दुरत न कुच बिच कंचुकी, चुपरी सारी सेत।
कवि-आँकनु के अरथ लौं, प्रगटि दिखाई देत॥
नायिका ने श्वेत रंग की साड़ी पहन रखी है। श्वेत साड़ी से उसके सभी अंग आवृत्त हैं। उस श्वेत साड़ी के नीचे वक्षस्थल पर उसने इत्र आदि से सुगंधित मटमैले रंग की कंचुकी धारण कर रखी है। इन दोनों वस्त्रों के बीच आवृत्त होने पर भी नायिका के स्तन सूक्ष्म दृष्टि वाले दर्शकों के लिए छिपे हुए नहीं रहते हैं। भाव यह है कि अंकुरित यौवना नायिका के स्तन श्वेत साड़ी में
छिपाए नहीं छिप रहे हैं। वे उसी प्रकार स्पष्ट हो रहे हैं जिस प्रकार किसी कवि के अक्षरों का अर्थ प्रकट होता रहता है। वास्तव में कवि के अक्षरों में अर्थ भी स्थूलत: आवृत्त किंतु सूक्ष्म दृष्टि के लिए प्रकट रहता है।
चरण धरत चिंता करत, नींद न भावत शोर।
सुबरण को सोधत फिरत, कवि व्यभिचारी चोर॥
तजि अजहूँ अभिसारिका, रतिगुप्तादिक, मन्द!
भजि भद्रा, जयदा सदा, शक्ति छाँड़ि जग-द्वन्द॥
कमल-हार, झीने बसन, मधुर बेनु अब छाँड़ि।
मौलि-माल, बज्जर कवच, तुमुल-संख कवि, माँड़ि॥
अब नख-सिख-सिंगार में, कवि-जन! कछु रस नाहिं।
जूठन चाटत तुम तऊ, मिलि कूकर-कुल माहिं॥
जागत-सोवत, स्वप्नहूँ, चलत-फिरत दिन-रैन।
कुच-कटि पै लागे रहैं, इन कनीनु के नैन॥
आज-कालि के नौल कवि, सुठि सुंदर सुकुमार।
बूढ़े भूषण पै करैं, किमि कटाच्छ-मृदु-वार॥
नयन-बानही बान अब, भ्रुवही बंक कमान।
समर केलि बिपरीतही, मानत आजु प्रमान॥
मरदाने के कवित ए, कहिहैं क्यों मति-मन्द।
बैठि जनाने पढ़त जे, नित नख-सिख के छंद॥
तिय-कटि-कृसता कौ कविनु, नित बखानु नव कीन।
वह तौ छीन भई नहीं, पै इनकी मति छीन॥
बरषत बिषम अँगार चहुँ, भयौ छार बर बाग।
कवि-कोकिल कुहकत तऊं, नव दंपति-रति-राग॥
कहत अकथ कटि छीन कै, कनक-कूट कुच पीन।
छिन-पीन के बीच वै, भये आजु मति-हीन॥
करत किधौं उपसाहु कै, ठकुरसुहाती आज।
कहा जानि या भीरू कों, कहत भीम, कविराज॥
निदरी प्रलय बाढ़त जहाँ, बिप्लव-बाढ़-बिलास।
टापतही रहि जात तहँ, टीप-टाप के दास॥
सुख-संपति सब लुटी गयौ, भयौ देस-उर घाय।
कंकन-किंकिनी का अजौं, सुनत झनक कविराय!॥
लै बल-बिक्रम-बीन, कवि! किन छेड़त वह तान।
उठै डोलि जेहिं सुनत हीं धरा, मेरू, ससि, भान॥