महिमा पर दोहे
महिमा महानता की अवस्था
या भाव है। महिमा की गिनती आठ प्रकार की सिद्धियों में से एक के रूप में भी की गई है। इस चयन में शामिल काव्य-रूपों में ‘महिमा’ कुंजी-शब्द के रूप में उपस्थित है।
हम भी पांहन पूजते, होते रन के रोझ।
सतगुरु की कृपा भई, डार्या सिर पैं बोझ॥
कबीर कहते हैं कि यदि सद्गुरु की कृपा न हुई होती तो मैं भी पत्थर की पूजा करता और जैसे जंगल में नील गाय भटकती है, वैसे ही मैं व्यर्थ तीर्थों में भटकता फिरता। सद्गुरु की कृपा से ही मेरे सिर से आडंबरों का बोझ उतर गया।
‘तुलसी’ साथी विपति के, विद्या, विनय, विवेक।
साहस, सुकृत, सुसत्य-व्रत, राम-भरोसो एक॥
गोस्वामी जी कहते हैं कि विद्या, विनय, ज्ञान, उत्साह, पुण्य और सत्य भाषण आदि विपत्ति में साथ देने वाले गुण एक भगवान् राम के भरोसे से ही प्राप्त हो सकते हैं।
रघुपति कीरति कामिनी, क्यों कहै तुलसीदासु।
सरद अकास प्रकास ससि, चार चिबुक तिल जासु॥
श्री रघुनाथ जी की कीर्तिरूपी कामिनी का तुलसीदास कैसे बखान कर सकता है? शरत्पूर्णिमा के आकाश में प्रकाशित होने वाला चंद्रमा मानो उस कीर्ति-कामिनी की ठुड्डी का तिल है।
क्या गंगा क्या गोमती, बदरी गया पिराग।
सतगुर में सब ही आया, रहे चरण लिव लाग॥
नाम गरीबनिवाज को, राज देत जन जानि।
तुलसी मन परिहरत नहिं, धुरविनिआ की वानि॥
तुलसीदास कहते हैं कि गरीब निवाज (दीनबंधु) श्री राम का नाम ऐसा है, जो जपने वाले को भगवान का निज जन जानकर राज्य (प्रजापति का पद या मोक्ष-साम्राज्य तक) दे डालता है। परंतु यह मन ऐसा अविश्वासी और नीच है कि घूरे (कूड़े के ढेर) में पड़े दाने चुगने की ओछी आदत नहीं छोड़ता (अर्थात् गदे विषयो में ही सुख खोजता है)।
सतगुर की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावण हार॥
ज्ञान के आलोक से संपन्न सद्गुरु की महिमा असीमित है। उन्होंने मेरा जो उपकार किया है वह भी असीम है। उसने मेरे अपार शक्ति संपन्न ज्ञान-चक्षु का उद्घाटन कर दिया जिससे मैं परम तत्त्व का साक्षात्कार कर सका। ईश्वरीय आलोक को दृश्य बनाने का श्रेय महान गुरु को ही है।
साहब तेरी साहबी, कैसे जानी जाय।
त्रिसरेनू से झीन है, नैनों रहा समाय॥
इक लख चंदा आणि घर, सूरज कोटि मिलाइ।
दादू गुर गोबिंद बिन, तो भी तिमर न जाइ॥
लहइ न फूटी कौड़िहू, को चाहै केहि काज।
सो तुलसी महँगो कियो, राम ग़रीबनिवाज॥
तुलसी कहते हैं कि जिसको एक फूटी कौड़ी भी नहीं मिलती थी (जिसकी कोई प्रतिष्ठा नहीं थी),उसको भला कौन चाहता और किसलिए चाहता। उसी तुलसी को ग़रीब-निवाज श्री राम जी ने आज महँगा कर दिया (उसका गौरव बढ़ा दिया)।
मीठो अरु कठवति भरो, रौंताई अरु छेम।
स्वारथ परमारथ सुलभ, राम नाम के प्रेम॥
मीठा पदार्थ (अमृत) भी हो और कठौता भरकर मिले, यानी राज्यादि अधिकार भी प्राप्त हों और क्षेमकुशल भी रहे (अर्थात् अभिमान और भोगों से बचकर रहा जाए) अर्थात् स्वार्थ भी सधे तथा परमार्थ भी संपन्न हो; ऐसा होना बहुत ही कठिन है परंतु श्री राम नाम के प्रेम से ये परस्पर विरोधी दुर्लभ बातें भी सुलभ हो जाती है।
कबीर का घर शिखर पर, जहाँ सिलहली गैल।
पाँव न टिके पिपीलका, तहाँ खलकन लादै बैल॥
जीव की शाश्वत स्थिति उसके अपने सर्वोच्च स्वरूप चेतन में है। उस तक पहुंचने का रास्ता फिसलन से भरा है। जहां चींटी के पैर नहीं टिकते, वहां संसार के लोग बैल पर सामान लादकर व्यापार करना चाहते हैं।
या तन की सारैं करूँ, प्रीत जु पासे लाल।
सतगुरु दाँव बताइया, चौपर रमे जमाल॥
शरीर को गोटें (मोहरें) और प्रीति के पासे हैं, सतगुरु दांव (चाल) बता रहे हैं; और चौपड़ का खेल खेल रहा हूँ।
निज दूषन गुन राम के, समुझें तुलसीदास।
होइ भलो कलिकालहूँ, उभय लोक अनयास॥
तुलसी कहते हैं कि अपने दोषों तथा श्री राम के गुणों को समझ लेने पर अथवा दोषों को अपना किया और गुण भगवान् श्री राम के दिए हुए मान लेने से इस कलि काल में भी मनुष्य का इस लोक और परलोक दोनों में सहज ही कल्याण हो जाता है।
बालक कोसलपाल के, सेवकपाल कृपाल।
तुलसी मन मानस बसत, मंगल मंजु मराल॥
कोसलपति दशरथ के बालक श्री राम सेवकों की रक्षा करने वाले तथा बड़े ही कृपालु हैं। वे तुलसी के मनरूपी मानसरोवर में कल्याण रूप सुंदर हंस के समान निवास करते हैं।
तुलसी बिलसत नखत निसि, सरद सुधाकर साथ।
मुकुता झालरि झलक जनु, राम सुजसु सिसु हाथ॥
तुलसीदास जी कहते है कि शरत्पूर्णिमा के चंद्रमा के साथ रात्रि में नक्षत्रावली ऐसी शोभा देती है, मानो श्री राम जी के सुयश रूपी शिशु के हाथ में मोतियों की झालर झलमला रही हो।
जगतु जनायौ जिहिं सकलु, सो हरि जान्यौं नाँहि।
ज्यौं आँखिनु सबु देखियै, आँखि न देखी जाँहिं॥
जिस ईश्वर ने संपूर्ण संसार को इंद्रिय ज्ञान का विषय बनाया, उस ईश्वर को ही तूने नहीं जाना। जिस प्रकार आँखों के द्वारा सबको देखा जाता है, पर स्वयं आँखों को नहीं देखा जाता, उसी प्रकार ईश्वर भी ज्ञानातीत है।
कहा विभीषन लै मिल्यो, कहा बिगारयो बालि।
तुलसी प्रभु सरनागतहि, सद दिन आए पालि॥
बालि ने तो भगवान् का क्या बिगाड़ा था और विभीषण ऐसा क्या लेकर आया था (जिससे भगवान् ने उसे लंका का राज्य देकर अभय कर दिया)? तुलसी कहते हैं कि प्रभु सदा से ही अपने शरणागत की रक्षा करते आए हैं।
सब घट माँही राम है, ज्यौं गिरिसुत में लाल।
ज्ञान गुरु चकमक बिना, प्रकट न होत जमाल॥
पर्वत में स्थित रत्नों के समान राम प्रत्येक शरीर में व्याप्त है। किंतु, बिना गुरु से ज्ञान प्राप्त किए वह (राम) प्रकट नहीं होता।
स्याम सुरभि पय बिसद अति, गुनद करहिं सब पान।
गिरा ग्राम्य सिय राम जस, गावहिं सुनहिं सुजान॥
श्यामा गौ काली होने पर भी उसका दूध बहुत उज्ज्वल और गुणदायक होता है, इसी से लोग उसे (बड़े चाव से) पीते हैं। इसी प्रकार बुद्धिमान् संतजन श्री सीताराम जी के यश को गँवारू भाषा में होने पर भी (बड़े चाव से) गाते और सुनते हैं।
बिनु डाँड़े जग डाँड़िया, सोरठ परिया डाँड़।
बाटनि हारे लोभिया, गुर ते मीठी खाँड़॥
संसार के लोगों को किसी ने दण्डित नहीं किया,किंतु ये अपने अज्ञानवश स्वयं ही दण्डित हुए। इनका मानव-जीवनरूपी जुआ व्यर्थ गया। ये सुख के लोभी अपने कल्याण की इच्छा का दांव हार गए। गुड़ से शकर मीठा होता है, परंतु ये गुड़ को शकर न बना सके अर्थात जीवन को तपाकर आध्यात्मिक लाभ न ले सके।
कुलिसहु चाहि कठोर अति, कोमल कुसुमहु चाहि।
चित्त खगेस राम कर समुझि, परइ कहु काहि॥
हे पक्षिराज! श्री राम का चित्त [अपने लिए तो] वज्र से अधिक कठोर है और (भक्तों के लिए) फूल से भी अधिक कोमल है। कहिए, फिर इस चित्त का रहस्य किस की समझ मे आ सकता है।
तुलसी जाने सुनि समुझि, कृपासिंधु रघुराज।
महँगे मनि कंचन किए, सौंधे जग जल नाज॥
तुलसी कहते हैं कि श्री रघुनाथ कृपा के समुद्र हैं, जिन्होंने मणियों को और सोने को तो महँगा कर दिया; परंतु प्राण धारण करने के लिए सबसे अधिक आवश्यक वस्तु जल और अन्न को जगत में सस्ता (सुलभ) बना दिया।
बलकल भूषन फल असन, तृन सज्या द्रुम प्रीति।
तिन्ह समयन लंका दई, यह रघुबर की रीति॥
भगवान् श्री राम जिस समय स्वयं वल्कल-वस्त्रों से भूषित रहते थे, फल खाते थे, तिनकों की शय्या पर सोते थे और वृक्षों से प्रेम करते थे, उसी समय उन्होंने विभीषण को लंका प्रदान की। श्री रघुनाथ जी की यही रीति है (स्वयं त्याग करते हैं और भक्तों को परम ऐश्वर्य दे देते हैं)।
जो चेतन कह जड़ करइ, जड़हि करइ चैतन्य।
अस समर्थ रघुनाथ कहि, महिं जीव ते धन्य॥
जो चेतन को जड़ कर देते हैं और जड़ को चेतन, ऐसे समर्थ श्री रघुनाथ जी को जो जीव भजते हैं वे धन्य हैं।
कै तोहि लागहिं राम प्रिय, कै तू प्रभु प्रिय होहि।
दुइ में रुचै जो सुगम, सो कोने तुलसी तोहि॥
या तो तुझे राम प्रिय लगने लगे या प्रभु श्री राम का तू प्रिय बन जा। दोनों में से जो तुझे सुगम जान पड़े तथा प्रिय लगे, (तुलसी कहते हैं कि) तुझे वही करना चाहिए।
गुरु सिकलीगर कीजिये, मनहि मस्कला देय।
शब्द छोलना छोलिके, चित दर्पण करि लेय॥
जिस प्रकार सिकलीगर मसकला देकर धातुओं को उज्ज्वल कर देता है, उसी प्रकार ऐसे सद्गुरु की शरण लो जो तुम्हारे मन पर विवेक का मसकला देकर, निर्णय शब्दरूपी छोलने से छीलकर और मल, विक्षेप तथा आवरणरूपी मूर्चा को झाड़कर तुम्हारे चित्त को दर्पणवत स्वच्छ बना दे।
बालि बली बलसालि दलि, सखा कीन्ह कपिराज।
तुलसी राम कृपालु को, विरद ग़रीब निवाज॥
श्री राम ने शरीर से बली और सेना-राज्यादि बलों से युक्त बालि को मार कर सुग्रीव को अपना सखा और बंदरों का राजा बना दिया। तुलसी कहते हैं कि कृपालु श्री रामचंद्र जी का विरद ही ग़रीबों की रक्षा करता है।
भगत भूमि भूसुर सुरभि, सुर हित लागि कृपाल।
करत चरित धरि मनुज तनु, सुनत मिटहिं जगजाल॥
भक्त, भूमि, ब्राह्मण, गौ और देवताओं के हित के लिए कृपालु श्री राम मनुष्य-शरीर धारण कर (नाना प्रकार की) लीलाएँ करते हैं, जिनके सुनने मात्र से जगत के (सारे) जंजाल कट जाते हैं।
श्रीरघुबीर प्रताप ते, सिंधु तरे पापान।
ते मतिमंद जे राम तजि, भजहिं जाइ प्रभु आन॥
श्री रघुनाथ जी के प्रताप से समुद्र में पत्थर तर गए। अतएव वे लोग मंदबुद्धि हैं जो ऐसे श्री राम को छोड़कर किसी दूसरे स्वामी को जाकर भजते हैं।
तिल पर राखेउ सकल जग, विदित विलोकत लोग।
तुलसी महिमा राम की, कौन जानिवे जोग॥
श्री राम की महिमा को जानने का अधिकारी कौन है? उन्होंने आँख के काले तिल (पुतली) पर सारे जगत् को रख दिया है, इस बात को सब लोग जानते हैं और प्रत्यक्ष देखते हैं (आँखों का छोटा-सा तिल यदि बिगड़ जाए तो इतना भारी विस्तृत जगत् ज़रा-सा भी नहीं दीख पड़ता)।
हरि हर जस सुर नर गिरहुँ, बरनहिं सुकवि समाज।
हाँडी हाटक घटित चरु, राँधे स्वाद सुनाज॥
सुकविगण भगवान् श्री हरि और भगवान् श्री शंकर के यश को संस्कृत और भाषा दोनों में ही वर्णन करते हैं। उत्तम आनाज को चाहे मिट्टी की हाँडी में पकाया जाए, चाहे सोने के पान में, यह स्वादिष्ट ही होता है।
प्रभु गुन गन भूषन बसन, बिसद विसेष सुबेस।
राम सुकीरति कामिनी, तुलसी करतब केस॥
प्रभु श्रीराम के गुणों के समूह उनकी सुंदर कीर्तिरूपी कामिनी के वस्त्र और आभूषण हैं,जिनसे उसका वेष बहुत ही स्वच्छ और सुंदर जान पड़ता है। और तुलसीदास द्वारा उस कीर्ति का वर्णन करना (अनधिकार प्रयास) वह करतूत है (जो अत्यंत काली है), इसलिए उसकी केश से उपमा दी जा सकती है।
खंजन लोचन कंज मुख, नित खंडन पर पीर।
अरि गंजन भंजन धनुष, भव रंजन रघुवीर॥
क्या हिन्दू क्या मुसलमान, क्या ईसाई जैन।
गुरु भक्ती पूरन बिना, कोई न पावे चैन॥
दादू देव दयाल की, गुरू दिखाई बाट।
ताला कूँची लाइ करि, खोले सबै कपाट॥
सद्गुरु भ्राता नृपति कै, बेड़ी काटै आइ।
निगहबांन देखत रहैं, सुन्दर देहि छुड़ाइ॥
जैसे जल लै बाग को, सिंचत मालाकार।
तैसे निज जन को सदा, पालत नंदकुमार॥
नामु राम को कलपतरु, कलि कल्यान निवासु।
जो सुमिरत भयो भांग तें, तुलसी तुलसीदासु॥
कलियुग में श्री राम का नाम कल्पवृक्ष (मनचाहा पदार्थ देने वाला) है और कल्याण का निवास (मुक्ति का घर) है, जिसके स्मरण करने से तुलसीदास भांग से (विषय मद से भरी और दूसरों को भी विषय-मद उपजाने वाली साधुओं द्वारा त्याज्य स्थिति से) बदलकर तुलसी के समान (निर्दोष, भगवान का प्यारा, सबका आदरणीय और जगत् को पावन करने वाला) हो गया।
पग धोऊ उण देव का, जो घालि गुरु घाट।
पीपा तिनकू ना गिणूं, जिणरे मठ अर ठाठ॥
पीपा कहत विचार हिरदै, राम सरिस नहिं आन।
जा सूँ कृपा उपजै हिरदै, विशद विवेक सुजान॥
स्वारथ के सब ही सगा, जिनसो विपद न जाय।
पीपा गुरु उपदेश बिनु, राम न जान्यो जाय॥
संत मुक्त के पौरिया, तिनसौं करिये प्यार।
कूंची उनकै हाथ है, सुन्दर खोलहिं द्वार॥
छपन कोटि आज्ञा करैं, मेघ पृथी पर आइ।
सुन्दर भेजैं रामजी, तहं-तहं वरषै जाइ॥
चंच संवारी जिनि प्रभू, चूंन देइगो आंनि।
सुंदर तूं विश्वास गहि, छांडि आपनी बांनि॥
सोधी दाता पलक में, तिरै तिरावन जोग।
दादू ऐसा परम गुर, पाया कहिं संजोग॥
गुरु भक्ति दृढ़ के करो, पीछे और उपाय।
बिन गुरु भक्ति मोह जग, कभी न काटा जाय॥
नाम राम को अंक है, सब साधन हैं सून।
अंक गएँ कछु हाथ नहिं, अंक रहें दस गून॥
श्री राम का नाम अंक है और सब साधन शून्य है। अंक न रहने पर तो कुछ भी हाथ नहीं लगता, परंतु शून्य के पहले अंक आने पर वे दस गुने हो जाते हैं (अर्थात् राम नाम के जप के साथ जो साधन होते हैं, वे दस गुने लाभदायक हो जाते हैं) परंतु राम नाम से हीन जो साधन होता है वह कुछ भी फल नहीं देता।
सहस फनी-फुंकार औ, काली-असि-झंकार।
बन्दों हनु-हुंकार त्यौं, राघव-धनु-टंकार॥
सुख दुख जन्महि मरन को, कहै सुनै कोउ बीस।
परसा जीव न जानहीं, सब जानै जगदीस॥