पाखंड पर दोहे
इस चयन में प्रस्तुत
कविताओं का ज़ोर पाखंडों के पर्दाफ़ाश पर है। ये कविताएँ पाखंड को खंड-खंड करने का ज़रूरी उत्तरदायित्व वहन कर रही हैं।
माथे तिलक हाथ जपमाला, जग ठगने कूं स्वांग बनाया।
मारग छाड़ि कुमारग उहकै, सांची प्रीत बिनु राम न पाया॥
ईश्वर को पाने के लिए माथे पर तिलक लगाना और माला जपना केवल संसार को ठगने का स्वांग है। प्रेम का मार्ग छोड़कर स्वांग करने से ईश्वर की प्राप्ति नहीं होगी। सच्चे प्रेम के बिना परमात्मा को पाना असंभव है।
तुलसी जौं पै राम सों, नाहिन सहज सनेह।
मूंड़ मुड़ायो बादिहीं, भाँड़ भयो तजि गेह॥
तुलसी कहते हैं कि यदि श्री रामचंद्र जी से स्वाभाविक प्रेम नहीं है तो फिर वृथा ही मूंड मुंडाया, साधु हुए और घर छोडकर भाँड़ बने (वैराग्य का स्वांग भरा)।
तुलसी परिहरि हरि हरहि, पाँवर पूजहिं भूत।
अंत फजीहत होहिंगे, गनिका के से पूत॥
तुलसी कहते हैं कि श्री हरि (भगवान् विष्णु) और श्री शंकर जी को छोड़कर जो पामर भूतों की पूजा करते हैं, वेश्या के पुत्रों की तरह उनकी अंत में बड़ी दुर्दशा होगी।
जेहि मारग गये पण्डिता, तेई गई बहीर।
ऊँची घाटी राम की, तेहि चढ़ि रहै कबीर॥
जिस रास्ते से पुरोहित एवं पंडित लोग जाते हैं, उसी रास्ते से भीड़ भी जाती है, किंतु कबीर तो सबसे अलग एवं स्वतंत्र होकर स्वरूपस्थिति रूपी राम की ऊँची घाटी पर चढ़ जाता है।
जपमाला छापैं तिलक, सरै न एकौ कामु।
मन-काँचे नाचै वृथा, साँचै राँचै रामु॥
माला लेकर किसी मंत्र-विशेष का जाप करने से तथा मस्तक एवं शरीर के अन्य अंगों पर तिलक-छापा लगाने से तो एक भी काम पूरा नहीं हो सकता, क्योंकि ये सब तो आडंबर मात्र हैं। कच्चे मन वाला तो व्यर्थ ही में नाचता रहता है, उससे राम प्रसन्न नहीं होते। राम तो सच्चे मन से भक्ति करने वाले व्यक्ति पर ही प्रसन्न होते हैं।
क्या गंगा क्या गोमती, बदरी गया पिराग।
सतगुर में सब ही आया, रहे चरण लिव लाग॥
किरतिम देव न पूजिए, ठेस लगे फुटि जाय।
कहैं मलूक सुभ आत्मा, चारों जुग ठहराय॥
उठ भाग्यो वाराणसी, न्हायो गंग हजार।
पीपा वे जन उत्तम घणा, जिण राम कयो इकबार॥
बाना पहिरे बड़न का, करै नीच का काम।
ऐसे ठग को न मिलै, निरकहु में कहुँ ठाम॥
जपमाला, छापैं, तिलक सरै न एकौ कामु।
मन-काँचे नाचै वृथा, साँचै राँचै रामु॥
माला लेकर किसी मंत्र-विशेष का जाप करने से तथा मस्तक एवं शरीर के अन्य अंगों पर तिलक-छापा लगाने से तो एक भी काम पूरा नहीं हो सकता, क्योंकि ये सब तो आडंबर मात्र हैं। कच्चे मन वाला तो व्यर्थ में ही नाचता रहता है, उससे राम प्रसन्न नहीं होते। राम तो सच्चे मन से भक्ति करने वाले व्यक्ति पर ही प्रसन्न होते हैं।
साधो दुनिया बावरी, पत्थर पूजन जाय।
मलूक पूजै आत्मा, कछु माँगै कछु खाय॥
अंतर गति राँचै नहीं, बाहरि कथै उजास।
ते नर नरक हि जाहिगं, सति भाषै रैदास॥
मनुष्य कितना अज्ञानी है! वह शरीर की बाहरी स्वच्छता और वेश−भूषा पर ध्यान देता है और मन की पवित्रता पर दृष्टि नहीं डालता। रैदास सत्य ही कहते हैं−ऐसे मनुष्य निश्चय ही नरक लोक जाएँगे।
देता रहै हज्जार बरस, मुल्ला चाहे अजान।
रैदास खोजा नहं मिल सकइ, जौ लौ मन शैतान॥
रैदास कहते हैं कि मुल्ला चाहे लगातार हज़ार वर्षों तक अजान देता रहे किंतु जब तक उसके भीतर शैतान रहेगा, तब तक खोजने पर भी उसे ख़ुदा न मिल सकेगा।
आधी साखी सिर खड़ी, जो निरूवारी जाय।
क्या पंडित की पोथिया, जो राति दिवस मिलि गाय॥
विचार एवं निर्णय करके आचरण में लायी गई बोधप्रद आधी साखी भी पूर्ण कल्याणकारी हो सकती है। निर्णय-रहित पंडित की बड़ी-बड़ी पोथियों को रात-दिन गाने से क्या लाभ जिनमें स्वरूप का सच्चा बोध नहीं है।
गोरख रसिया योग के, मुये न जारी देह।
माँस गली माटी मिली, कोरी माँजी देह॥
श्री गोरखनाथ जी योगाभ्यास के बड़े प्रेमी थे। उन्होंने अपने शरीर को योगाभ्यास में इसलिए तपाया कि यह अमर हो जाए। फलत: उनके शरीर का मांस गलकर मिट्टी में मिल गया। अभिप्राय है कि उन्होंने योगाभ्यास से मांस को गला डाला और उनकी देह की हड्डियां मंजे हुए बरतन के समान चमकने लगीं।
पाँच तत्व का पूतरा, युक्ति रची मैं कीव।
मैं तोहि पूछौं पंडिता, शब्द बड़ा की जीव॥
पांच तत्वों के इस पुतले शरीर को मैंने ही रचकर तैयार किया है। हे पंडितों! मैं तुमसे पूछता हूँ कि शब्द बड़ा होता है या जीव?
झिलमिल झगरा झूलते, बाकि छूटि न काहु।
गोरख अटके कालपुर, कौन कहावै साहु॥
प्राणायाम करते हुए त्राटकादि हुए मुद्रा द्वारा झिलमिल ज्योति देखने के झगड़े में पड़कर सभी योगी इस भ्रम-झूले में झूलते हैं। इनमें से इससे कोई नहीं बचा। गोरखनाथ-जैसे महापुरुष भी इस कल्पना के नगर में फंस गए, फिर दूसरा कौन विवेकी कहलाएगा।
ना देवल में देव है, ना मसज़िद खुदाय।
बांग देत सुनता नहीं, ना घंटी के बजाय॥
गृह तजि के भये उदासी, बन खण्ड तप को जाय।
चोली थाकी मारिया, बेरई चुनि-चुनि खाय॥
कितने लोग भावुकता में पड़कर और घर छोड़कर वैरागी हो जाते हैं तथा जंगलों में तपस्या करने चले जाते हैं। जब उनकी भावना का जोश उतरता है, भूख लगती है, काया निर्बल होती है, तब वे बेर-जैसे साधारण फल भी चुन-चुन कर खाते हैं और अपना पेट भरते हैं।
माला टोपी भेष नहीं, नहीं सोना शृंगार।
सदा भाव सतसंग है, जो कोई गहे करार॥
सुन्दर मैली देह यह, निर्मल करी न जाइ।
बहुत भांति करि धोइ तूं, अठसठि तीरथ न्हाइ॥
बन में गये हरि ना मिले, नरत करी नेहाल।
बन में तो भूंकते फिरे, मृग, रोझ, सीयाल॥
सुंदर सद्गुरु शब्द का, ब्यौरि बताया भेद।
सुरझाया भ्रम जाल ते, उरझाया था बेद॥
सुन्दर समझि विचार करि, तेरौ इनमैं कौंन।
आपु-आपु कौं जाहिगें, सुत दारा करि गौंन॥
मुख ब्राह्मण कर क्षत्रिय, पेट वैश्य पग शुद्र।
इ अंग सबही जनन में, को ब्राह्मण को शुद्र॥
जौ दोउनु कौ एकही, कह्यौ जनक जग-बंद।
तौ सुरसरि तें घटि कहा, यह अछूत, द्विज मंद॥
तुका कुटुंब छोरे रे लड़के, जीरो सिर मुंडाय।
जब ते इच्छा नहिं मुई, तब तूँ किया काय॥
सुन्दर ऊँचे पग किये, मन की अहं न जाइ।
कठिन तपस्या करत है, अधो सीस लटकाइ॥
छापा तिलक बनाय के, परधन की करें आसा।
आत्मतत्व जान्या नहीं, इंद्री-रस में माता॥
अपनावत अजहूँ न, जे अंग अछूत।
क्यों करि ह्वै हैं छूत वै, करि कारी करतूत॥
जिन पायनु तें जाह्नवी, भई प्रगटि जग-पूत।
तिनही तें प्रगटे न ए, तुम्हरे अनुज अछूत॥
अड़सठ तीरथ में फिरे, कोई बधारे बाल।
हिरदा शुद्ध किया बिना, मिले न श्री गोपाल॥
महा असिव हू सिव भयौ, जाहि सीस पै धारि।
छुअत न तासु सहोदरन, रे द्विज! कहा बिचारि॥
तीरथ व्रत और दान करि, मन में धरे गुमान।
नानक निषफल जात हैं, जिउ कूँचर असनान॥
क्रिया कमै बहु बिधि कहे, बेद वचन विस्तार।
सुन्दर समुझै कौंन बिधि, उरझि रह्यौ संसार॥
सुर-सरि औ अंतज्य दुहूँ, अच्युत-पद-संभूत।
भयौ एक क्यों छूत, औ दूजो रह्यौ अछूत॥