रसनिधि की संपूर्ण रचनाएँ
दोहा 95
मोहन लखि जो बढ़त सुख, सो कछु कहत बनै न।
नैनन कै रसना नहीं, रसना कै नहिं नैन॥
श्रीकृष्ण को देखकर जैसा दिव्य आनंद प्राप्त होता है, उस आनंद का कोई वर्णन नहीं कर सकता, क्योंकि जो आँखें देखती हैं, उनके तो कोई जीभ नहीं है जो वर्णन कर सकें, और जो जीभ वर्णन कर सकती है उसके आँखें नहीं है। बिना देखे वह बेचारी जीभ उसका क्या वर्णन कर सकती है!
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तोय मोल मैं देत हौ, छीरहि सरिस बढ़ाइ।
आँच न लागन देत वह, आप पहिल जर जाइ॥
दूध पानी को अपने में मिलाकर उसका मूल्य अपने ही समान बना देता है। पर जब दूध को आग पर गर्म किया जाता है तो दूध से पहले पानी अपने को जला लेता है और दूध को बचा लेता है। मित्रता हो तो दूध और पानी जैसी हो।
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मन मैला मन निरमला, मन दाता मन सूम।
मन ज्ञानी अज्ञान मन, मनहिं मचाई धूम॥
रसनिधि कवि कहते हैं कि मन ही मैला या अपवित्र है और मन ही पवित्र है, मन ही दानी है और मन ही कंजूस है। मन ही ज्ञानी है, और मन ही अज्ञानी है। इस प्रकार मन ने सारे संसार में अपनी धूम मचा रखी है।
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