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केश पर दोहे

अरुन नयन खंडित अधर, खुले केस अलसाति।

देखि परी पति पास तें, आवति बधू लजाति॥

कृपाराम

सहज सचिक्कन, स्याम रुचि, सुचि, सुगंध, सुकुमार।

गनतु मनु पथु अपथु, लखि बिथुरे सुथरे बार॥

नायक जिस नायिका पर अनुरक्त है, वह उसके लिए धर्म-दृष्टि से ग्राह्य नहीं है, किंतु, नायक नायिका के श्याम और सहज रूप से दिखने वाले बालों पर ही रीझ गया है। नायक कह रहा है कि उस नायिका के सहज स्निग्ध श्याम वर्ण के पावन और स्वच्छ सुगंधित बाल मुझे आकर्षित करते रहते हैं। उसके बालों की शोभा देखकर मेरा मन परवश और चंचल हो जाता है। अत: वह यह नहीं निर्णय कर पाता है कि उस सुंदर सहज ढंग से सँवारे हुए बालों वाली नायिका से प्रेम करना उचित है अथवा अनुचित है।

बिहारी

तरल तरौना पर लसत, बिथुरे सुथरे केस।

मनौ सघन तमतौम नै, लीनो दाब दिनेस॥

विक्रम

तिय निहात जल अलक ते, चुवत नयन की कोर।

मनु खंजन मुख देत अहि, अमृत पोंछि निचोर॥

मुबारक

कंज-नयनि मंजनु किए, बैठी व्यौरति बार।

कच-अंगुरी-बिच दीठि दै, चितवति नंदकुमार॥

खंजन पक्षी के समान सुंदर नेत्रों वाली नायिका स्नान के पश्चात् बैठकर अपने बालों को सुलझा रही है और सुखा भी रही है। बालों को सुखाने और सुलझाने के लिए वह उनमें अपनी अंगुलियाँ फँसा देती है और उसके बीच में से बड़ी कुशलता से अपने प्रिय नायक को भी देख लेती है। स्पष्ट शब्दों में कह सकते हैं कि बाल सँवारते और सुखाते समय वे प्रायः मुख पर जाते हैं जिससे देखने में बाधा उत्पन्न होती है। नायिका ने जैसे ही अपने बाल सुखाना शुरू किया वैसे ही वहाँ नायक गया और वह उसे देखने का लोभ नहीं छोड़ सकी। अतः उसने बड़ी कुशलता से अंगुलियों के द्वारा बालों के बीच में झरोखा बना लिया और उसी से नायक को देखने लगी।

बिहारी

स्रवन छाँड़ि, अधरन लगे, ये अलकन के बाल।

काम डसनि नागनि जहीं, निकसे नाहिं जमाल॥

घुंघराले बाल कानों के निकट रहकर (आगे की ओर आकर) अधरों को छू रहे हैं। यह काकपक्ष की लटें नागिन की भाँति डसकर विकार उत्पन्न कर रही हैं और यह विष शरीर के बाहर निकाला नहीं जा सकता।

जमाल

जमला ऐसी प्रीत कर, जैसी केस कराय।

कै काला कै ऊजला, जब तब सिर सूं जाय॥

प्रीत तो ऐसी करो जैसी कि सिर के केश करते हैं। वे अपने मान को नहीं छोड़ते शिर के साथ उत्पन्न होते हैं, चाहे काले चाहे जले भले हो जायँ, पर जब तक सिर रहता है तब तक उसके साथ रहते हैं।

जमाल

तिय नहात जल अलक ते चुअत नयन की कोर।

मनु खंजन मुख देत अहि अमृत पोंछि निचोर॥

मुबारक

झुकति पलक झूमति चलति,अलक छुटी सुखदानि।

नहिं बिसरै हिय में बसी, वा अलसौहीं बानि॥

भूपति

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