होंठ पर दोहे
प्रेम और शृंगार की अभिव्यक्तियों
में कवियों का ध्यान प्रमुखता से होंठों पर भी रहा है। होंठों की सुंदरता और मुद्राएँ कवियों का मन मोह लेती हैं। प्रस्तुत चयन में होंठ को साध्य-साधन रखती कविताओं को शामिल किया गया है।
नैन सलोने अधर मधु, कहि रहीम घटि कौन।
मीठो भावै लोन पर, अरु मीठे पर लौन॥
रहीम कहते हैं कि नायिका की आँखें सलोनी (नमकीन) हैं और होंठ मधुर हैं। दोनों में कोई किसी से कमतर नहीं बल्कि दोनों ही शोभादायक हैं। मीठे (अधरों) पर नमकीन (नयन) प्रीतिकर है और नमकीन (नयनों) पर (अधरों की) मिठास।
अरुन नयन खंडित अधर, खुले केस अलसाति।
देखि परी पति पास तें, आवति बधू लजाति॥
कहँ मिसरी कहँ ऊख रस, नहीं पियूष समान।
कलाकंद-कतरा कहा, तुव अधरा-रस-पान॥
प्रीतम नहिं कछु लखि सक्यो, आलि कही तिय कान।
नथ उतारि धरि नाक तं, कह जमाल का जान॥
सखी ने नायिका के कान में जो कहा, उसको प्रिय न जान सका । नायिका ने अपने नाक की नथ को क्यों खोल दिया ? अभिप्राय यह है कि नायिका के अधरों पर नथ को झूलते देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो अधर रस की रक्षा के लिए ताला लगा हो। नथ अधर रस के पान में बाधक है, ऐसा भ्रम नायक को होते देखकर सखी ने नायिका से नथ हटा देने को कहा।
झलकनि अधरनि अरुन मैं, दसननि की यौं होति।
हरि सुरंग घन बीच ज्यौं, दमकति दामिनि जोति॥
कटि सों मद रति बेनि अलि, चखसि बड़ाई धारि।
कुच से बच अखि ओठ भों, मग गति मतिहि बिसारि॥
हे सखी! यदि तू अपने प्रिय से मान करती है तो अपनी कटि के समान क्षीण (मान) कर, यदि प्रीति करती है तो अपनी चोटी के समान दीर्घ (प्रीति) कर, अगर बड़प्पन धारण करती है तो अपने नेत्रों-सा विशाल कर। पर अपने कुचों के समान कठोर (वचन), ओठों के समान नेत्रों की ललाई (क्रोध), भृकुटी के समान कुटिल (मार्ग पर गमन) और अपनी गति के समान (चंचल) मति को सदा के लिए त्याग दे।
बेसरि-मोती-हुति-झलक परी ओठ पर आइ।
चूनौ होइ न चतुर तिय, क्यों पट-पोछयों जाइ॥
नाक में पहने गए बेसर में गुँथे मोतियों की सफ़ेद झलक ओठों पर पड़ रही है। नायिका उसे चूने का दाग़ समझकर दर्पण में देखकर छुड़ाना चाहती है। सखी कहती है कि हे चतुर सखी, यह चूना नहीं है। यह तो तेरे ओंठ पर मोती की द्युति आकर पड़ी है। अतः यह वस्त्र से पोंछने से क्योंकर जा सकती है? अर्थात् वस्त्र से छुड़ाने पर वह नहीं छूटेगी।
बिम्बाहरि तणु रयण-वणु किह ठिउ सिरि आणन्द।
निरुवम-रसु पिएं पिअवि जणु सेसहो दिएणी मुद्द॥
तन्वी के बिंबाधर पर दंत-क्षत की आनंद श्री कैसी स्थित है! अनुपम रस पीकर प्रिय ने मानो शेष पर मुहर लगा दी है।
अधर मधुरता लेन कों, जात रह्यौ ललचाइ।
हा लोटन मैं मन गिर्यो, उरजन चोट न खाइ॥