देह पर दोहे
देह, शरीर, तन या काया
जीव के समस्त अंगों की समष्टि है। शास्त्रों में देह को एक साधन की तरह देखा गया है, जिसे आत्मा के बराबर महत्त्व दिया गया है। आधुनिक विचारधाराओं, दासता-विरोधी मुहिमों, स्त्रीवादी आंदोलनों, दैहिक स्वतंत्रता की आवधारणा, कविता में स्वानुभूति के महत्त्व आदि के प्रसार के साथ देह अभिव्यक्ति के एक प्रमुख विषय के रूप में सामने है। इस चयन में प्रस्तुत है—देह के अवलंब से कही गई कविताओं का एक संकलन।
हाड़ जलै ज्यूँ लाकड़ी, केस जले ज्यूँ घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास॥
हे जीव, यह शरीर नश्वर है। मरणोपरांत हड्डियाँ लकड़ियों की तरह और केश घास (तृणादि) के समान जलते हैं। इस तरह समस्त शरीर को जलता देखकर कबीर उदास हो गया। उसे संसार के प्रति विरक्ति हो गई।
गज बर कुंभहिं देखि तनु, कृशित होत मृगराज।
चंद लखत बिकसत कमल, कह जमाल किहि काज॥
हाथी के कुंभस्थल को देखकर, सिंह दुबला क्यों हो रहा है? और चंद्रमा को देखकर कमल क्यों विकासत हो रहा है? इन विपरीत कार्यों का क्या कारण है? अभिप्राय यह है कि नायिका के हाथी के कुंभस्थल समान स्तनों को बढ़ते देखकर सिंह अर्थात् कटि प्रदेश दुबला हो गया है। नायिका के चंद्रमुख को देखकर, नायक के कमल रूपी नेत्र विकसित हो जाते हैं।
माया मुई न मन मुवा, मरि-मरि गया सरीर।
आसा त्रिष्णाँ नाँ मुई, यौं कहै दास कबीर॥
कबीर कहते हैं कि प्राणी की न माया मरती है, न मन मरता है, यह शरीर ही बार-बार मरता है। अर्थात् अनेक योनियों में भटकने के बावजूद प्राणी की आशा और तृष्णा नहीं मरती वह हमेशा बनी ही रहती है।
राते पट बिच कुच-कलस, लसत मनोहर आब।
भरे गुलाब सराब सौं, मनौ मनोज नबाब॥
नील वसन दरसत दुरत, गोरी गोरे गात।
मनौ घटा छन रुचि छटा, घन उघरत छपि जात॥
कुंभ उच्च कुच सिव बने, मुक्तमाल सिर गंग।
नखछत ससि सोहै खरो, भस्म खौरि भरि अंग॥
सुनियत कटि सुच्छम निपट, निकट न देखत नैन।
देह भए यों जानिये, ज्यों रसना में बैन॥
उठि जोबन में तुव कुचन, मों मन मार्यो धाय।
एक पंथ दुई ठगन ते, कैसे कै बिच जाय॥
मुग्धा तन त्रिबली बनी, रोमावलि के संग।
डोरी गहि बैरी मनौ, अब ही चढ़यो अनंग॥
ऐसे बड़े बिहार सों, भागनि बचि-बचि जाय।
सोभा ही के भार सों, बलि कटि लचि-लचि जाय॥
अपने अँग के जानि कै जोबन-नृपति प्रवीन।
स्तन, मन, नैन, नितंब कौ बड़ौ इजाफा कीन॥
यौवन रूपी प्रवीण राजा ने नायिका के चार अंगों पर अपना अधिकार कर लिया है। उन अंगों को अपना मानते हुए अपनी सेना के चार अंग स्वीकार कर उनकी वृद्धि कर दी है। ऐसा उसने इसलिए किया है कि वे सभी अंग उसके वश में रहे। ये चार अंग यौवन रूपी राजा की चतुरंगिणी सेना के प्रतीक हैं। ये अंग हैं−स्तन, मन, नेत्र और नितंब। स्वाभाविक बात यह है कि जब यौवनागम होता है तब स्वाभाविक रूप से शरीर के इन अंगों में वृद्धि होती है। जिस प्रकार कोई राजा अपने सहायकों को अपना मानकर उनकी पदोन्नति कर देता है, उसी प्रकार यौवनरूपी राजा ने स्तन, मन, नेत्र और नितंब को अपना मान लिया है या अपना पक्षधर या अपने ही अंग मानते हुए इनमें स्वाभाविक वृद्धि कर दी है।
अंग-अंग-नग जगमगत दीप-सिखा सी देह।
दिया बढाऐं हूँ रहै बड़ौ उज्यारौ गेह॥
दूती नायक से कह रही है कि देखो, नायिका की देह आभूषणों में जड़े हुए नगों से दीप-शिखा के समान दीपित हो रही है। घर में यदि दीपक बुझा दिया जाता है तब भी उस नायिका के रूप के प्रभाव से चारों ओर प्रकाश बना रहता है। दूती ने यहाँ नायिका के वर्ण-सौंदर्य के साथ-साथ उसके व्यक्तित्व में उदित होने वाली शोभा, दीप्ति और कांति आदि की अतिशयता को भी व्यक्त कर दिया है।
तीन लोक भौ पींजरा, पाप-पुण्य भौ जाल।
सकल जीव सावज भये, एक अहेरी काल॥
सत, रज और तम ये तीनों गुण पिंजड़े बन गए, पाप तथा पुण्य जाल बन गए और सब जीव इनमें फंसने वाले शिकार बन गए। एक अज्ञान-काल-शिकारी ने सबको फंसाकर मारा।
बाग़ों ना जा रे ना जा, तेरी काया में गुलज़ार।
सहस-कँवल पर बैठ के, तू देखे रूप अपार॥
अरे, बाग़ों में क्या मारा-मारा फिर रहा है। तेरी अपनी काया (अस्तित्व) में गुलज़ार है। हज़ार पँखुड़ियों वाले कमल पर बैठकर तू ईश्वर का अपरंपार रूप देख सकता है।
त्रिबली, नाभि दिखाइ कर, सिर ढकि, सकुचि समाहि।
गली, अली की ओट कै, चली भली बिधि चाहि॥
नायक अपने सखा से कहता है कि नायिका अपने उदर की तीन रेखाएँ एवं नाभि दिखलाकर संकोच करती हुई अपने हाथ से अपना सिर ढंककर और फिर उसे सामने करके, अपनी सखी की ओट करके मुझे अच्छी तरह देखती हुई गली में चली गई।अभिप्राय यह है कि नायिका ने अपनी त्रिबली और नाभि दिखलाई, कुछ श्रृंगारिक चेष्टाएँ की-जैसे आँचल से सिर ढका, फिर नायक के समक्ष आई और अपनी सखी की ओट में छिपकर नायक को देखकर मुस्कराती हुई चली गई। ये सभी चेष्टाएँ श्रृंगारिक थीं और इन्हीं चेष्टाओं ने नायक के हृदय को प्रेम और पीड़ा से भर दिया है।
सुंदर देही पाय के, मत कोइ करैं गुमान।
काल दरेरा खाएगा, क्या बूढ़ा क्या ज्वान॥
गर्व भुलाने देह के, रचि-रचि बाँधे पाग।
सो देही नित देखि के, चोंच सँवारे काग॥
सुंदर देही देखि के, उपजत है अनुराग।
मढी न होती चाम की, तो जीबत खाते काग॥
इस जीने का गर्व क्या, कहाँ देह की प्रीत।
बात कहते ढह जात है, बारू की सी भीत॥
सुन्दर गर्व कहा करै, देह महा दुर्गंध।
ता महिं तूं फूल्यौ फिरै, संमुझि देखि सठ अंध॥
सुन्दर तूं तौ एकरस, तोहि कहौं समुझाइ।
घटै बढै आवै रहै, देह बिनसि करि जाइ॥
माटी सूं ही ऊपज्यो, फिर माटी में मिल जाय।
फूली कहै राजा सुणो, करल्यो कोय उपाय॥
बलि किउ माणुस जम्मडा, देक्खंतहँ पर सारु।
जइ उट्टब्भइ तो कुहइ, अह डज्झइ तो छारु॥
मनुष्य इस जीवन की बलि जाता हैं (अर्थात् वह अपनी देह से बहुत मोह रखता है) जो देखने में परम तत्व है। परंतु उसी देह को यदि भूमि में गाड़ दें तो सड़ जाती है और जला दें तो राख हो जाती है।
सुन्दर अविनाशी सदा, निराकार निहसंग।
देह बिनश्वर देखिये, होइ पटक मैं भंग॥
सुन्दर मैली देह यह, निर्मल करी न जाइ।
बहुत भांति करि धोइ तूं, अठसठि तीरथ न्हाइ॥
अधर मधुरता लेन कों, जात रह्यौ ललचाइ।
हा लोटन मैं मन गिर्यो, उरजन चोट न खाइ॥
सुन्दर ऐसी देह मैं, सुच्चि कहो क्यौं होइ।
झूठेई पाखंड करि, गर्व करै जिनि कोइ॥
दौरि-दौरि जड़ देह कौं, आपुहि पकरत आइ।
सुन्दर पेच पर्यौ कठिन, सकं नहीं सुरझाइ॥
अग्नि कर्म संयोग तें, देह कड़ाही संग।
तेल लिंग दोऊ तपै, शशि आतमा अभंग॥
सुंदर देह मलीन अति, नखशिख भरे बिकार।
रक्त पीप मल मूत्र पुनि, सदा बहै नव द्वार॥
बिथुरे कच कुच पैं परे, सिथिल भए सब गात।
उनदोहें दृग में भई, दुगुनी प्रभा प्रभात॥
सुन्दर अपरस धोवती, चौकै बैठौ आइ।
देह मलीन सदा रहै, ताही कै संगि खाइ॥
देह दीपति छबि गेह की, किहिं विधि वरनी जाय।
जा लखि चपला गगन ते, छिति फरकत नित आय॥
सुन्दर देह मलीन अति, बुरी वस्तु को भौन।
हाड मांस को कौथरा, भली वस्तु कहि कौन॥
छैल छबीली छांह सी, चैत चांदनी होति।
दीपसिखा सी को कहै, लखि खासी तन जोति॥
क्षीण सपष्ट शरीर है, शीत उष्ण तिहिं लार।
सुन्दर जन्म जरा लगै, यह पट देह विकार॥
देह कृत्य सब करत है, उत्तम मध्य कनिष्ट।
सुंदर साक्षी आतमा, दीसै मांहि प्रविष्ट॥
सुन्दर कबहूं फुनसली, कबहूं फोरा होइ।
ऐसी याही देह मैं, क्यौं सुख पावै कोइ॥
सुन्दर देह मलीन अति, नख शिख भरे बिकार।
रक्त पीप मल मूत्र पुनि, सदा बहै नव द्वार॥
सुन्दर काला घटै बढै, शशि मंडल कै संग।
देह उपजि बिनशत रहै, आतम सदा अभंग॥
सुन्दर तत्व जुदे-जुदे, राख्या नाम शरीर।
ज्यौं कदली के खंभ मैं, कौन बस्तु कहि बीर॥
कबहूँ निकसै न्हारवा, कबहूँ निकसै दाद।
सुन्दर ऐसी देह यह, कबहूँ न मिटै बिषाद॥
मन नितंब पर गामरू, तरफरात परि लंक।
बर बेनी नागिनि हन्यौ, खर बीछी को डंक॥
सुन्दर मुख मैं हाड सब, नैन नासिका हाड।
हाथ पाँव सब हाड के, क्यौं नहिं समुंझत रांड॥
कबहूँ पेट पिरातु है, कबहूँ मांथै सूल।
नैंन नाक मुख मैं बिथा, कबहूँ न पावै सुक्ख॥
कनक वरन सुंदर वदन, कमल नयन कटि छीन।
बरुन बान भुव भंग जनु, मदन चाँप करि लीन॥
सुन्दर कहा पखारिये, अति मलीन यह देह।
ज्यौं-ज्यौं माटी धोइये, त्यौं-त्यौं उकटै खेह॥
गरव करत है देह को, बिनसै छिन में मीति।
जिहि प्रानी हरि जस कहिओ, नानक तिहि जग जीति॥
देह स्वर्ग अरु नरक है, बंद मुक्ति पुनि देह।
सुन्दर न्यारौ आतमा, साक्षी कहियत येह॥