह यह अनुमान लगा लेती है कि यदि नायक के मन में भी मेरे प्रति मेरे जैसा ही गहन प्रेम होगा तो वह इस ख़ाली काग़ज़ को देखकर भी मेरे मनोगत एवं प्रेमपूरित भावों को स्वयं ही पढ़ लेगा।

बिहारी

जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे ते सुलगे नाहिं।

रहिमन दाहे प्रेम के, बुझि बुझि कै सुलगाहिं॥

रहीम कहते हैं कि आग से जलकर लकड़ी सुलग-सुलगकर बुझ जाती है, बुझकर वह फिर सुलगती नहीं। लेकिन प्रेम की आग में दग्ध हो जाने पर प्रेमी बुझकर भी सुलगते रहते हैं।

रहीम

सतगुरु मिल्यो तो का भयो, घट नहिं प्रेम प्रतीत।

अंतर कोर भींजई, ज्यों पत्थल जल भीत॥

संत केशवदास

अरे पियारे, क्या करौ, जाहि रहो है लाग।

क्योंकरि दिल-बारूद में, छिपे इस्क की आग॥

नागरीदास

तो पर वारौं उरबसी, सुनि, राधिके सुजान।

तू मोहन कैं उर बसी ह्वै उरबसी-समान॥

कृष्ण कहते हैं कि हे सुजान राधिके, तुम यह समझ लो कि मैं तुम्हारे रूप-सौंदर्य पर उर्वशी जैसी नारी को भी न्यौछावर कर सकता हूँ। कारण यह है कि तुम तो मेरे हृदय में उसी प्रकार निवास करती हो, जिस प्रकार उर्वशी नामक आभूषण हृदय में निवास करता है।

बिहारी

इस्क-चमन महबूब का, जहाँ जावै कोइ।

जावै सो जीवै नहीं, जियै सु बौरा होइ॥

नागरीदास

पै मिठास या मार के, रोम-रोम भरपूर।

मरत जियै झुकतौ थिरै, बनै सु चकनाचूर॥

रसखान

रे मन सब सों निरस ह्वै, सरस राम सों होहि।

भलो सिखावन देत है, निसि दिन तुलसी तोहि॥

रे मन! तू संसार के सब पदार्थों से प्रीति तोड़कर श्री राम से प्रेम कर। तुलसीदास तुझको रात-दिन यही शिक्षा देता है।

तुलसीदास

ससि सौं अति सुंदर मुष, अंग सुंदर जान।

प्रीतम रहे बस भयौ, ऐसो प्रेम प्रधान॥

दौलत कवि

इक अगी बिनु कारनहिं, इक रस सदा समान।

गनै प्रियहि सर्वस्व जो, सोई प्रेम प्रमान॥

रसखान

प्रीतम नहिं कछु लखि सक्यो, आलि कही तिय कान।

नथ उतारि धरि नाक तं, कह जमाल का जान॥

सखी ने नायिका के कान में जो कहा, उसको प्रिय जान सका नायिका ने अपने नाक की नथ को क्यों खोल दिया ? अभिप्राय यह है कि नायिका के अधरों पर नथ को झूलते देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो अधर रस की रक्षा के लिए ताला लगा हो। नथ अधर रस के पान में बाधक है, ऐसा भ्रम नायक को होते देखकर सखी ने नायिका से नथ हटा देने को कहा।

जमाल

जमला ऐसी प्रीत कर, जैसी हिंदू जोय।

पूत पराये कारणे, जल बल कोयला होय॥

प्रीति तो ऐसी करनी जैसी कि एक हिंदू स्त्री करती है। वह पराए मर्द के लिए (अपना पति हो जाने पर) समय पड़ने पर स्वयं को जलाकर (सती होकर) राख बना देती है।

जमाल

अद्भुत गत यह प्रेम की, बैनन कही जाइ।

दरस भूख वाहे दृगन, भूखहिं देत भगाइ॥

रसनिधि

तजि आसा तन, प्रान की, दीपै मिलत पतंग।

दरसाबत सब नरन कों, परम प्रेंम कौ ढंग॥

भिखारीदास

दादू इसक अलह की जाति है, इसक अलह का अंग।

इसक अलह औजूद है, इसक अलह का रंग॥

ईश्वर की जाति, रंग और शरीर प्रेम है। प्रेम ईश्वर का अस्तित्व है। प्रेम करो तो ईश्वर के साथ ही करो।

दादू दयाल

कहूँ किया नहिं इस्क का, इस्तैमाल सँवार।

सो साहिब सों इस्क वह, करि क्या सकै गँवार॥

नागरीदास

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