दुरत न कुच बिच कंचुकी, चुपरी सारी सेत।
कवि-आँकनु के अरथ लौं, प्रगटि दिखाई देत॥
नायिका ने श्वेत रंग की साड़ी पहन रखी है। श्वेत साड़ी से उसके सभी अंग आवृत्त हैं। उस श्वेत साड़ी के नीचे वक्षस्थल पर उसने इत्र आदि से सुगंधित मटमैले रंग की कंचुकी धारण कर रखी है। इन दोनों वस्त्रों के बीच आवृत्त होने पर भी नायिका के स्तन सूक्ष्म दृष्टि वाले दर्शकों के लिए छिपे हुए नहीं रहते हैं। भाव यह है कि अंकुरित यौवना नायिका के स्तन श्वेत साड़ी में
छिपाए नहीं छिप रहे हैं। वे उसी प्रकार स्पष्ट हो रहे हैं जिस प्रकार किसी कवि के अक्षरों का अर्थ प्रकट होता रहता है। वास्तव में कवि के अक्षरों में अर्थ भी स्थूलत: आवृत्त किंतु सूक्ष्म दृष्टि के लिए प्रकट रहता है।
रूप, कथा, पद, चारु पट, कंचन, दोहा, लाल।
ज्यों ज्यों निरखत सूक्ष्मगति, मोल रहीम बिसाल॥
रहीम कहते हैं कि किसी की रूप-माधुरी, कथा का कथानक, कविता, चारु पट, सोना, छंद और मोती-माणिक्य का ज्यों-ज्यों सूक्ष्म अवलोकन करते हैं तो इनकी ख़ूबियाँ बढ़ती जाती है। यानी इन सब की परख के लिए पारखी नज़र चाहिए।
सरस काव्य रचना रचौं, खलजन सुनिन हसंत।
जैसे सिंधुर देखि मग, स्वान सुभाव भुसंत॥
मैं महाकाव्य की रचना कर रहा हूँ। इस रचना को सुनकर दुष्ट लोग तो वैसे ही हँसेंगे जैसे हाथी को देखकर कुत्ते (मार्ग में) स्वभाव से ही भौंकने लगते हैं।
तौ पुनि सुजन निमित्त गुन, रचिए तन मन फूल।
जूँ का भय जिय जानिकै, क्यों डारिए दुकूल॥
सज्जन पुरुष तो इसके गुणों के कारण इस रचना से प्रसन्न ही होंगे जैसे कोई इस भय से कि इसमें जूँएँ न पड़ जाएँ, दुपट्टे को फेंक थोड़े ही देता है। जैसे जूँओं के भय से कोई दुपट्टा नहीं फेंक देता वैसे ही दुष्ट लोगों के परिहास के भय से कवि काव्य-रचना से विमुख नहीं हो सकता।
बानी जू के बरन जुग सुबरनकन परमान।
सुकवि! सुमुख कुरुखेत परि हात सुमेर समान॥
चरण धरत चिंता करत, नींद न भावत शोर।
सुबरण को सोधत फिरत, कवि व्यभिचारी चोर॥
राजत रंच न दोष युत कविता बनिता मित्र।
बुंदक हाला परत ज्यों गंगाघट अपवित्र॥
निति-बिहूनो राज ज्यौं, सिसु ऊनो बिनु प्यार।
त्यौं अब कुच-कटि-कवित बिनु, सुनो कवि-दरबार॥
अब कविता को समय नहिं, निरखहु आँख उघारि।
मिलि-मिलि कर सीखो कला, आपन भला विचारि॥