मोक्ष पर दोहे
भारतीय दर्शन में दुखों
की आत्यंतिक निवृत्ति को मोक्ष कहा गया है। मोक्ष प्राप्ति को जीवन का अंतिम ध्येय माना गया है ,जहाँ जीव जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्ति पा लेता है। अद्वैत दर्शन में ‘अविद्या: निवृत्ति: एव मोक्ष:’ की बात कही गई है। ज्ञान और भक्ति दोनों को ही मोक्ष का उपाय माना गया है। बौद्ध और जैन जैसी अवैदिक परंपराओं में भी मोक्ष की अवधारणा पाई जाती है। बुद्ध ने इसे ‘निर्वाण’ कहा है।
तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार।
राग न रोष न दोष दुख, दास भए भव पार॥
तुलसी कहते हैं कि जिनकी श्री राम में ममता और सब संसार में समता है, जिनका किसी के प्रति राग, द्वेष, दोष और दुःख का भाव नहीं है, श्री राम के ऐसे भक्त भव सागर से पार हो चुके हैं।
चमक, तमक, हाँसी, ससक, मसक, झपट, लपटानि।
एजिहिं रति, सो रति मुकति, और मुकति अति हानि॥
जिस काम-क्रीड़ा में अंगों की चंचलता, उत्तेजना की अधिकता, हँसी, सीत्कार, मर्दन और छीन-झपटी जैसे भाव न हों, वह व्यर्थ है। हाँ, जिसमें ये भाव हों, वह काम-क्रीड़ा मुक्ति के समान है। इसके अतिरिक्त यदि कोई और मुक्ति है तो वह व्यर्थ है अर्थात् हानिकारक है।
तिरे, तिरावै, फिर तिरे, तिरताँ लगै न बार।
देवादास रटि राम कूँ, बहुत ऊतर्या पार॥
साँचो सीझै भव तरै, हरि पुर आड़े नाहिं।
परसुराम झूठो दहै, बूड़ै भव जल माहिं॥
जल तिरबे को तूँ बड़ा, भौ तिरबे कूँ राम।
'देवादास' सब संत कह, सुमरो आठूँ जाम॥
जग-नद में तेरी परी, देह-नाव मँझधार।
मन-मलाह जो बस करै, निहचै उतरै पार॥
जाति हीन अघ जन्म महि, मुक्त कोन्हि असि नारि।
महामंद मन सुख चहसि, ऐसे प्रभुहि बिसारि॥
जो नीच जाति की और पापों की जन्मभूमि थी, ऐसी स्त्री (शबरी) को भी जिन्होंने मुक्त कर दिया, अरे महामूर्ख मन। तू ऐसे प्रभु श्री राम को भूलकर सुख चाहता है?
नीकी दई अनाकनी, फीकी परि गुहारि।
तज्यौ मनौ तारन-बिरदु, बारक बारनु तारि॥
हे नाथ, आपने तो मेरे प्रति पूर्ण उपेक्षा भाव अपना रखा है। इसका प्रमाण यह है कि मैं अपने उद्धार के लिए आपसे अनेक बार प्रार्थना कर चुका हूँ, किंतु मेरी प्रार्थना आपके कानों तक पहुँचती ही नहीं है। बिहारी यह उत्प्रेक्षा करते हैं कि भगवान ने एक बार हाथी का उद्धार किया, उसकी आर्त पुकार पर दौड़े चले गए। उसका उद्धार करने में वे इतना थक गए हैं कि अब उद्धारकर्ता कहलाने की प्रकृति को ही उन्होंने त्याग दिया है।
बिलग बिलग सुख संग दुख, जनम मरन सोइ रीति।
रहिअत राखे राम के, गए ते उचित अनीति॥
संसार से दूर-दूर रहने में है सुख है, आसक्ति में ही दुःख है। यही बात जन्म और मृत्यु में है। श्री राम के रक्खे अर्थात् वे रखना चाहते हैं, इसीलिए (आसक्ति रहित होकर यहाँ से जो चले गए, उन्होंने ही उचित किया (तात्पर्य यह है कि जगत में या तो भगवत प्रेमी होकर रहें या ऐसी चेष्टा करें जिससे मुक्ति ही मिल जाए)।
साधु संगति पूरजी भइ, हौं वस्त लइ निरमोल।
सहज बल दिया लादि करि, चल्यो लहन पिव मोल॥
रैदास कहते हैं कि साधु−संगति के धन को मैंने अनमोल वस्तु के रूप में प्राप्त कर लिया है। इस सत्संग से प्राप्त चेतन शक्ति को अपने हृदय में समाहित करके मैं अपने पीव को प्राप्त करने चला हूँ।
बंधु भए का दीन के, को तार्यौ रघुराइ।
तूठे-तूठे फिरत हौ, झूठे बिरद कहाइ॥
भक्त अपने आराध्य को उपालंभ देता हुआ कहता है कि आप भाई भी बने तो दीन अर्थात् धर्मात्मा के। इसमें आपकी कोई बड़ाई नहीं है क्योंकि धर्मात्मा तो धर्मपरायण होने के कारण स्वतः ही भवसागर पार कर जाते हैं। हाँ, यदि मुझ जैसे पापी का उद्धार करते तो उसमें आपकी गरिमा होती है । हे रघुवंश के शिरोमणि, आप यह भी बता दीजिए कि अपनी मिथ्या कीर्ति पर आप प्रसन्न क्यों? जब आपने किसी पापी को तारा ही नहीं या किसी पापी का उद्धार ही नहीं किया तो आप पतिततारण की उपाधि पर प्रसन्नता का अनुभव क्यों कर रहे हैं?
राम निकाई रावरी, है सबही को नीक।
जौं यह साँची है सदा, तौ नीको तुलसीक॥
तुलसी कहते हैं कि हे रामजी! आपकी भलाई (सुहृद्भाव) से सभी का भला है। अर्थात् आपका कल्याणमय स्वभाव सभी का कल्याण करने वाला है। यदि यह बात सत्य है तो तुलसीदास का भी सदा कल्याण ही है।
सुद्ध सच्चिदानंदमय, कंद भानुकुल केतु।
चरित करत नर अनुहरत, संसृति सागर सेतु॥
शुद्ध (प्रकृतिजन्य त्रिगुणों से रहित, मायातीत दिव्य मंगल विग्रह), सच्चिदानंदकंदस्वरूप, सूर्यकुल के ध्वजा रूप भगवान् श्री राम मनुष्यों के समान ऐसे चरित्र करते हैं, जो संसार-सागर से तारने के लिए पुल के समान हैं (अर्थात् उन चरित्रों को गाकर और सुनकर लोग भवसागर से सहज ही तर जाते हैं)।
सत्य बचन मानस बिमल, कपट रहित करतूति।
तुलसी रघुबर सेवकहि, सकै न कलिजुग धूति॥
तुलसी कहते हैं कि जिनके वचन सत्य होते हैं, मन निर्मल होता है और क्रिया कपट रहित होती है, ऐसे श्री राम के भक्तों को कलियुग कभी धोखा नहीं दे सकता (वे माया में नही फंस सकते)।
जौ न जुगति पिय मिलन की, धूरि मुकति-मुँह दीन।
जौ लहियै सँग सजन तौ, धरक नरक हूँ की न॥
यदि मुक्ति के मार्ग में प्रिय-मिलन का कोई प्रसंग अथवा उपाय नहीं है तो ऐसी मुक्ति हमें स्वीकार नहीं है। इस प्रकार की मुक्ति पर हम धूलि डालते हैं। एक प्रकार से उसे अस्वीकार करते हैं। हाँ, इसके विपरीत यदि अपना प्रिय साथ हो तो हमें नरक में भी कोई भय नहीं है।
जैसो तैसो रावरो, केवल कोसलपाल।
तौ तुलसी को है भलो, तिहूँ लोक तिहुँ काल॥
तुलसी कहते हैं कि हे कोसलपति श्री राम! जैसा-तैसा (भला-बुरा) यह तुलसी केवल आपका ही है। यदि यह बात सच है तो तीनों लोकों में (यह जहाँ-कहीं रहे) और तीनों कालों (भूत, भविष्य और वर्तमान) में इसका कल्याण-ही-कल्याण है।
अधम अजामिल आदि जे, हौं तिनकौ हौं राउ।
मोहूँ पर कीजै दया, कान्ह दया दरियाउ॥
हे भगवान्! अजामिल आदि जितने भी नीच पापी हुए हैं, मैं उनका भी सरदार हूँ। इसलिए हे श्रीकृष्ण, हे दया के सागर, जिस प्रकार आपने अजामिल आदि अनेक पापियों का उद्धार किया वैसे ही मेरा भी उद्धार कीजिए।
जो निसिदिन सेवन करै, अरु जो करै विरोध।
तिन्हैं परम पद देत प्रभु, कहौ यह बोध॥
हे भगवन्! आपकी भी यह क्या समझ है कि जो लोग रात-दिन आपका भजन करते हैं, उन्हें तो भला आप मोक्ष देते ही हैं किंतु जो लोग (रावण आदि) आपका विरोध करते हैं, उन्हें भी आप मोक्ष दे देते हैं। अर्थात् भगवान् शत्रु और मित्र को समभाव से देखते हैं।
कर घूँघट जग मोहिये, बहुत भुलाए लाल।
दरसन जिनैं दिखाइयाँ, दसन जोग जमाल॥
हे लाल (प्रिय)! तुमने घूँघट करके (गुप्त रहकर) जगत को अपनी ओर आकर्षित किया। बहुत लोग तुम्हें खोजते-खोजते भटक गए पर तुमने उनको ही दर्शन दिया, जो कि दर्शन के योग्य थे।
सद्गुरु भ्राता नृपति कै, बेड़ी काटै आइ।
निगहबांन देखत रहैं, सुन्दर देहि छुड़ाइ॥
दादू देव दयाल की, गुरू दिखाई बाट।
ताला कूँची लाइ करि, खोले सबै कपाट॥
ररा ममा को ध्यान धरि, यही उचारै ग्यान।
दुविध्या तिमिर सहजैं मिटै, उदय भक्ति को भान॥
राम नाम जियां जाणिया, पकड़ गुरु की धार।
पीपा पल में परसिया, खुलग्यो मुक्ति द्वार॥
आशा विषय विकार की, बध्या जग संसार।
लख चौरासी फेर में, भरमत बारंबार ॥
स्वारथ के सब ही सगा, जिनसो विपद न जाय।
पीपा गुरु उपदेश बिनु, राम न जान्यो जाय॥
राम नाम तिहुं लोक मैं, भवसागर की नाव।
सद्गुरु खेवट बांह दे, सुंदर बेगो आव॥
राम हि भज्यौ कबीरजी, राम भज्यौ रैदास।
सोझा पीपा राम भजि, सुन्दर हृदय प्रकास॥
सुन्दर हरि कै भजन तें, संत भये सब पार।
भवसागर नवका बिना, बूडत है संसार॥
पीपा हरि प्रसाद तें, पायो ज्ञान अनंत।
भव सागर ने पार कर, दुख को आयो अंत॥
सुन्दर अति अज्ञान नर, समुंझत नहीं लगार।
जिनहि लडावै लाड़ तूं, ते ठोकि हैं कपार॥
एक जन्म गुरु भक्ति कर, जन्म दूसरे नाम।
जन्म तीसरे मुक्ति पद, चौथे में निजधाम॥
स्वामी होणौ सहज है, दुर्लभ होणौं दास।
पीपा हरि के नाम बिन, कटै न जम की फाँस॥
दादू हम कूँ सुख भया, साध सबद गुर ज्ञाण।
सुधि-बुधि सोधी समझि करि, पाया पद निरबाण॥
राम नाम सुमरत भये, रंक बँक बजरंग।
ध्रुव प्रह्लाद गीधगज, तजकुल को परसंग॥
सद्गुरु शब्द सुनाइ करि, दीया ज्ञान बिचार।
सुन्दर सूर प्रकासिया, मेट्या सब अन्धियार॥
दादू काढ़े काल मुख, गूँगे लिये बोलाइ।
दादू ऐसा गुर मिल्या, सुख में रहे समाइ॥
अखिल लोक के जीव हैं, जु तिन को जीवन जल।
सकल सिद्धि अरु रिद्धि जानि, जीवन जु भक्ति-फल॥
साचा सतगुर जे मिलै, सब साज सँवारै।
दादू नाव चढ़ाइ करि, ले पार उतारै॥
मरना-मरना सब कहे, मरिगौ बिरला कोय।
एक बेरि एह ना मुआ, जो बहुरि ना मरना होय॥
हरख शोक जा के नहीं, बैरी मीत समान।
कहु नानक सुन रे मना, मुक्ति ताहि तैं जान॥
देह धात माहें मिलै, आतम कनक कुरूप।
सुन्दर सांख्य सुनार बिन, होइ न शुद्ध स्वरूप॥
तारनहार समर्थ है, अवर न दूजा कोय।
कह यारी सत्तगुरु मिलै, अचल अरु अम्मर होय॥
जिहि पानी हउ मैं तजी, करता राम पछान।
कहु नानक वह मुक्त नर, यह मन साची मान॥
जो प्रानी ममता तजै, लोभ मोह अहँकार।
कह नानक आपन तरै, औरन लेत उद्धार॥
आसा मनसा सब थकी, मन निज मनहिं मिलान।
ज्यों सरिता समुँदर मिली, मिटि गो आवन जान॥
असतति निंदिआ नाहिं जिह, कंचन लोह समानि।
कह नानक सुन रे मना, मुक्त ताहि तैं जानि॥
और धर्म अरु कर्म करत, भव-भटक न मिटिहै।
जुगम-महाशृंखला जु, हरि-भजनन कटिहै॥