राधा पर दोहे

कृष्ण-भक्ति काव्यधारा

में राधा-कृष्ण की लीलाओं का वर्णन प्रमुख विषय रहा है। राधा कृष्ण की सहचरी के रूप में अराध्य देवी हैं, जिनके नाम का अर्थ पूर्णता और सफलता है। राधा-कृष्ण को शाश्वत युगल कहा जाता है और राधा के बिना कृष्ण अपूर्ण कहे गए हैं। प्रस्तुत चयन में राधा की महत्ता की स्थापना करते काव्य-रूपों का संकलन किया गया है।

तेरी मुख-समता करी, साहस करि निरसंक।

धूरि परी अरबिंद मुख, चंदहि लग्यौ कलंक॥

हे राधिके, कमल और चंद्रमा ने तुम्हारे मुख की समता करने का साहस किया, इसलिए मानो कमल के मुख पर तो पुष्परज के कण रूप में धूल पड़ गई, और चंद्रमा को कलंक लग गया। यद्यपि कमल में पराग और चाँद में कलंक स्वाभाविक है तथापि उसका यहाँ एक दूसरा कारण राधा के मुख की समता बताया गया है।

मतिराम

सुबरन बेलि तमाल सौं, घन सौं दामिनी देह।

तूँ राजति घनस्याम सौं, राधे सरिस सनेह॥

सोने की बेल तमाल वृक्ष से और बादल से बिजली का शरीर जिस प्रकार शोभित होता है, हे राधिका! सदृश स्नेह के कारण तू वैसे ही घनश्याम से शोभित होती है। भाव यह है कि तमाल वृक्ष, बादल और कृष्ण, इन तीनों श्याम वर्ण वालों से स्वर्णलता, बिजली और राधिका ये तीनों गौर वर्ण वाली अत्यंत सुशोभित होती हैं।

मतिराम

प्रेम-रसासव छकि दोऊ, करत बिलास विनोद।

चढ़त रहत, उतरत नहीं, गौर स्याम-छबि मोद॥

ध्रुवदास

पूरन प्रेम प्रकास के, परी पयोनिधि पूरि।

जय श्रीराधा रसभरी, स्याम सजीवनमूरि॥

हरिव्यास देव

बैठक स्वामी अद्भुती, राधा निरख निहार।

और कोई लख सके, शोभा अगम अपार॥

संत शिवदयाल सिंह

मुकुत-हार हरि कै हियैं, मरकत मनिमय होत।

पुनि पावत रुचि राधिका, मुख मुसक्यानि उदोत॥

श्रीकृष्ण के हृदय पर पड़ा हुआ सफ़ेद मोतियों का हार भी उनके शरीर की श्याम कांति से मरकत मणि-नीलम-के हार के समान दिखाई देता है। किंतु राधा के मुख की मुस्कराहट की श्वेत-कांति से नीलम का-सा बना हुआ वह मोतियों का हार फिर श्वेत-वर्ण कांति वाला बन जाता है।

मतिराम

तजि तीरथ, हरि-राधिका, तन-दुति करि अनुरागु।

जिहिं ब्रज-केलि-निकुंज-मग, पग-पग होत प्रयागु॥

कवि कह रहा है कि तू तीर्थ छोड़कर श्रीकृष्ण एवं राधिका की शारीरिक कांति के प्रति अपना अनुराग बढ़ा ले जिससे कि ब्रज के विहार निकुंजों के पथ में प्रत्येक पथ पर तीर्थराज प्रयाग बन जाता है। भाव यह है कि श्रीकृष्ण एवं राधा के प्रति भक्ति बढ़ाने से करोड़ों तीर्थराज जाने का फल प्राप्त होता है।

बिहारी

राधा हरि, हरि राधिका, बनि आए संकेत।

दंपति रति-बिपरीत-सुखु, सहज सुरतहूँ लेत॥

श्री राधा श्रीकृष्ण का रूप और कृष्ण राधाजी का रूप धारण कर मिलन-स्थल पर गए हैं। वे दोनों स्वाभाविक रति में निमग्न हैं, फिर भी विपरीत संभोग का आनंद ले रहे हैं। यहाँ विपरीत रति का आनंद स्वरूप-परिवर्तन के कारण कल्पित किया गया है।

बिहारी

राधे की बेसर बिचै, बनी अमोलक बाल।

नंदकुमार निरखत रहैं, आठों पहर जमाल॥

नथ पहनने पर राधिका अत्यंत मोहक हो जाती थीं, इसलिए श्री कृष्ण आठों पहर उनके रूप को देखते रहने पर भी अघाते नहीं हैं।

जमाल

राधा मोहन-लाल को, जाहि भावत नेह।

परियौ मुठी हज़ार दस, ताकी आँखिनि खेह॥

जिनको राधा और कृष्ण का प्रेम अच्छा नहीं लगता, उनकी आँखों में दस हज़ार मुट्ठी धूल पड़ जाए। भाव यह कि जो राधा-कृष्ण के प्रेम को बुरा समझते हैं, उन्हें लाख बार धिक्कार है।

मतिराम

दंपति चरण सरोज पै, जो अलि मन मंडराई।

तिहि के दासन दास कौ, रसनिधि अंग सुहाइ॥

श्री राधाकृष्ण के चरण-कमलों पर जिनका मनरूपी भ्रमर मँडराता रहता है, उनके दासों के भी दास की संगति मुझे बहुत सुहानी लगती है।

रसनिधि

सुमन-बाटिका-बिपिन में, ह्वै हौं कब मैं फूल।

कोमल कर दोउ भावते, धरिहैं बीनि दुकूल॥

वह दिन कब आएगा जब मैं पुष्पवाटिकाओं अर्थात् फूलों की बग़ीची या बाग़ों में ऐसा फूल बन जाऊँगा जिसे चुन-चुनकर प्रियतम श्रीकृष्ण और राधिका अपने दुपट्टे में धर लिया करेगी।

ललितकिशोरी

कब हौं सेवा-कुंज में, ह्वै हौं स्याम तमाल।

लतिका कर गहि बिरमिहैं, ललित लड़ैतीलाल॥

मैं वृंदावन के सेवा-कुंज में कब ऐसा श्याम तमाल वृक्ष बन जाऊँगा जिसकी लताओं या शाखाओं को पकड़ कर प्रियतम श्रीकृष्ण विश्राम किया करेंगे।

ललितकिशोरी

पीतांबर परिधान प्रभु, राधा नील निचोल।

अंग रंग सँग परस्पर, यों सब हारद तोल॥

प्रभु पीतांबर धारण करते हैं और राधा नीली ओढ़नी पहनती है। इसका हारद तोल (हार्दिक भाव का रहस्य मर्म) यह है कि ऐसा करने से दोनों को (प्रिय के) अंग रंग के संग होने की प्रतीति होती है।

दयाराम

दंपति प्रेम पयोधि में, जो दृग देत सुभाय।

सुधि बुधि सब बिसरत तहाँ, रहे सु विस्मै पाय॥

बाल अली

हिलि मिलि झूलत डोल दोउ, अलि हिय हरने लाल।

लसी युगल गल एक ही, सुसम कुसुम मय माल॥

बाल अली

यद्यपि दंपति परसपर, सदा प्रेम रस लीन।

रहे अपन पौ हारि कै, पै पिय अधिक अधीन॥

बाल अली

नेह सरोवर कुँवर दोउ, रहे फूलि नव कंज।

अनुरागी अलि अलिन के, लपटे लोचन मंजु॥

बाल अली

पिय कुंडल तिय अलक सों, कर-कंकण सौ माल।

मन सो मन दृग दृगन सों, रहे उरझि दोउ लाल॥

बाल अली

नील पीत छबि सो परे, पहिरे बसन सुरंग।

जनु दंपति यह रूप ह्वै, परसत प्यारे अंग॥

बाल अली

हरि राधा राधा भई हरि, निसि दिन के ध्यान।

राधा मुख राधा लगी, रट कान्हर मुख कान॥

विक्रम

गौर श्याम बिचरत पये, मनहुँ किहैं इक देह।

सौहैं मन मोहैं ललन, कोहैं हरतिय नेह॥

बाल अली

कूल कलिंदी नीप तर, सोहत अति अभिराम।

यह छबि मेरे मन बसो, निसि दिन स्यामा स्याम॥

विक्रम

कबहुँक सुंदर डोल महि, राजत युगल किशोर।

अद्भुत छवि बाढ़ी तहाँ, ठाढ़ी अलि चहुँ ओर॥

बाल अली

सुंदर गलबहियाँ दिये, लालन लसे अनूप।

तन मन प्राण कपोल दृग, मिलत भये इक रूप॥

बाल अली

रसनिधि रसिक किसोरबिबि, सहचरि परम प्रबीन।

महाप्रेम-रस-मोद में, रहति निरंतर लीन॥

ध्रुवदास

मकराकृत कुंडल स्रवन, पीतवरन तन ईस।

सहित राधिका मो हृदय, बास करो गोपीस॥

सत्यनारायण कविरत्न

सुख निद्रा पौढ़े अरघ, नारी स्वर से होय।

प्रेम समाधि लगी मनौ, सखि जानत सुख सोय॥

बाल अली

रति-मदहर-वृषभानुजा, मूठि गुलालहि संग।

भेंट कियो ब्रजराज को, चंचल चित्त मतंग॥

मोहन

श्याम बरण अंबरन को, सुकृत सराहत लाल।

छराहरा अंग राग भो, चाहत नैन बिसाल॥

बाल अली

सरद-रैनि स्यामा सुभग, सोवति माधौ-संग।

उर उछाह लिपटति सुघर, राजत अंग अनंग॥

मोहन

काया कुंज निकुंज मन, नैंन द्वार अभिराम।

‘भगवत' हृदय-सरोज सुख, विलसत स्यामा-स्याम॥

भगवत रसिक

कुँवरि छबीली अमित छवि, छिन-छिन औरै और।

रहि गये चितवत चित्र से, परम रसिक शिरमौर॥

ध्रुवदास

अज सिव सिद्ध सुरेस मुख, जपत रहत निसिजाम।

बाधा जन की हरत है, राधा राधा नाम॥

श्री हठी

श्रीराधा वृषभानुजा, कृष्ण-प्रिया हरि-सक्ति।

देहु अचल निज पदन की, परमपावनी भक्ति॥

सत्यनारायण कविरत्न

स्याम दुति ईठि तुव, कोऊ लखति ईठि।

तुम राधा संग ही दुरो, परति राधिका दीठि॥

भूपति

जे तुमको दोषी कहत, ते नहिं मोहिं सुहात।

तुम इन राधा-नयन मैं, स्याम सदा अवदात॥

मोहन

राधा राधा कहत हैं, जे नर आठौ जाम।

ते भवसिंधु उलंघि कै, बसत सदा ब्रजधाम॥

श्री हठी

राधा राधा जे कहैं, ते परैं भव-फंद।

जासु कन्ध पर कमलकर, धरे रहत ब्रजचंद॥

श्री हठी

श्री बृषभानु-कुमारि के, पग बंदौ कर जोर।

जे निसिबासर उर धरै, ब्रज बसि नंद-किसोर॥

श्री हठी

सबसौ हित निहकाम मन, बृंदाबन बन विस्राम।

राधावल्लभ लाल कौ, हृदय ध्यान, मुख नाम॥

हितहरिवंश

रसना कटौ जु अन रटौ, निरखि अन फुटौ नैन।

स्रवन फुटौ जो अन सुनौ, बिनु राधा-जसु बैन॥

हितहरिवंश

राधे कलिका कमल की, अलि है रसिक मुरार।

मधु-सुबास-बिन बस भये, अचरज होत अपार॥

मोहन

ब्रजदेवी के प्रेम की, बँधी धुजा अति दूरि।

ब्रह्मादिक बांछत रहैं, तिनके पद की धूरि॥

ध्रुवदास

श्रीराधा बाधा हरनि,-नेह अगाधा-साथ।

निहचल नयन-निकुंज में, नचौ निरंतर नाथ॥

दुलारेलाल भार्गव

श्री नंदलाल तमाल सो, स्यामल तन दरसाय।

ता तन सुबरन बेलि सी, राधा रही समाय॥

ऋषिनाथ

निकसि कुंज ठाढ़े भये, भुजा परस्पर अंस।

राधावल्लभ-मुख-कमल,निरखत ‘हित हरिबंस'॥

हितहरिवंश

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