व्यंग्य पर दोहे
व्यंग्य अभिव्यक्ति की
एक प्रमुख शैली है, जो अपने महीन आघात के साथ विषय के व्यापक विस्तार की क्षमता रखती है। काव्य ने भी इस शैली का बेहद सफल इस्तेमाल करते हुए समकालीन संवादों में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। इस चयन में व्यंग्य में व्यक्त कविताओं को शामिल किया गया है।
पलकु पीक, अंजनु अधर, धरे महावरु भाल।
आजु मिले, सु भली करी; भले बने हौ लाल॥
नायक के परस्त्रीरमण करने पर नायिका व्यंग्य का सहारा लेकर अपने क्रोध को व्यक्त करती है। वह कहती है कि हे प्रिंयतम, आपके पलकों में पीक, अधरों पर अंजन और मस्तक पर महावर शोभायमान है। आज बड़ा शुभ दिन है कि आपने दर्शन दे दिए। व्यंग्यार्थ यह है आज आप रंगे हाथों पकड़े गए हो। परस्त्रीरमण के सभी चिह्न स्पष्ट रूप से दिखलाई दे रहे हैं। पलकों में पर स्त्री के मुँह की पीक लगी हुई है, अधरों पर अंजन लगा है और मस्तक पर महावर है। ये सभी चिह्न यह प्रामाणित कर रहे हैं कि तुम किसी परकीया से रमण करके आए हो। स्पष्ट संकेत मिल रहा है कि उस परकीया ने पहले तो कामावेश में आकर तुम्हारे मुख का दंत लिया होगा, परिणामस्वरूप उसके मुख की पान की पीक तुम्हारे पलकों पर लग गई। जब प्रतिदान देना चाहा तो वह नायिका मानिनी हो गई। जब तुमने उसके अधरों का दंत लेना चाहा तो वह अपने को बचाने लगी। परिणामस्वरूप उसके नेत्रों से तुम्हारे अधर टकरा गए और उसकी आँखों का काजल तुम्हारे अधरों पर लग गया। अंत में उसे मनाने के लिए तुमने अपना मस्तक उसके चरणों पर रख दिया, इससे उसके पैरों का महावर आपके मस्तक पर लग गया है। इतने पर भी जब वह नहीं मानी तब आप वहाँ से चले आए और आपको मेरा याद आई। चलो,अच्छा हुआ इस बहाने ही सही, आपके दर्शन तो हो गए।
मरकत-भाजन-सलिल-गत, इंदुकला कैं बेख।
झींन झगा मैं झलमलै, स्याम गात नख-रेख॥
नायिका बड़े मधुर ढंग से व्यंग्यात्मक शैली में कहती है कि हे प्रिय, आपके झीने अर्थात् पतले वस्त्र में श्याम शरीर पर नख-क्षत दिखलाई दे रहे हैं। वे नख-क्षत ऐसे प्रतीत होते हैं मानों किसी जल से युक्त नीलम की थाली में चंद्रमा की कलाएँ शोभित हो रही हों।
थौरें ही गुन रीझते, बिसराई वह बानि।
तुमहूँ कान्ह, मनौ भए, आजकाल्हि के दानि॥
हे कृष्ण, आप पहले तो थोड़े-से ही गुणों पर रीझ जाया करते थे, किंतु अब लगता है कि आपने अपनी रीझने वाली आदत या तो विस्मृत कर दी है या छोड़ दी है। आपकी इस स्थिति को देखकर ऐसा आभासित होता है मानों आप भी आजकल के दाता बन गए हों।
आज-कालि के नौल कवि, सुठि सुंदर सुकुमार।
बूढ़े भूषण पै करैं, किमि कटाच्छ-मृदु-वार॥
जागत-सोवत, स्वप्नहूँ, चलत-फिरत दिन-रैन।
कुच-कटि पै लागे रहैं, इन कनीनु के नैन॥
जैहै डूबी घरीक में, भारत-सुकृत-समाज।
सुदृढ़ सौर्य-बल-बीर्य कौ, रह्यौ न आज जहाज॥
कमल-हार, झीने बसन, मधुर बेनु अब छाँड़ि।
मौलि-माल, बज्जर कवच, तुमुल-संख कवि, माँड़ि॥
अब नख-सिख-सिंगार में, कवि-जन! कछु रस नाहिं।
जूठन चाटत तुम तऊ, मिलि कूकर-कुल माहिं॥
तजि अजहूँ अभिसारिका, रतिगुप्तादिक, मन्द!
भजि भद्रा, जयदा सदा, शक्ति छाँड़ि जग-द्वन्द॥
नयन-बानही बान अब, भ्रुवही बंक कमान।
समर केलि बिपरीतही, मानत आजु प्रमान॥
निति-बिहूनो राज ज्यौं, सिसु ऊनो बिनु प्यार।
त्यौं अब कुच-कटि-कवित बिनु, सुनो कवि-दरबार॥
मरदाने के कवित ए, कहिहैं क्यों मति-मन्द।
बैठि जनाने पढ़त जे, नित नख-सिख के छंद॥
तिय-कटि-कृसता कौ कविनु, नित बखानु नव कीन।
वह तौ छीन भई नहीं, पै इनकी मति छीन॥
बरषत बिषम अँगार चहुँ, भयौ छार बर बाग।
कवि-कोकिल कुहकत तऊं, नव दंपति-रति-राग॥
मान छट्यौ, धन जन छुट्यौ, छुट्यौ राजहू आज।
पै मद-प्याली नहिं छुटी, बलि, बिलासि-सिरताज॥
निदरी प्रलय बाढ़त जहाँ, बिप्लव-बाढ़-बिलास।
टापतही रहि जात तहँ, टीप-टाप के दास॥
रही जाति जठरागि तें, भभरि भाजि अकुलाय।
तुम्हौं परी अभिसार की, अजहुँ हाय, रसराय॥
कहत अकथ कटि छीन कै, कनक-कूट कुच पीन।
छिन-पीन के बीच वै, भये आजु मति-हीन॥
जहँ नृत्यति नित चंडिका, तांडव-नृत्य प्रचंड।
सुमन-बान तहँ काम के, हेतु आपु सतखंड॥
उत गढ़-फाटक तोरि रिपु, दीनी लूट मचाय।
इत लंपट! पट तानि तें, पर्यौ तीय उर लाय॥
करत किधौं उपसाहु कै, ठकुरसुहाती आज।
कहा जानि या भीरू कों, कहत भीम, कविराज॥
उत रिपु लूटत राज, इत दोउ रति माहिं।
उन गर नाहिं नहिं छुटै, इन गर बाहीं नाहिं॥
बस, काढ़ौ मति म्यान तें, यह तीछन तरवार।
जानत नहिं, ठाढ़े यहाँ, रसिक छैल सुकुमार॥
सुख-संपति सब लुटी गयौ, भयौ देस-उर घाय।
कंकन-किंकिनी का अजौं, सुनत झनक कविराय!॥