सौंदर्य पर दोहे
सौंदर्य सुंदर होने की
अवस्था या भाव है, जो आनंद और संतोष की अनुभूति प्रदान करता है। सौंदर्य के मानक देश, काल, विषय और प्रसंग में बदलते रहते हैं। प्रस्तुत चयन में उन कविताओं को शामिल किया गया है; जिनमें सुंदरता शब्द, भाव और प्रसंग में प्रमुखता से उपस्थित है।
दुरत न कुच बिच कंचुकी, चुपरी सारी सेत।
कवि-आँकनु के अरथ लौं, प्रगटि दिखाई देत॥
नायिका ने श्वेत रंग की साड़ी पहन रखी है। श्वेत साड़ी से उसके सभी अंग आवृत्त हैं। उस श्वेत साड़ी के नीचे वक्षस्थल पर उसने इत्र आदि से सुगंधित मटमैले रंग की कंचुकी धारण कर रखी है। इन दोनों वस्त्रों के बीच आवृत्त होने पर भी नायिका के स्तन सूक्ष्म दृष्टि वाले दर्शकों के लिए छिपे हुए नहीं रहते हैं। भाव यह है कि अंकुरित यौवना नायिका के स्तन श्वेत साड़ी में
छिपाए नहीं छिप रहे हैं। वे उसी प्रकार स्पष्ट हो रहे हैं जिस प्रकार किसी कवि के अक्षरों का अर्थ प्रकट होता रहता है। वास्तव में कवि के अक्षरों में अर्थ भी स्थूलत: आवृत्त किंतु सूक्ष्म दृष्टि के लिए प्रकट रहता है।
रूप, कथा, पद, चारु पट, कंचन, दोहा, लाल।
ज्यों ज्यों निरखत सूक्ष्मगति, मोल रहीम बिसाल॥
रहीम कहते हैं कि किसी की रूप-माधुरी, कथा का कथानक, कविता, चारु पट, सोना, छंद और मोती-माणिक्य का ज्यों-ज्यों सूक्ष्म अवलोकन करते हैं तो इनकी ख़ूबियाँ बढ़ती जाती है। यानी इन सब की परख के लिए पारखी नज़र चाहिए।
गज बर कुंभहिं देखि तनु, कृशित होत मृगराज।
चंद लखत बिकसत कमल, कह जमाल किहि काज॥
हाथी के कुंभस्थल को देखकर, सिंह दुबला क्यों हो रहा है? और चंद्रमा को देखकर कमल क्यों विकासत हो रहा है? इन विपरीत कार्यों का क्या कारण है? अभिप्राय यह है कि नायिका के हाथी के कुंभस्थल समान स्तनों को बढ़ते देखकर सिंह अर्थात् कटि प्रदेश दुबला हो गया है। नायिका के चंद्रमुख को देखकर, नायक के कमल रूपी नेत्र विकसित हो जाते हैं।
भई जु छवि तन बसन मिलि, बरनि सकैं सुन बैन।
आँग-ओप आँगी दुरी, आँगी आँग दुरै न॥
नायिका न केवल रंग-रूप में सुंदर है अपितु उसके स्तन भी उभार पर हैं। वह चंपकवर्णी पद्मिनी नारी है। उसने अपने रंग के अनुरूप ही हल्के पीले रंग के वस्त्र पहन रखे हैं। परिणामस्वरूप उसके शरीर के रंग में वस्त्रों का रंग ऐसा मिल गया है कि दोनों के बीच कोई अंतर नहीं दिखाई देता है। अर्थात् नायिका के शरीर की शोभा से उसकी अंगिया छिप गई है, किंतु अंगिया के भीतर उरोज नहीं छिप पा रहे हैं। व्यंजना यह है कि नायिका ऐसे वस्त्र पहने हुए है कि उसके स्तनों का सौंदर्य न केवल उजागर हो रहा है, अपितु अत्यंत आकर्षक भी प्रतीत हो रहा है।
जटित नीलमनि जगमगति, सींक सुहाई नाँक।
मनौ अली चंपक-कली, बसि रसु लेतु निसाँक॥
नायिका की नाक पर नीलम जड़ी हुई लोंग को देखकर नायक कहता है कि नायिका की सुहावनी नाक पर नीलम जटित सुंदर लोंग जगमगाती हुई इस प्रकार शोभायमान हो रही है मानों चंपा की कली पर बैठा हुआ भौंरा निःशंक होकर रसपान कर रहा हो।
सायक-सम मायक नयन, रँगे त्रिबिध रंग गात।
झखौ बिलखि दुरि जात जल, लखि जलजात लजात॥
कवि कह रहा है कि नायिका की आँखें ऐसी हैं कि मछलियाँ भी उन्हें देखकर पानी में छिप जाती हैं, कमल लजा जाते हैं। नायिका के मादक और जादुई नेत्रों के प्रभाव से कमल और मछलियाँ लज्जित हो जाती हैं। कारण, नायिका के नेत्र संध्या के समान हैं और तीन रंगों—श्वेत, श्याम और रतनार से रँगे हुए हैं। यही कारण है कि उन्हें देखकर मछली दु:खी होकर पानी में छिप जाती है और कमल लज्जित होकर अपनी पंखुड़ियों को समेट लेता है। सांध्यवेला में श्वेत, श्याम और लाल तीनों रंग होते हैं और नायिका के नेत्रों में भी ये तीनों ही रंग हैं। निराशा के कारण वे श्याम हैं, प्रतीक्षा के कारण पीले या श्वेत हैं और मिलनातुरता के कारण लाल या अनुरागयुक्त हो रहे हैं।
तेरी मुख-समता करी, साहस करि निरसंक।
धूरि परी अरबिंद मुख, चंदहि लग्यौ कलंक॥
हे राधिके, कमल और चंद्रमा ने तुम्हारे मुख की समता करने का साहस किया, इसलिए मानो कमल के मुख पर तो पुष्परज के कण रूप में धूल पड़ गई, और चंद्रमा को कलंक लग गया। यद्यपि कमल में पराग और चाँद में कलंक स्वाभाविक है तथापि उसका यहाँ एक दूसरा कारण राधा के मुख की समता बताया गया है।
हा हा! बदनु उघारि, दृग सफल करैं सबु कोइ।
रोज सरोजनु कैं परै, हँसी ससी की होइ॥
सखी कहती है कि हे प्रिय सखी! हमारे नेत्र कितनी देर से व्याकुल हैं। मैं हा-हा खा रही हूँ कि तू अपने मुख से घूँघट हटा ले ताकि हमारी व्याकुलता शांत हो और तेरे सुंदर मुख के दर्शन हों। जब तू अपने मुख को अनावृत्त कर लेगी, तो अपनी पराजय में कमल साश्रु हो जाएँगे और मुख के ढके रहने पर इठलाने वाला यह चंद्रमा पूर्णतः उपहास का पात्र बन जाएगा।
स्याम पूतरी, सेत हर, अरुण ब्रह्म चख लाल।
तीनों देवन बस करे, क्यौं मन रहै जमाल॥
हे प्रिय, तुम्हारे नयनों ने तीनों देवताओं को जब वश में कर लिया है, तब मेरा मन क्यों न तुम्हारे वश हो जाएगा? नेत्रों की श्याम पुतली ने विष्णु को, श्वेत कोयों ने शिव को और अरुणाई ने ब्रह्मा को मोह लिया है।
तरिवन-कनकु कपोल-दुति, बिच बीच हीं बिकान।
लाल लाल चमकति चुनीं, चौका-चिह्न-समान॥
एक सखी नायिका से कह रही है कि तेरे तरौने अर्थात् कर्णाभूषण का सोना तो तेरे कपोलों की कांति में विलीन हो गया है, किंतु उसमें लगी हुई लाल-लाल चुन्नियाँ अर्थात् माणिक्य दाँतों के चिह्न के समान चमक रही है। वास्तव में नायिका के कपोलों का वर्ण सुनहरा है। अतः सोने का बना हुआ ताटंक गालों की सुनहली कांति में खो जाता है। हाँ, ताटंक में लगी हुई लाल-लाल चुन्नियाँ अवश्य दिखाई पड़ती हैं। वे ऐसी लगती हैं, मानो नायिका के कपोलों में नायक द्वारा लगाए गए दाँतों के चिह्न हों।
सहज सचिक्कन, स्याम रुचि, सुचि, सुगंध, सुकुमार।
गनतु न मनु पथु अपथु, लखि बिथुरे सुथरे बार॥
नायक जिस नायिका पर अनुरक्त है, वह उसके लिए धर्म-दृष्टि से ग्राह्य नहीं है, किंतु, नायक नायिका के श्याम और सहज रूप से दिखने वाले बालों पर ही रीझ गया है। नायक कह रहा है कि उस नायिका के सहज स्निग्ध श्याम वर्ण के पावन और स्वच्छ सुगंधित बाल मुझे आकर्षित करते रहते हैं। उसके बालों की शोभा देखकर मेरा मन परवश और चंचल हो जाता है। अत: वह यह नहीं निर्णय कर पाता है कि उस सुंदर सहज ढंग से सँवारे हुए बालों वाली नायिका से प्रेम करना उचित है अथवा अनुचित है।
ओ गोरी-मुह-निज्जिअउ बद्दलि लुक्कु मियंकु।
अन्नु वि जो परिहविय-तणु सो किवँ भवइँ निसंकु॥
ओ देख! गोरी के मुँह (की सुंदरता) से पराजित होकर चंद्रमा बादल में छिप गया। और जो कोई हारे हुए तन वाला है वह निःशंक कैसे भ्रमण कर सकता है!
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संबंधित विषय : मणिपुरी कविता
सुबरन बेलि तमाल सौं, घन सौं दामिनी देह।
तूँ राजति घनस्याम सौं, राधे सरिस सनेह॥
सोने की बेल तमाल वृक्ष से और बादल से बिजली का शरीर जिस प्रकार शोभित होता है, हे राधिका! सदृश स्नेह के कारण तू वैसे ही घनश्याम से शोभित होती है। भाव यह है कि तमाल वृक्ष, बादल और कृष्ण, इन तीनों श्याम वर्ण वालों से स्वर्णलता, बिजली और राधिका ये तीनों गौर वर्ण वाली अत्यंत सुशोभित होती हैं।
जुवति जोन्ह मैं मिलि गई, नैंक न होति लखाइ।
सौंधे कैं डोरैं लगी अली, चली सँग जाइ॥
अभिसार के लिए एक नायिका अपनी सखी के साथ चाँदनी रात में जा रही है। आसमान से चाँदनी की वर्षा हो रही है और धरती पर नायिका के शरीर का रंग भी चाँदनी की तरह उज्ज्वल और गोरा है। ऐसी स्थिति में नायिका का शरीर चाँदनी में लीन हो गया है। सखी विस्मय में पड़ गई है कि नायिका कहाँ है? ऐसी स्थिति में वह केवल नायिका के शरीर की गंध के सहारे आगे बढ़ती जा रही है। इसी स्थिति का वर्णन करते हुए बिहारी कह रहे हैं कि नायिका अपने गौर और स्वच्छ वर्ण के कारण चाँदनी में विलीन हो गई है। उसका स्वतंत्र और पृथक् अस्तित्व दिखलाई नहीं दे रहा है। यही कारण है कि उसके साथ चलने वाली सखी नायिका के शरीर से आने वाली पद्म गंध का सहारा लेकर साथ-साथ चली जा रही है।
जमला एक परब्ब छवि, चंद मधे विविचंद।
ता मध्ये होय नीकसे, केहर चढ़े गयंद॥
एक अवसर पर यह दिखाई पड़ा कि चाँद के बीच दो चाँद हैं और इसी बीच हाथी पर चढ़ा हुआ एक सिंह निकला। गूढ़ अभिप्राय यह है कि नायिका के चंद्र-मुख पर जो दो नेत्र शोभित हैं, उनमें नायक के चंद्र-मुख का प्रतिबिंब पड़ रहा है । इस प्रकार नायिका के चंद्र-मुख में दो चंद्र और दीख पड़े। नायिका वहाँ से हटी तो हाथी के समान उसकी जाँघों पर सिंह की-सी पतली कमर को देखकर कवि ने इस दृश्य को गूढ़ार्थ में अंकित किया।
राते पट बिच कुच-कलस, लसत मनोहर आब।
भरे गुलाब सराब सौं, मनौ मनोज नबाब॥
कठिन उठाये सीस इन, उरजन जोबन साथ।
हाथ लगाये सबन को, लगे न काहू हाथ॥
पत्रा ही तिथि पाइयै, वा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पून्यौईं रहै, आनन-ओप-उजास॥
उस नायिका के घर के चारों ओर इतना प्रकाश रहता है कि केवल पंचांग की सहायता से ही तिथि का पता लग सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि नायिका का मुख पूर्णिमा के चंद्रमा के समान सुंदर है। इसलिए नायिका के घर के चारों ओर हमेशा पूर्णिमा ही बनी रहती है, परिणामस्वरूप तिथि की जानकारी ही नहीं हो पाती है। यदि कोई तिथि जानना चाहता है तो उसके लिए उसे पंचांग से ही सहायता लेनी पड़ती है।
नील वसन दरसत दुरत, गोरी गोरे गात।
मनौ घटा छन रुचि छटा, घन उघरत छपि जात॥
लई सुधा सब छीनि विधि, तुव मुख रचिवे काज।
सो अब याही सोच सखि, छीन होत दुजराज॥
ऐसी आजु कहा भई, मो गति पलटे हाल।
जंघ जुगल थहरत चलत, डरति बिसूरति बाल॥
कहँ मिसरी कहँ ऊख रस, नहीं पियूष समान।
कलाकंद-कतरा कहा, तुव अधरा-रस-पान॥
कुंभ उच्च कुच सिव बने, मुक्तमाल सिर गंग।
नखछत ससि सोहै खरो, भस्म खौरि भरि अंग॥
सुनियत कटि सुच्छम निपट, निकट न देखत नैन।
देह भए यों जानिये, ज्यों रसना में बैन॥
कुच-गिरि चढ़ि अति थकित है, चली डीठि मुँह-चाड़।
फिरि न टरी, परियै रही, गिरी चिबुक की गाड़॥
नायिका की चिबुक अर्थात् ठोढ़ी के सौंदर्य पर आसक्त नायक स्वगत कह रहा है कि मेरी दृष्टि नायिका के स्तन-पर्वतों पर चढ़कर उसकी शोभा पर मुग्ध होकर उसकी मुख-छवि को देखने के लिए जैसे ही मुख की ओर बढ़ी, वैसे ही वह वहाँ अर्थात् मुख-सौंदर्य का पान करने के लिए, पहुँचने से पूर्व ही चिबुक के गर्त में गिर गई। भाव यह है कि नायिका की मुख छवि देखने से पूर्व ही नायक नायिका के चिबुक-सौंदर्य पर रीझ गया।
तरल तरौना पर लसत, बिथुरे सुथरे केस।
मनौ सघन तमतौम नै, लीनो दाब दिनेस॥
तन सुबरन के कसत यो, लसत पूतरी स्याम।
मनौ नगीना फटिक में, जरी कसौटी काम॥
मुग्धा तन त्रिबली बनी, रोमावलि के संग।
डोरी गहि बैरी मनौ, अब ही चढ़यो अनंग॥
उठि जोबन में तुव कुचन, मों मन मार्यो धाय।
एक पंथ दुई ठगन ते, कैसे कै बिच जाय॥
दाग सीतला को नहीं, मृदुल कपोलन चारु।
चिह्न देखियत ईठ की, परी दीठ के भारु॥
तुव पग तल मृदुता चितैं, कवि बरनत सकुचाहिं।
मन में आवत जीभ लों, मत छाले पर जाहिं॥
तेरस दुतिया दुहुन मिलि, एक रूप निज ठानि।
भोर साँझ गहि अरुनई, भए अधर तुब आनि॥
सेत कंचुकी कुचन पै, लसत मिही चित चोर।
सोहत सुरसरि धार जनु, गिरि सुमेर जुग और॥
मोरि-मोरि मुख लेत है, नहिं हेरत इहि ओर।
कुच कठोर उर पर बसत, तातै हियो कठोर॥
ससि सौं अति सुंदर न मुष, अंग न सुंदर जान।
त प्रीतम रहे बस भयौ, ऐसो प्रेम प्रधान॥
अति सुढार अति ही बड़े, पानिप भरे अनूप।
नाक मुकत नैनानि सौं, होड़ परि इहिं रूप॥
इस सुंदरी के नाक के आभूषण के मोती और नैनों में मानो होड़-सी लग गई है, क्योंकि दोनों ही सुंदर, अनुपम और कांति से परिपूर्ण हैं। मोती भी सुंदर है आँखें भी। मोती भी सुडौल है, आँखें भी वैसी ही हैं। अत: मानों दोनों में होड़-सी लगी है कि कौन किस से सुंदर है।
तिय निहात जल अलक ते, चुवत नयन की कोर।
मनु खंजन मुख देत अहि, अमृत पोंछि निचोर॥
ऐसे बड़े बिहार सों, भागनि बचि-बचि जाय।
सोभा ही के भार सों, बलि कटि लचि-लचि जाय॥
अंग-अंग-नग जगमगत दीप-सिखा सी देह।
दिया बढाऐं हूँ रहै बड़ौ उज्यारौ गेह॥
दूती नायक से कह रही है कि देखो, नायिका की देह आभूषणों में जड़े हुए नगों से दीप-शिखा के समान दीपित हो रही है। घर में यदि दीपक बुझा दिया जाता है तब भी उस नायिका के रूप के प्रभाव से चारों ओर प्रकाश बना रहता है। दूती ने यहाँ नायिका के वर्ण-सौंदर्य के साथ-साथ उसके व्यक्तित्व में उदित होने वाली शोभा, दीप्ति और कांति आदि की अतिशयता को भी व्यक्त कर दिया है।
झलकनि अधरनि अरुन मैं, दसननि की यौं होति।
हरि सुरंग घन बीच ज्यौं, दमकति दामिनि जोति॥
अपने अँग के जानि कै जोबन-नृपति प्रवीन।
स्तन, मन, नैन, नितंब कौ बड़ौ इजाफा कीन॥
यौवन रूपी प्रवीण राजा ने नायिका के चार अंगों पर अपना अधिकार कर लिया है। उन अंगों को अपना मानते हुए अपनी सेना के चार अंग स्वीकार कर उनकी वृद्धि कर दी है। ऐसा उसने इसलिए किया है कि वे सभी अंग उसके वश में रहे। ये चार अंग यौवन रूपी राजा की चतुरंगिणी सेना के प्रतीक हैं। ये अंग हैं−स्तन, मन, नेत्र और नितंब। स्वाभाविक बात यह है कि जब यौवनागम होता है तब स्वाभाविक रूप से शरीर के इन अंगों में वृद्धि होती है। जिस प्रकार कोई राजा अपने सहायकों को अपना मानकर उनकी पदोन्नति कर देता है, उसी प्रकार यौवनरूपी राजा ने स्तन, मन, नेत्र और नितंब को अपना मान लिया है या अपना पक्षधर या अपने ही अंग मानते हुए इनमें स्वाभाविक वृद्धि कर दी है।
झीनें अंबर झलमलति, उरजनि-छबि छितराइ।
रजत-रजनि जुग चंद-दुति, अंबर तें छिति छाइ॥
कढ़ि सर तें द्रुत दै गई, दृगनि देह-दुति चौंध।
बरसत बादर-बीच जनु, गई बीजुरी कौंध॥
लोललोचनी कंठ लखि, संख समुद के सोत।
अरु उड़ि कानन कों गए, केकी गोल कपोत॥
सोनजुही सी जगमगति, अँग-अँग जोबन-जोति।
सु-रंग, कसूँभी कंचुकी, दुरँग देह-दुति होति॥
नायिका के अंग-अंग में यौवन की झलक पीली जुही के समान जगमगा रही है। वास्तव में यौवन की ज्योति सोनजुही ही है। अत: कुसुंभ के रंग से रँगी हुई उसकी लाल चुनरी उसके शरीर की पीत आभा से दुरंगी हो जाती है। भाव यह है कि लाल और पीत मिश्रित आभा ही दिखाई दे रही है।