मोहन लखि जो बढ़त सुख, सो कछु कहत बनै न।
नैनन कै रसना नहीं, रसना कै नहिं नैन॥
श्रीकृष्ण को देखकर जैसा दिव्य आनंद प्राप्त होता है, उस आनंद का कोई वर्णन नहीं कर सकता, क्योंकि जो आँखें देखती हैं, उनके तो कोई जीभ नहीं है जो वर्णन कर सकें, और जो जीभ वर्णन कर सकती है उसके आँखें नहीं है। बिना देखे वह बेचारी जीभ उसका क्या वर्णन कर सकती है!
मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ।
जा तन की झाँई परैं, स्यामु हरित-दुति होइ॥
इस दोहे के तीन अलग-अलग अर्थ बताए गए हैं।
तनिक न धीरज धरि सकै, सुनि धुनि होत अधीन।
बंसी बंसीलाल की, बंधन कों मन-मीन॥
प्रेम-रसासव छकि दोऊ, करत बिलास विनोद।
चढ़त रहत, उतरत नहीं, गौर स्याम-छबि मोद॥
जो बड़ेन को लघु कहें, नहिं रहीम घटि जाँहि।
गिरधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं॥
रहीम कहते हैं कि बड़े लोगों को अगर छोटा भी कह दिया जाए तो भी वे बुरा नहीं मानते। जैसे गिरधर (गिरि को धारण करने वाले कृष्ण) को मुरलीधर भी कहा जाता है लेकिन कृष्ण की महानता पर इसका कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
कौन भाँति रहिहै बिरदु, अब देखिवी, मुरारि।
बीधे मोसौं आइ कै, गीधे गीधहिं तारि॥
हे मुरारि, तुम जटायु का उद्धार करके बहुत गीध गए हो अर्थात् अहंकार से युक्त हो गए हो। व्यंजना यह है कि तुमने यह मान लिया है कि जटायु का उद्धार कोई नहीं कर सकता था और वह केवल तुमने किया है। अब देखना यह है कि तुम मुझ जैसे महापापी का उद्धार कैसे करते हो? अब तुम्हारा मुझसे पाला पड़ा है। मुझ जैसे महापापी का उद्धार तुम कर नहीं पाओगे और जब मेरा उद्धार नहीं कर पाओगे तो तुम्हारे उद्धारक रूप की ख्याति किस प्रकार सुरक्षित रहेगी?
या अनुरागी चित्त की गति समुझै नहिं कोई।
ज्यौं ज्यौं बूड़ै स्याम रँग, त्यौं त्यौं उज्जलु होई॥
मनुष्य के अनुरागी हृदय की वास्तविक गति और स्थिति को कोई भी नहीं समझ सकता है। जैसे-जैसे मन कृष्ण-भक्ति के रंग में डूबता जाता है, वैसे-वैसे वह अधिक उज्ज्वल से उज्ज्वलतर होता जाता है। यानी जैसे-जैसे व्यक्ति भक्ति के रंग में डूबता है वैसे-वैसे वह अपने समस्त दुर्गुणों से दूर होता जाता है।
मुकुत-हार हरि कै हियैं, मरकत मनिमय होत।
पुनि पावत रुचि राधिका, मुख मुसक्यानि उदोत॥
श्रीकृष्ण के हृदय पर पड़ा हुआ सफ़ेद मोतियों का हार भी उनके शरीर की श्याम कांति से मरकत मणि-नीलम-के हार के समान दिखाई देता है। किंतु राधा के मुख की मुस्कराहट की श्वेत-कांति से नीलम का-सा बना हुआ वह मोतियों का हार फिर श्वेत-वर्ण कांति वाला बन जाता है।
नीकी दई अनाकनी, फीकी परि गुहारि।
तज्यौ मनौ तारन-बिरदु, बारक बारनु तारि॥
हे नाथ, आपने तो मेरे प्रति पूर्ण उपेक्षा भाव अपना रखा है। इसका प्रमाण यह है कि मैं अपने उद्धार के लिए आपसे अनेक बार प्रार्थना कर चुका हूँ, किंतु मेरी प्रार्थना आपके कानों तक पहुँचती ही नहीं है। बिहारी यह उत्प्रेक्षा करते हैं कि भगवान ने एक बार हाथी का उद्धार किया, उसकी आर्त पुकार पर दौड़े चले गए। उसका उद्धार करने में वे इतना थक गए हैं कि अब उद्धारकर्ता कहलाने की प्रकृति को ही उन्होंने त्याग दिया है।
तुलसी हरि अपमान तें, होइ अकाज समाज।
राज करत रज मिलि गए, सदल सकुल कुरुराज॥
तुलसी कहते हैं कि श्री हरि का अपमान करने से हानियों का समाज जुट जाता है अर्थात् हानि-ही-हानि होती है। भगवान् श्री कृष्ण का अपमान करने से राज्य करते हुए कुरुराज दुर्योधन अपनी सेना और कुटुंब के सहित धूल में मिल गए।
तजि तीरथ, हरि-राधिका, तन-दुति करि अनुरागु।
जिहिं ब्रज-केलि-निकुंज-मग, पग-पग होत प्रयागु॥
कवि कह रहा है कि तू तीर्थ छोड़कर श्रीकृष्ण एवं राधिका की शारीरिक कांति के प्रति अपना अनुराग बढ़ा ले जिससे कि ब्रज के विहार निकुंजों के पथ में प्रत्येक पथ पर तीर्थराज प्रयाग बन जाता है। भाव यह है कि श्रीकृष्ण एवं राधा के प्रति भक्ति बढ़ाने से करोड़ों तीर्थराज जाने का फल प्राप्त होता है।
लोभ-लगे हरि-रूप के, करी साँटि जुरि, जाइ।
हौं इन बेची बीच हीं, लोइन बड़ी बलाइ॥
नायिका सखी से कहती है कि हे सखी, मेरे ये नेत्र एक दलदल की तरह हैं और इन्होंने मुझे बड़ी मुसीबत में डाल दिया है। मेरे ये नेत्र रूपी दलाल प्रियतम कृष्ण के सौंदर्य रूपी रुपए के लोभ में पड़कर उनसे साँठ-गाँठ कर बैठे हैं। इस प्रकार इन्होंने मुझे बीच में सौदा करके प्रिय को सौंप दिया है।
मोहन-मूरति स्याम की, अति अद्भुत गति जोइ।
बसतु सु चित-अंतर तऊ, प्रतिबिंबितु जग होइ॥
कृष्ण की मोहक छवि अत्यधिक अद्भुत गति वाली प्रतीत होती है। वे हृदय के भीतर निवास करते हुए भी सारे संसार में प्रतिबिंबित हैं। यहाँ वैचित्र्य यह है कि श्याम की मूर्ति हृदय में है, किंतु उसका प्रतिबिंब सारे संसार में दिखाई पड़ रहा है।
राधा हरि, हरि राधिका, बनि आए संकेत।
दंपति रति-बिपरीत-सुखु, सहज सुरतहूँ लेत॥
श्री राधा श्रीकृष्ण का रूप और कृष्ण राधाजी का रूप धारण कर मिलन-स्थल पर आ गए हैं। वे दोनों स्वाभाविक रति में निमग्न हैं, फिर भी विपरीत संभोग का आनंद ले रहे हैं। यहाँ विपरीत रति का आनंद स्वरूप-परिवर्तन के कारण कल्पित किया गया है।
मो उर में निज प्रेम अस, परिदृढ़ अचलित देहू।
जैसे लोटन-दीप सों, सरक न ढुरक सनेहु॥
हे श्रीकृष्ण! जेसे लौटन दीप से उलटा करने पर भी उसका तेल नहीं गिरता, (उसी तरह विपरीत परिस्थितियों एव प्रलोभनों में भी आपके प्रति मेरा प्रेम सदैव एक-सा बना रहे) ऐसा एकनिष्ठ प्रेम आप मेरे हृदय में दीजिए।
सुमन-बाटिका-बिपिन में, ह्वै हौं कब मैं फूल।
कोमल कर दोउ भावते, धरिहैं बीनि दुकूल॥
वह दिन कब आएगा जब मैं पुष्पवाटिकाओं अर्थात् फूलों की बग़ीची या बाग़ों में ऐसा फूल बन जाऊँगा जिसे चुन-चुनकर प्रियतम श्रीकृष्ण और राधिका अपने दुपट्टे में धर लिया करेगी।
कब हौं सेवा-कुंज में, ह्वै हौं स्याम तमाल।
लतिका कर गहि बिरमिहैं, ललित लड़ैतीलाल॥
मैं वृंदावन के सेवा-कुंज में कब ऐसा श्याम तमाल वृक्ष बन जाऊँगा जिसकी लताओं या शाखाओं को पकड़ कर प्रियतम श्रीकृष्ण विश्राम किया करेंगे।
लटकि लटकि लटकतु चलतु, डटतु मुकट की छाँह।
चटक-भर्यौ नटु मिलि गयौ, अटक-अटक-बट माँह॥
नायिका गोरस बेचने के लिए गई थी। मार्ग में उसे उसके प्रिय मिल गए। परिणामस्वरूप उसे लौटने में देर हो गई। वह अपने प्रेम को छिपाने के लिए विलंब के कारण की व्याख्या अपने ढंग से कर रही है। वह कह रही है कि हे सखी, मैं भूल-भुलैया वाले वन में भटक गई थी। मेरे साथ ऐसा पहले कभी नहीं हुआ, पर आज ऐसा हो गया। यह तो अच्छा हुआ कि उस वन में मुझे एक नट मिल गया। उसने मुझे सही मार्ग दिखला दिया। यदि वह न मिलता तो मेरे भटकने का क्या परिणाम होता, मैं नहीं जानती। विलंब होने का एक कारण यह भी था कि वह नट बड़ा छैला था। वह इठला-इठला कर, रुक-रुक कर अपने मुकुट की शोभा नदी और तालाबों में देखता हुआ चल रहा था।
दंपति चरण सरोज पै, जो अलि मन मंडराई।
तिहि के दासन दास कौ, रसनिधि अंग सुहाइ॥
श्री राधाकृष्ण के चरण-कमलों पर जिनका मनरूपी भ्रमर मँडराता रहता है, उनके दासों के भी दास की संगति मुझे बहुत सुहानी लगती है।
राधा मोहन-लाल को, जाहि न भावत नेह।
परियौ मुठी हज़ार दस, ताकी आँखिनि खेह॥
जिनको राधा और कृष्ण का प्रेम अच्छा नहीं लगता, उनकी आँखों में दस हज़ार मुट्ठी धूल पड़ जाए। भाव यह कि जो राधा-कृष्ण के प्रेम को बुरा समझते हैं, उन्हें लाख बार धिक्कार है।
त्राहि तीनि कह्यो द्रौपदी, तुलसी राज समाज।
प्रथम बढ़े पट तिय विकल, चहत चलित निज काज॥
तुलसी कहते हैं कि राजसभा में ( जब दुःशासन द्रौपदी का चीर खींचने लगा तब) द्रौपदी ने घबड़ा कर तीन बार 'त्राहि-त्राहि' पुकारा। पहली त्राहि कहते ही वस्त्र बढ़ गया, दूसरी में भगवान् व्याकुल हो उठे कि द्रौपदी को सताने वालों के लिए अब क्या किया जाए? (तीसरी में) चकित होकर अपने कार्य की इच्छा करने लगे (अर्थात् दुशासनादि के संहार का निश्चय कर लिया) अर्थात् भक्त की सच्चे मन से की हुई एक भी पुकार व्यर्थ नहीं जाती।
मोहि मोह तुम मोह को, मोह न मो कहुँ धारि।
मोहन मोह न वारियें, मोहनि मोह निवारि॥
मुझे केवल आपके मोह का मोह है, मेरे मोह को आप अपने अतिरिक्त और कहीं केंद्रित न कीजिए। हे मोहन! आप इसका निवारण भी न कीजिए। यदि करना ही है तो मेरे प्राणों का अंत कीजिए।
श्रवत रहत मन कौं सदा, मोहन-गुन अभिराम।
तातैं पायो रसिकनिधि, श्रवन सुहायौ नाम॥
इन कानों में श्रीकृष्ण के सुंदर गुण स्रवित होते रहते हैं। रसनिधि कहते हैं कि इसीलिए इनको ‘श्रवन’ जैसा सुंदर नाम प्राप्त हुआ है।
मिलिहैं कब अँग छार ह्वै, श्रीबन बीथिन धूरि।
परिहैं पद-पंकज जुगुल, मेरी जीवन-मूरि॥
मैं राख या धूल बनकर कब ब्रज के जीवन के मार्गों या पगडंडियों में जाऊँगा ताकि मेरे जीवनाधार श्री राधा-कृष्ण के चरण-कमल मुझ पर पड़ते रहें।
सभा सभासद निरखि पट, पकरि उठायो हाथ।
तुलसी कियो इगारहों, बसन बेस जदुनाथ॥
जिस समय द्रौपदी ने सभा और सभासदों की ओर देखकर (किसी से भी रक्षा की आशा न समझकर) एक हाथ से अपनी साड़ी को पकड़ा और दूसरे हाथ को ऊँचा करके भगवान् को पुकारा, तुलसी कहते हैं कि उसी समय यादवपति भगवान् श्री कृष्ण ने ग्यारहवाँ वस्त्रावतार धारण कर लिया (दस अवतार भगवान् के प्रसिद्ध हैं, यह ग्यारहवाँ हुआ)।
धनि गोपी धनि ग्वाल वे, धनि जसुदा धनि नंद।
जिनके मन आगे चलै, धायौ परमानंद॥
रसनिधि कहते हैं कि वे गोपी, ग्वाल, यशोदा और नंद बाबा धन्य हैं, जिनके मन के आगे आनंदकंद श्रीकृष्ण सदा दौड़ा करते थे।
अद्भुत गति यह रसिकनिधि, सरस प्रीत की बात।
आवत ही मन साँवरो, उर कौ तिमिर नसात॥
रसनिधि कहते हैं कि श्रीकृष्ण की रसभरी प्रीति की बड़ी अनोखी बात है कि मन में साँवले (काले रंग) के आते ही हृदय का अंधकार नष्ट हो जाता है। आश्चर्य यही है कि काली चीज़ के आने पर तो अंधेरा बढ़ना चाहिए, पर यहाँ पर तो वह अंधेरा काली वस्तु से नष्ट हो जाता है।
कब कालीदह-कूल की, ह्वै हौं त्रिबिधि समीर।
जुगुल अँग-अँग लागिहौं, उड़िहै नूतन चीर॥
यमुना के कालीदह नामक घाट के किनारे की शीतल, मंद, सुगंधित तीन प्रकार की वायु कब बन जाऊँगा। और वायु बनकर राधाकृष्ण के अंगों का इस प्रकार से कब स्पर्श करूँगा जिससे कि उनके नए वस्त्र उड़ने या लहराने लगें।
अनामिष नैन कहै न कछु, समुझै सुनै न कान।
निरखैं मोर पखानि कैं, भयो पखान समान॥
श्रीकृष्ण के मोरमुकुट को देखकर मैं इस प्रकार अपनी सुध-बुध खो बैठा और पत्थर के समान स्तब्ध हो गया कि टकटकी लगाए हुए जिन नेत्रों ने उस शोभा को देखा वे तो उसका वर्णन नहीं कर सकते और कान भी उसका वर्णन इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि उन्होंने देखा नहीं।
कदम-कुंज ह्वै हौं कबै, श्रीवृंदाबन माहिं।
ललितकिशोरी, लाड़िले, बिहरैंगे तिहिं छाहिं॥
ललितकिशोरी जी कहते हैं कि कब मैं श्री वृंदावन के कदंब कुंज में जाऊँगा जिनकी छाया में लाड़ले लाल श्रीकृष्ण विहार किया करते हैं।
तेरे घर विधि कौं दयौ, दयौ न कोऊ खात।
गोरस हित घर-घर लला, काहे फिरत ललात॥
घर-घर मक्खन चुराते हुए श्रीकृष्ण को रोकती हुई यशोदा कहती है कि हे लाल! हमारे घर भगवान का दिया बहुत कुछ है। हम किसी का दिया नहीं खाते। फिर तुम गोरस अर्थात दूध आदि के लिए घर-घर में क्यों ललचाते फिरते हो। तुम्हारे लिए यह उचित नहीं कि तुम दूध-दही के लिए दूसरों घर भटकते फिरो।
दिन में सुभग सरोज है, निसि में सुंदर इंदु।
द्यौस राति हूँ चारु अति, तेरो बदन गोबिंदु॥
कमल तो दिन में ही खिलता और सुंदर लगता है और चंद्रमा रात्रि ही को चमकता है। पर हे श्रीकृष्ण! तुम्हारा मुख दिन तथा रात्रि में भी दोनों ही समय सुशोभित होता रहता है। अर्थात् तुम्हारा मुख कमल एवं चंद्रमा दोनों से अधिक सुंदर है।
मुंज गुंज के हार उर, मुकुट मोर पर-पुंज।
कुंज बिहारी बिहरियै, मेरेई मन-कुंज॥
हृदय पर गुंजाओं की माला धारण किए हुए, मस्तक पर मोर के पंखों से सुशोभित मुकुट पहने हुए कुंज-बिहारी—कुंजों में विहार करने वाले हे श्रीकृष्ण! आप मेरे ही मनरूपी कुंजों में विहार कीजिए।
तेरी गति नँद लाड़ले, कछू न जानी जाइ।
रजहू तैं छोटो जु मन, तामैं बसियत आइ॥
हे नंदलाल! तुम्हारी गति का कुछ वर्णन नहीं किया जा सकता। चूँकि जो मन एक धूलि के कण से भी छोटा है, इतने छोटे से स्थान में भी जाकर तुम बस जाते हो।
कौन भाँति कै बरनियै, सुंदरता नंद नंद।
तेरे मुख की भीख लै, भयौ ज्योतिमय चंद॥
हे श्रीकृष्ण! तुम्हारी सुंदरता का हम किस प्रकार वर्णन करें। तुम्हारी ही भीख को पाकर मानो यह चंद्रमा प्रकाशमान हो गया है। चंद्रमा को भी मानो तुमने अपनी ही थोड़ी-सी कांति दे दी है जिससे यह चमक रहा है।
नेत नेत कहि निगम पुनि, जाहि सकै नहिं जान।
भयौ मनोहर आइ ब्रज, वही सो हरि हर आन॥
जिस ब्रह्म का वेदादि शास्त्र ‘नेति नेति’—‘कहीं आदि-अंत नहीं है’ ऐसा कहकर कुछ भी ज्ञान नहीं प्राप्त कर पाए, वही पूर्ण परब्रह्म भगवान विष्णु ब्रज में भगवान श्रीकृष्ण के मनोहर रूप में प्रकट हुए हैं।
मुरलीधर गिरिधरन प्रभु, पीतांबर घनस्याम।
बकी-बिदारन कंस-अरि, चीर-हरन अभिराम॥
श्रीकृष्ण वंशी बजाने वाले, गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले, पीतांबर पहनने वाले, घन के समान श्याम वर्ण वाले, बकासुर का नाश करने वाले, कंस को मारने वाले और यमुना में निर्वसन स्नान करती हुई गोपियों के वस्त्रों का हरण करने वाले परम सुंदर हैं।
जिन बारे नँदलाल पै, अपने मन धन ल्याइ।
उनके बारे की कछू, मोपै कही न जाइ॥
जिन लोगों ने अपने तन-मन-धन श्रीकृष्ण पर न्योछावर कर दिए हैं, उनकी इतनी बड़ी महिमा है कि उनके संबंध में मैं कुछ भी नहीं कह सकता।
पीत अँगुलिया पहिरि कै, लाल लकुटिया हाथ।
धूरि भरे खेलत रहैं, ब्रजबासिन ब्रजनाथ॥
श्रीकृष्ण गले में पीला झग्गा या कुर्ता पहन कर हाथ में लाल छड़ी पकड़ कर धूल से भरे हुए अपने ब्रजवासी सखाओं के साथ खेलते हुए शोभित होते थे।
कूल कलिंदी नीप तर, सोहत अति अभिराम।
यह छबि मेरे मन बसो, निसि दिन स्यामा स्याम॥
गोपिन केरे पुंज में, मधुर मुरलिका हाथ।
मूरतिवंत शृंगार-रस, जय-जय गोपीनाथ॥
मकराकृत कुंडल स्रवन, पीतवरन तन ईस।
सहित राधिका मो हृदय, बास करो गोपीस॥
हरि राधा राधा भई हरि, निसि दिन के ध्यान।
राधा मुख राधा लगी, रट कान्हर मुख कान॥
चित चिंता तजि, डारिकैं, भार, जगत के नेम।
रे मन, स्यामा-स्याम की, सरन गहौ करि प्रेम॥
वेद पुरान विरंचि सिव, महिमा कहत बिचारि।
ऐसे नंदकिसोर के, चरन कमल उरधारि॥
जिनके जाने जानिए, जुगुलचंद सुकुमार।
तिनकी पद-रज सीस धरि, 'ध्रुव' के यहै अधार॥
काया कुंज निकुंज मन, नैंन द्वार अभिराम।
‘भगवत' हृदय-सरोज सुख, विलसत स्यामा-स्याम॥
पीतपटी लपटाय कैं, लैं लकुटी अभिराम।
बसहु मंद मुसिक्याय उर, सगुन-रूप घनस्याम॥