ज्ञान पर दोहे
ज्ञान का महत्त्व सभी
युगों और संस्कृतियों में एकसमान रहा है। यहाँ प्रस्तुत है—ज्ञान, बोध, समझ और जानने के विभिन्न पर्यायों को प्रसंग में लातीं कविताओं का एक चयन।
ऐसी बाँणी बोलिये, मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै, औरन कौं सुख होइ॥
कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि।
ऐसैं घटि घटि राँम है, दुनियाँ देखै नाँहि॥
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहिं।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि॥
सुखिया सब संसार है, खाए अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै॥
बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।
राम बियोगी ना जिवै, जिवै तो बौरा होइ॥
निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ।
बिन साबण पाँणीं बिना, निरमल करै सुभाइ॥
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
एकै आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होइ॥
हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तासका, जे चले हमारे साथि॥
दादू देव दयाल की, गुरू दिखाई बाट।
ताला कूँची लाइ करि, खोले सबै कपाट॥
मथि करि दीपक कीजिये, सब घट भया प्रकास।
दादू दीया हाथ करि, गया निरंजन पास॥
नानक गुरु संतोखु रुखु धरमु फुलु फल गिआनु।
रसि रसिआ हरिआ सदा पकै करमि सदा पकै कमि धिआनि॥
सतगुरु जी री खोहड़ी, लागी म्हारे अंग।
पीपा जुड़ग्या पी लगन, टूटी भरम तरंग॥
सरवर भरिया दह दिसा, पंखी प्यासा जाइ।
दादू गुर परसाद बिन, क्यों जल पीवै आइ॥
पीपा हरि सो गुरु बिना, होत न सबद विवेक।
ज्ञान रहित अज्ञान सुत, कठिन कुमन की टेक॥
ज्ञान भगति मन मूल गहि, सहज प्रेम ल्यौ लाइ।
दादू सब आरंभ तजि, जिनि काहू सँग जाइ॥
सुन्दर याकै अज्ञता, याही करै बिचार।
याही बूड़े धार मैं, याही उतरै पार॥
जब मन बहकै उड़ि चलै, तब आनै ब्रह्म ग्यान॥
ग्यान खड़ग के देखते, डरपै मन के प्रान॥
सतगुरु ऊंभा देहरी, हाथां लिये मसाल।
पीपा अलख लखन चहे, हिवड़े दिवड़ो बाल॥
जब हीं कर दीपक दिया, तब सब सूझन लाग।
यूँ दादू गुर ज्ञान थैं,राम कहत जन जाग॥