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रसिक संप्रदाय पर दोहे

जयति जयति सर्वेश्वरी, जन रक्षक सुखदानि।

जय समर्थ अह्लादिनी, सक्ति सील गुन खानि॥

प्रेमलता

गलबहियाँ कब देखिहौं, इन नयमन सियराम।

कोटि चन्द्र छबि जगमगी, लज्जित कोटिन काम॥

रूपसरस

हँस बीरी रघुबर लई, सिय मुख पंकज दीन।

सिया लीन कर कंज में, प्रीतम मुख धरि दीन॥

रूपसरस

सिया अलिनि की को कहै, सुख सुहाग अनुराग।

विधि हरिहर लखि थकि रहे, जानि छोट निज भाग॥

प्रेमलता

दंपति प्रेम पयोधि में, जो दृग देत सुभाय।

सुधि बुधि सब बिसरत तहाँ, रहे सु विस्मै पाय॥

बाल अली

हिलि मिलि झूलत डोल दोउ, अलि हिय हरने लाल।

लसी युगल गल एक ही, सुसम कुसुम मय माल॥

बाल अली

महा मधुर रस धाम श्री, सीता नाम ललाम।

झलक सुमन भासत कबहुँ, होत जोत अभिराम॥

युगलान्यशरण

जैति सिया तड़िता बरण, मेघ बरण जय राम।

जै सिय रति मद नाशिनी, जै रति पति जित साम॥

हरिहर प्रसाद

दास दासि अरु सखि सखा, इनमें निज रुचि एक।

नातो करि सिय राम सों, सेवै भाव विवेक॥

रसिक अली

हे सीते नृप नंदिनी, हे प्रीतम चितचोर।

नवल बधू की वीटिका, लीजे नवल किशोर॥

रूपसरस

रघुबर प्यारी लाड़ली, लाड़लि प्यारे राम।

कनक भवन की कुंज में, बिहरत है सुखधाम॥

रूपसरस

बिहरत गलबाहीं दिये, सिय रघुनन्दन भोर।

चहुँ दिशि ते घेरे फिरत, केकी भँवर चकोर॥

हरिहर प्रसाद

जानकीवल्लभ नाम अति, मधुर रसिक उर ऐन।

बसे हमेशे तोम तम, शमन करन चित्त चैन॥

युगलान्यशरण

राम चरन दुख मिटत है, ज्यों विरही अतिहीर।

राम बिरह सर हिय लगे, तन भरि कसकत पीर॥

रामचरणदास

राम चरन मदिरादि मद, रहत घरी दुइ जाम।

बिरह अनल उतरै नहीं, जब लगि मिलहिं राम॥

रामचरणदास

सुंदर गलबहियाँ दिये, लालन लसे अनूप।

तन मन प्राण कपोल दृग, मिलत भये इक रूप॥

बाल अली

राम चरन रबिमनि श्रवत, निरषि बिरहिनी पीव।

अग्नि निरषि जिमि घृत द्रवत, राम रूप लखि जीव॥

रामचरणदास

कबहुँक सुंदर डोल महि, राजत युगल किशोर।

अद्भुत छवि बाढ़ी तहाँ, ठाढ़ी अलि चहुँ ओर॥

बाल अली

गौर श्याम बिचरत पये, मनहुँ किहैं इक देह।

सौहैं मन मोहैं ललन, कोहैं हरतिय नेह॥

बाल अली

विधि हरिहर जाकहँ जपत, रहत त्यागि सब काम।

सो रघुबर मन महँ सदा, सिय को सुमिरत नाम॥

हरिहर प्रसाद

होरी रास हिंडोलना, महलन अरु शिकार।

इन्ह लीलन की भावना, करे निज भावनुसार॥

रसिक अली

नील पीत छबि सो परे, पहिरे बसन सुरंग।

जनु दंपति यह रूप ह्वै, परसत प्यारे अंग॥

बाल अली

नेह सरोवर कुँवर दोउ, रहे फूलि नव कंज।

अनुरागी अलि अलिन के, लपटे लोचन मंजु॥

बाल अली

इत कलँगी उत चन्द्रिका, कुंडल तरिवन कान।

सिय सिय बल्लभ मों सदा, बसो हिये बिच आन॥

हरिहर प्रसाद

जो भीजै रसराज रस, अरस अनेक बिहाय।

तिनको केवल जानकी, वल्लभ नाम सहाय॥

युगलान्यशरण

नाम गाम में रुचि सदा, यह नव लक्षण होइ।

सिय रघुनंदन मिलन को, अधिकारी लखु सोइ॥

रसिक अली

पिय कुंडल तिय अलक सों, कर-कंकण सौ माल।

मन सो मन दृग दृगन सों, रहे उरझि दोउ लाल॥

बाल अली

यथा विषय परिनाम में, बिसर जात सुधि देह।

सुमिरत श्री सिय नाम गुन, कब इमि होय सनेह॥

युगलान्यशरण

यद्यपि दंपति परसपर, सदा प्रेम रस लीन।

रहे अपन पौ हारि कै, पै पिय अधिक अधीन॥

बाल अली

बसै अवध मिथिलाथवा, त्यागि सकल जिस आस।

मिलिहैं सिय रघुनंद मोहिं, अस करि दृढ़ विश्वास॥

रसिक अली

दरस पिआस निरास सब, स्वांस-स्वांस प्रतिनाम।

रटे घटे पल पाव नहिं, कबहूँ बिरह ललाम॥

युगलान्यशरण

तीनों बुध कहत हैं, श्रद्धा के अनुभाव।

श्रद्धा संपति होय घर, तब बस्तु की चाव॥

रसिक अली

लता लवंग कदंब तर, तर दृग पुलकित गात।

जयति जानकी सुजय जय, जपिहों तजि जग नात॥

युगलान्यशरण

कुसुम क्रीट कवरी गुही, रंग कुम-कुम मुख कंज।

अंजन अंजित युगल दृग, नासा बेसरि मंजु॥

बाल अली

श्री रघुनंदन नाम नित, करे जो कोटि उचार।

ताते अधिक प्रसन्न पिय, सुनि सिय एकहु बार॥

युगलान्यशरण

रसने तू नव नागरी, गुनन आगरी नाम।

क्यों भजै संकोच तजि, सजि मन मोद ललाम॥

युगलान्यशरण

है सिय बर तब इश्क में, मुझे तकार पकार।

गहे रहत त्यागत नहीं, बिह्वल करौं पुकार॥

युगलान्यशरण

नाभि गंभीर कि भ्रमर यह, नेह निरजगा माहिं।

ता महँ पिय मन मगन ह्वै, नेकहु निकर्यौ नाहिं॥

बाल अली

संजन सफरी से चपल, अनियारे युग बान।

जनु युवती एती हतन, भौंह चाप संधान॥

रसिक अली

है अलि सुंदरि उरज युग, रहे तव उरजु प्रकाश।

नवल नेह के फंद द्वै, अतिपिय सुख की रासि॥

बाल अली

ज्ञान योग आश्रय करत, त्यागि के भक्ति उदार।

बालिस छाँह बबूर की, बैठत तजि सहकार॥

रसिक अली

ललित कसन कटि वसन की, ललित तलटकनी चाल।

ललित धनुष करसर धरनि, ललिताई निधिलाल॥

रसिक अली

भुक्ति मुक्ति की कामना, रही रंचक हीय।

जूठन खाय अघाय नित, नाम रटों सिय पीय॥

युगलान्यशरण

सखी किंकरी भाव भल, धारि सुर सने नित्त।

रमो निरंतर नाम सिय, निज हिय खोल सुचित्त॥

युगलान्यशरण

एक चित्त कोउ एक बय, एक नैह इक प्राण।

एक रूप इक वेश ह्वै, क्रीड़त कुँवर सुजान॥

बाल अली

जंघ युगल तव जनक जे, अकि ग्रह उत्सव रंभ।

पिया प्रेम कै भवन कै, किधौ सुंदर बरखंभ॥

बाल अली

लस्यो श्याम तव तन कस्यो, कंचुकि बसन बनाय।

राखे हैं मनो प्राण पति, हिये लगाय दुराय॥

बाल अली

बंदौं सीताकांत सुख, रस शृंगार स्वरूप।

रसिकराज रसरंगमणि, सखा सुबंधु अनूप॥

रामरसरंगमणि

श्रुति कुंडल भल दशन दुति, अरुण अधर छवि ऐन।

हित सौ हँसि बोलहि पिय, हिय हरने मृदु बैन॥

बाल अली

कब नैननि भरि देखिहौं, राम रूप प्रति अंग।

राम चरन जिमि दीप छबि, लखि मरि जात पतंग॥

रामचरणदास