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सुमिरन पर दोहे

इष्ट और गुरु का सुमिरन

भक्ति-काव्य का प्रमुख ध्येय रहा है। प्रस्तुत चयन में सुमिरन के महत्त्व पर बल देती कविताओं को शामिल किया गया है।

प्रेम लटक दुर्लभ महा, पावै गुरु के ध्यान।

अजपा सुमिरण कहत हूं, उपजै केवल ज्ञान॥

सहजो कहती हैं कि ईश्वरीय प्रेम की अनुभूति अत्यन्त दुर्लभ है। वह सद्गुरु के ध्यान से ही मिलती है। इसलिए स्थिर मन से ईश्वर एवं गुरु का स्मरण-ध्यान करना चाहिए, क्योंकि उसी से ईश्वरीय ज्ञान की साक्षात् अनुभूति हो पाती है।

सहजोबाई

दंपति रस रसना दसन, परिजन बदन सुगेह।

तुलसी हर हित बरन सिसु, संपति सहज सनेह॥

तुलसी कहते हैं कि रस और रसना पति-पत्नी है, दाँत कुटुंबी हैं, मुख सुंदर घर है, श्री महादेव जी के प्यारे 'र' और 'म' ये दोनों अक्षर दो मनोहर बालक हैं और सहज स्नेह ही संपत्ति हैं।

तुलसीदास

जेहि मारग गये पण्डिता, तेई गई बहीर।

ऊँची घाटी राम की, तेहि चढ़ि रहै कबीर॥

जिस रास्ते से पुरोहित एवं पंडित लोग जाते हैं, उसी रास्ते से भीड़ भी जाती है, किंतु कबीर तो सबसे अलग एवं स्वतंत्र होकर स्वरूपस्थिति रूपी राम की ऊँची घाटी पर चढ़ जाता है।

कबीर

राम-नाम-मनि-दीप धरु, जीह देहरी द्वार।

‘तुलसी’ भीतर बाहिरौ, जौ चाहसि उजियार॥

तुलसीदास जी कहते हैं कि यदि तुम अपने हृदय के अंदर और बाहर दोनों ओर प्रकाश चाहते हो तो राम-नाम रूपी मणि के दीपक को जीभ रूपी देहली के द्वार पर धर लो। दरवाज़े की देहली पर यदि दीपक रख दिया जाए तो उससे घर के बाहर और अंदर दोनों ओर प्रकाश हो जाया करता है। इसी प्रकार जीभ मानो शरीर के अंदर और बाहर दोनों ओर की देहली है। इस जीभ रूपी देहली पर यदि राम-नाम रूपी मणि का दीपक रख दिया जाय तो हृदय के बाहर और अंदर दोनों ओर अवश्य प्रकाश हो ही जाएगा।

तुलसीदास

हियँ निर्गुन नयनन्हि सगुन, रसना राम सुनाम।

मनहुँ पुरट संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम॥

हृदय में निर्गुण ब्रह्म का ध्यान, नेत्रों के सामने सगुण स्वरूप की सुंदर झांकी और जीभ से सुंदर राम-नाम का जप करना। तुलसी कहते हैं कि यह ऐसा है मानो सोने की सुंदर डिबिया में मनोहर रत्न सुशोभित हो।

तुलसीदास

जो पै जिय लज्जा नहीं, कहा कहौं सौ बार।

एकहु अंक हरि भजे, रे सठ ‘सूर’ गँवार॥

सूरदास जी कहते हैं कि हे गँवार दुष्ट, अगर तुझे अपने दिल में शर्म नहीं है, तो मैं तुझे सौ बार क्या कहूँ क्योंकि तूने तो एक बार भी भगवान् का भजन नहीं किया।

सूरदास

केस पक्या द्रस्टि गई, झर्या दंत और धुन्न।

सैना मिरतू पुगी, करले सुमरन पुन्न॥

सैन कहते हैं कि जब केश पक गए, दृष्टि चली गई, दाँत झड़ गए और ध्वनि मंद पड़ गई, तो जान लो-मृत्यु निकट है। स्मरण का पुण्य कर लो।

सैन भगत

राम नाम अवलंब बिनु, परमारथ की आस।

बरसत बारिद बूँद गहि, चाहत चढ़न अकास॥

जो राम नाम का सहारा लिए बिना ही परमार्थ और मोक्ष की आशा करता है, वह तो मानो बरसते हुए बादल की बूँदों को पकड़कर आकाश में चढ़ना चाहता है (अर्थात् जैसे वर्षा की बूँदों को पकड़कर आकाश पर चढ़ना असंभव है, वैसे ही राम नाम का जप किए बिना परमार्थ की प्राप्ति असंभव है)।

तुलसीदास

राम भरोसो राम बल, राम नाम बिस्वास।

सुमिरत सुभ मंगल कुसल, मांगत तुलसीदास॥

तुलसीदास जी यही माँगते हैं कि मेरा एक मात्र राम पर ही भरोसा रहे, राम ही का बल रहे और जिसके स्मरण मात्र ही से शुभ, मंगल और कुशल की प्राप्ति होती है, उस राम नाम में ही विश्वास रहे।

तुलसीदास

भजन भलो भगवान को, और भजन सब धंध।

तन सरवर मन हँस है, केसो पूरन चँद॥

संत केशवदास

परसा तब मन निर्मला, लीजै हरिजल धोय।

हरि सुमिरन बिन आत्मा, निर्मल कभी होय॥

संत परशुरामदेव

राम नाम रति राम गति, राम नाम बिस्वास।

सुमिरत सुभ मंगल कुसल, दुहुँ दिसि तुलसीदास॥

तुलसीदास कहते हैं कि जिसका राम नाम में प्रेम है, राम ही जिसकी एकमात्र गति है और राम नाम में ही जिसका विश्वास है, उसके लिए राम नाम का स्मरण करने से ही दोनों ओर (इस लोक में और परलोक में) शुभ, मंगल और कुशल है।

तुलसीदास

नाम गरीबनिवाज को, राज देत जन जानि।

तुलसी मन परिहरत नहिं, धुरविनिआ की वानि॥

तुलसीदास कहते हैं कि गरीब निवाज (दीनबंधु) श्री राम का नाम ऐसा है, जो जपने वाले को भगवान का निज जन जानकर राज्य (प्रजापति का पद या मोक्ष-साम्राज्य तक) दे डालता है। परंतु यह मन ऐसा अविश्वासी और नीच है कि घूरे (कूड़े के ढेर) में पड़े दाने चुगने की ओछी आदत नहीं छोड़ता (अर्थात् गदे विषयो में ही सुख खोजता है)।

तुलसीदास

गैंणा गांठा तन की सोभा, काया काचो भांडो।

फूली कै थे कुती होसो, रांम भजो हे रांडों॥

फूलीबाई

रसना सुमिरे राम कूँ, तो कर्म होइ सब नास।

'देवादास' ऐसी करै, तो पावै सुक्ख बिलास॥

देवादास

होफाँ ल्यो हरनांव की, अमी अमल का दौर।

साफी कर गुरुग्यान की, पियोज आठूँ प्होर॥

लालनाथ

दादू रांम सँभालिये, जब लग सुखी सरीर।

फिर पीछैं पछिताहिगा, जब तन मन धरै धीर॥

तू यौवन और स्वास्थ्य से संपन्न और सुखी है। ऐसी स्थिति में तुझे राम-नाम का स्मरण कर लेना चाहिए। जब शरीर जर्जर, वृद्ध और रोग-ग्रस्त हो जाएगा, तब तू कुछ भी करने योग्य नहीं रहेगा। ऐसी स्थिति में तुझे पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ नहीं बचेगा।

दादू दयाल

धरणीधर व्यापक सबै, धरणि ब्यौम पाताल।

धन्नो कहै धनि साध ते, बिसरै नहिं कहूँ काल॥

धन्ना भगत

धन्ना धिन्न ते मानवी, धरणीधर सूं प्रीति।

राति दिवस बिसरै नहीं, रसना उर मन चीति॥

धन्ना भगत

दादू सिरजन हार के, केते नांव अनंत।

चिति आवै सो लीजिए, यूँ साधू सुमिरैं संत॥

ब्रह्म के अनंत नाम हैं। संतों-सिद्धों ने अपनी रुचि के अनुसार निष्काम भाव से उन नामों का स्मरण करके ब्रह्म-प्राप्ति का प्रयास किया है।

दादू दयाल

हरन अमंगल अघ अखिल, करन सकल कल्यान।

रामनाम नित कहत हर, गावत बेद पुरान॥

राम नाम सब अमंगलों और पापों को हरने वाला तथा सब कल्याणों को करने वाला है। इसी से श्री महादेव जी सर्वदा श्री राम नाम को रटते रहते हैं और वेद-पुराण भी इस नाम का ही गुण गाते हैं।

तुलसीदास

रसना सांपिनी बदन बिल, जे जपहिं हरिनाम।

तुलसी प्रेम राम सों, ताहि बिधाता बाम॥

जो श्री हरि का नाम नहीं जपते, उनकी जीभ सर्पिणी के समान केवल विषय-चर्चा रूपी विष उगलने वाली और मुख उसके बिल के समान है। जिसका राम में प्रेम नही है, उसके लिए तो विधाता वाम ही है (अर्थात् उसका भाग्य फूटा ही है)।

तुलसीदास

सुमिरन तें श्रीपति मिलै, सुमिरन तें सुखसार।

सुमिरन तें परिश्रम बिना, सुन्दर उतरै पार॥

सुंदरदास

हम लखि लखहि हमार लखि, हम हमार के बीच।

तुलसी अलखहि का लखहि, राम नाम जप नीच॥

तू पहले अपने स्वरूप को जान, फिर अपने यथार्थ ब्रह्म के स्वरूप का अनुभव कर। तदनंतर अपने और ब्रह्म के बीच में रहने वाली माया को पहचान। अरे नीच ! (इन तीनों को समझे बिना) तू उस अलख परमात्मा को क्या समझ सकता है? अतः (अलख-अलख चिल्लाना छोडकर) राम नाम का जप कर।

तुलसीदास

पीपा भजतां राम ने, बस तेरस अर तीज।

भूमि पड्यां ही ऊगसी, उल्टो पल्टो बीज॥

संत पीपा

राम नाम कलि कामतरु, राम भगति सुरधेनु।

सकल सुमंगल मूल जग, गुरुपद पंकज रेनु॥

कलियुग में राम नाम मनचाहा फल देने वाले कल्पवृक्ष के समान है, रामभक्ति मुँह माँगी वस्तु देने वाली कामधेनु है और श्री सद्गुरु के चरण कमल की रज संसार में सब प्रकार के मंगलों की जड़ है।

तुलसीदास

कबीर का घर शिखर पर, जहाँ सिलहली गैल।

पाँव टिके पिपीलका, तहाँ खलकन लादै बैल॥

जीव की शाश्वत स्थिति उसके अपने सर्वोच्च स्वरूप चेतन में है। उस तक पहुंचने का रास्ता फिसलन से भरा है। जहां चींटी के पैर नहीं टिकते, वहां संसार के लोग बैल पर सामान लादकर व्यापार करना चाहते हैं।

कबीर

तुलसी हठि-हठि कहत नित, चित सुनि हित करि मानि।

लाभ राम सुमिरन बड़ी, बड़ी बिसारें हानि॥

तुलसी नित्य-निरंतर बड़े आग्रह के साथ कहते हैं कि हे चित्त! तू मेरी बात सुनकर उसे हितकारी समझ। राम का स्मरण ही बड़ा भारी लाभ है और उसे भुलाने में ही सबसे बड़ी हानि है।

तुलसीदास

राम नाम मनिदीप धरु, जीह देहरीं द्वार।

तुलसी भीतर बाहेरहुँ, जौं चाहसि उजिआर॥

तुलसी कहते हैं कि यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर प्रकाश (लौकिक एवं पारमार्थिक ज्ञान) चाहता है तो राम नाम के दीप को अपनी देहरी पर हमेशा जलाए रख अर्थात् अपनी देह की देहरी जीभ पर हमेशा राम-नाम का सुमिरन रखना। इससे तुम्हारे भीतर और बाहर दोनों और चेतना का उजाला रहेगा।

तुलसीदास

बरषा रितु रघुपति भगति, तुलसी सालि सुदास।

रामनाम बर बरन जुग, सावन भादव मास॥

तुलसीदास जी कहते हैं कि श्री रघुनाथ जी की भक्ति वर्षा-ऋतु है, उत्तम सेवकगण (प्रेमी भक्त) धान हैं और राम नाम के दो सुंदर अक्षर सावन-भादों के महीने हैं (अर्थात् जैसे वर्षा-ऋतु के श्रावण, भाद्रपद- इन दो महीनो में धान लहलहा उठता है, वैसे ही भक्ति पूर्वक श्री राम नाम का जप करने से भक्तों को अत्यंत सुख मिलता है।

तुलसीदास

लंक बिभीषन राज कपि, पति मारुति खग मीच।

लही राम सों नाम रति, चाहत तुलसी नीच॥

श्री रामजी से विभीषण ने लंका पायी, सुग्रीव ने राज्य प्राप्त किया, हनुमान जी ने सेवक की पदवी या प्रतिष्ठा पायी और पक्षी जटायु ने देव दुर्लभ उत्तम मृत्यु प्राप्त की। परंतु नीच तुलसीदास तो उन प्रभु श्री राम से केवल राम नाम में प्रेम ही चाहता है।

तुलसीदास

ब्रह्म राम तें नामु बड़, बर दायक बर दानि।

राम चरित सत कोटि महँ, लिय महेस जियँ जानि॥

ब्रह्म और राम से भी राम नाम बड़ा है, वह वर देने वाले देवताओं को भी वर देने वाला है। श्री शंकर जी ने इस रहस्य को मन में समझकर ही राम चरित्र के सौ करोड़ श्लोकों में से (चुनकर दो अक्षर के इस) राम नाम को ही ग्रहण किया।

तुलसीदास

प्रीति प्रतीति सुरीति सों, राम राम जपु राम।

तुलसी तेरो है भलो, आदि मध्य परिनाम॥

तुलसी कहते हैं कि तुम प्रेम, विश्वास और विधि के साथ राम-राम जपो; इससे तुम्हारा आदि, मध्य और अंत तीनों ही कालों में कल्याण है।

तुलसीदास

राम नाम नर केसरी, कनककसिपु कलिकाल।

जापक जन प्रहलाद जिमि, पालिहि दलि सुरसाल॥

श्री राम नाम नृसिंह भगवान् है,कलयुग हिरण्यकशिपु है और श्री राम नाम का जप करने वाले भक्तजन प्रह्लाद जी के समान हैं जिनकी वह राम नाम रूपी नृसिंह भगवान् देवताओं को दुःख देने वाले हिरण्यकशिपु को (भक्ति के बाधक कलियुग को) मारकर रक्षा करेगा।

तुलसीदास

राम नाम कलि कामतरु, सकल सुमंगल कंद।

सुमिरत करतल सिद्धि सब, पग-पग परमानंद॥

श्री राम का नाम कलियुग में कल्पवृक्ष के समान है और सब प्रकार के श्रेष्ठ मंगलों का परम सार है। रामनाम के स्मरण से ही सब सिद्धियाँ वैसे ही प्राप्त हो जाती हैं, जैसे कोई चीज़ हथेली में ही रक्खी हो और पग-पग पर परम आनंद की प्राप्ति होती है।

तुलसीदास

जो जन भीजै रामरस, बिगसित कबहुँ रुख।

अनुभव भाव दरसे, ते नर सुख दुख॥

जो साधक आत्मचिंतन में सदैव डूबे रहते हैं, वे सांसारिक उपलब्धियों में हर्षित होते हैं और उनके चले जाने से शोकित होते हैं। सदैव स्वरूपस्थिति के अनुभव में लीन होने से उन्हें सांसारिक भाव-तरंगें नही प्रभावित कर पातीं। अतएव वे सांसारिक वस्तुओं के मिलने-बिछुड़न में सुखी होते हैं और दुखी होते हैं।

कबीर

मोर-मोर सब कहँ कहसि, तू को कहु निज नाम।

कै चुप साधहि सुनि समुझि, कै तुलसी जपु राम॥

तू सबको मेरा-मेरा कहता है, परंतु यह तो बता कि तू कौन है ? और तेरा अपना नाम क्या है? तुलसी कहते हैं कि अब या तो तू इसको (नाम और रूप के रहस्य को) सुन और समझकर मौन हो जा (मेरा-मेरा कहना छोड़कर अपने स्वरूप में स्थित हो जा) या राम का नाम जप।

तुलसीदास

राम नाम पर नाम तें, प्रीति प्रतीति भरोस।

सो तुलसी सुमिरत सकल, सगुन सुमंगल कोस॥

तुलसीदास जी कहते हैं कि जो राम नाम के परायण हैं और राम नाम में ही जिसका प्रेम, विश्वास और भरोसा है, वह राम नाम का स्मरण करते ही समस्त सद्गुणों और श्रेष्ठ मंगलों का ख़ज़ाना बन जाता है।

तुलसीदास

सबरी गीध सुसेवकनि, सुगति दीन्हि रघुनाथ।

नाम उधारे अमित खल, बेद बिदित गुन गाथ॥

श्री रघुनाथ जी ने तो शबरी, गिद्धराज, जटायु आदि अपने श्रेष्ठ सेवकों को ही सुगति दी; परंतु राम नाम ने तो असंख्य दुष्टों का उद्धार कर दिया। राम नाम की यह गुणगाथा वेदों में प्रसिद्ध है।

तुलसीदास

सकल कामना हीन जे, राम भगति रस लीन।

नाम सुप्रेम पियूष हृद, तिन्हहुँ किए मन मीन॥

जो समस्त कामनाओं से रहित हैं और श्री रामजी के भक्तिरस में डूबे हुए हैं, उन महात्माओं ने भी राम नाम के सुंदर प्रेमरूपी अमृत-सरोवर में अपने मन को मछली बना रक्खा है (अर्थात् नामामृत के आनंद को वे क्षण भर के लिए भी त्यागने में मछली की भांति व्याकुल हो जाते हैं)।

तुलसीदास

राम नाम सुमिरत सुजस, भाजन भए कुजाति।

कुतरुक सुरपुर राज मग, लहत भुवन बिख्याति॥

राम नाम का स्मरण करने से (गणिका एवं अजामिल आदि) अप्रिय स्वभाव वाले भी सुंदर कीर्ति के पात्र हो गए। स्वर्ग के राजमार्ग पर स्थित बुरे वृक्ष भी त्रिभुवन मे ख्याति पा जाते हैं।

तुलसीदास

जथा भूमि सब बीजमय, नखत निवास अकास।

राम नाम सब धरममय, जानत तुलसीदास॥

जैसे सारी धरती बीजमय है, सारा आकाश नक्षत्रों का निवास है, वैसे ही राम नाम सर्वधर्ममय है—तुलसीदास इस रहस्य को जानते हैं।

तुलसीदास

या तन की सारैं करूँ, प्रीत जु पासे लाल।

सतगुरु दाँव बताइया, चौपर रमे जमाल॥

शरीर को गोटें (मोहरें) और प्रीति के पासे हैं, सतगुरु दांव (चाल) बता रहे हैं; और चौपड़ का खेल खेल रहा हूँ।

जमाल

बिगरी जनम अनेक को, सुधरै अबहीं आजु।

होहि राम को नाम जपु, तुलसी तजि कुसमाजु॥

तुलसी कहते हैं कि तू कुसंगति को और चित्त के सारे बुरे विचारों को त्यागकर राम का बन जा और उनके नाम का जप कर। ऐसा करने से तेरी अनेक जन्मों की बिगड़ी हुई स्थिति अभी सुधर सकती है।

तुलसीदास

जल थल नभ गति अमित अति, अग जगजीव अनेक।

तुलसी तो से दीन कहँ, राम नाम गति एक॥

जगत में चर-अचर अनेक प्रकार के असंख्य जीव हैं और चरों मे कुछ ऐसे हैं जिनकी जल में गति है; कुछ की पृथ्वी पर गति है और कुछ की आकाश में गति है; परंतु हे तुलसीदास! तुझ-सरीखे दीन के लिए तो राम नाम ही एक मात्र गति है।

तुलसीदास

राम नाम जिन चीन्हिया, झीना पिंजर तासु।

नैन आवै नींदरी, अंग जामें माँसु॥

जिसका नाम राम है उस आत्मतत्व की जिन्होंने परख की, उसका शरीर दुर्बल होता है, उसके नेत्रों में नींद नहीं आती तथा उसके अंगों में मांस नहीं बढ़ता।

कबीर

तुलसी प्रीति प्रतीति सों, राम नाम जप जाग।

किएँ होइ बिधि दाहिनो, देइ अभागेहि भाग॥

तुलसीदास जी कहते हैं कि प्रेम और विश्वास के साथ राम-नाम-जप रूपी यज्ञ करने से विधाता अनुकूल हो जाता है और अभागे मनुष्य को भी परम भाग्यवान् बना देता है।

तुलसीदास

लव निमेष परमानु जुग, बरस कलप सर चंड।

भजसि मन तेहि राम कहँ, कालु जासु कोदंड॥

हे मन! तू उन श्री राम को क्यों नही भजता; जिनका काल तो धनुष है और लव, निमेष, परमाणु, युग, वर्ष और काल जिनके प्रचंड बाण हैं।

तुलसीदास

दादू रांम तुम्हारे नांव बिनं जे मुख निकसै और।

तौ इस अपराधी जीव कूँ, तीनि लोक कत ठौर॥

हे राम! आपके नाम के बिना जो कोई शब्द मुख से निकलता है, तो वह महा अपराधी होता है। ऐसे अपराधी को तीनों लोकों में भटकने पर भी कोई सुख नहीं मिलता है।

दादू दयाल

रैदास मदुरा का पीजिए, जो चढ़ै उतराय।

नांव महारस पीजियै, जौ चढ़ै उतराय॥

रैदास कहते हैं कि मदिरा का सेवन करने से क्या लाभ जिसका नशा चढ़ता है और शीघ्र ही उतर जाता है? इसकी जगह राम नाम रूपी महारस का पान करो। इसका नशा यदि एक बार चढ़ जाता है तो फिर कभी नहीं उतरता।

रैदास