वियोग पर दोहे
वियोग संयोग के अभाव
या मिलाप न होने की स्थिति और भाव है। शृंगार में यह एक रस की निष्पत्ति का पर्याय है। माना जाता है कि वियोग की दशा तीन प्रकार की होती है—पूर्वराग, मान और प्रवास। प्रस्तुत चयन में वियोग के भाव दर्शाती कविताओं का संकलन किया गया है।
जौं रोऊँ तौ बल घटै, हँसौं तौ राम रिसाइ।
मनहीं माँहि बिसूरणां, ज्यूँ धुँण काठहिं खाइ॥
यदि आत्मारूपी विरहिणी प्रिय के वियोग में रोती है, तो उसकी शक्ति क्षीण होती है और यदि हँसती है, तो परमात्मा नाराज़ हो जाते हैं। वह मन ही मन दुःख से अभिभूत होकर चिंता करती है और इस तरह की स्थिति में उसका शरीर अंदर−अंदर वैसे ही खोखला होता जाता है, जैसे घुन लकड़ी को अंदर−अंदर खा जाता है।
बिरह जिलानी मैं जलौं, जलती जलहर जाऊँ।
मो देख्याँ जलहर जलै, संतौ कहा बुझाऊँ॥
विरहिणी कहती है कि विरह में जलती हुई मैं सरोवर (या जल-स्थान)
के पास गई। वहाँ मैंने देखा कि मेरे विरह की आग से जलाशय भी जल रहा है। हे संतो! बताइए मैं अपनी विरह की आग को कहाँ बुझाऊँ?
लाल लली ललि लाल की, लै लागी लखि लोल।
त्याय दे री लय लायकर, दुहु कहि सुनि चित डोल॥
लाल को लली से और लली को लाल से मिलने की इच्छा है। दोनों मुझे कहते हैं, अरी तू उससे मुझे मिलाकर विरहाग्नि को शांत कर। इनकी बातें सुनते-सुनते मेरा भी चित्त विचलित हो गया है।
चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभाति।
जे जन बिछूटे राम सूँ, ते दिन मिले न राति॥
रात के समय में अपने प्रिय से बिछुड़ी हुई चकवी (एक प्रकार का पक्षी) प्रातः होने पर अपने प्रिय से मिल गई। किंतु जो लोग राम से विलग हुए हैं, वे न तो दिन में मिल पाते हैं और न रात में।
मरनु भलौ बरु बिरह तैं, यह निहचय करि जोइ।
मरन मिटै दुखु एक कौ, बिरह दुहूँ दुखु होइ॥
एक सखी नायिका से कह रही है कि किसी पड़ौसिन ने मृत्यु को विरह से श्रेष्ठ समझकर मरने का निश्चय कर लिया है। वास्तव में उसने ठीक ही किया है, क्योंकि विरह के ताप में धीरे-धीरे जलते हुए मरने से एक साथ मरना कहीं अधिक श्रेयस्कर है। कारण यह भी है कि मरने से केवल प्रिय को दुख होगा, किंतु प्रिया विरह के दुख से सदैव के लिए मुक्त हो जाएगी। विरह में तो प्रेमी और प्रिय दोनों को दुख होता है, किंतु मृत्यु में केवल प्रेमी को दुख होगा।
अंषड़ियाँ झाँई पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि॥
प्रियतम का रास्ता देखते-देखते आत्मा रूपी विरहिणी की आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा है। उसकी दृष्टि मंद पड़ गई है। प्रिय राम की पुकार लगाते-लगाते उसकी जीभ में छाले पड़ गए हैं।
पिय-सङ्गमि कउ निद्दडी पिअहो परोक्खहो केम्व।
मइँ विन्नि वि विन्नासिआ निद्द न एम्व न तेम्व॥
प्रिय के संगम में नींद कहाँ! प्रिय के वियोग में भी नींद कैसी! मैं दोनों ही प्रकार विनष्ट हुई; नींद न यों न त्यों।
हृदय कूप, मन रहँट, सुधि-माल, रस राग।
बिरह बृषभ, बरखा नयन, क्यों न सिंचै तन-बाग॥
सुंदर बिरहनि अति दुखी, पीव मिलन की चाह।
निस दिन बैठी अनमनी, नैननि नीर प्रबाह॥
जीव जले विरह अग्नि में, क्यों कर सीतल होय।
बिन बरषा पिया बचन के, गई तरावत खोय॥
औरै भाँति भएऽब, ए चौसरु, चंदनु, चंदु।
पति-बिनु अति पारतु बिपति, मारतु मारुतु मंदु॥
प्रस्तुत दोहे में एक विरह-निपीड़ता नायिका के संताप की शांति के लिए उसकी सखी पुष्पों की माला आदि शीतल पदार्थ जुटाती है। विरह का ताप इतना अधिक है कि नायिका को इस प्रकार के पदार्थ भी अच्छे नहीं लगते हैं। वह इन पदार्थों को देखकर और अपनी मन:स्थिति के अनुसार अपनी सखी से कहती है कि हे सखी, ध्यान से सुन कि अब तो पुष्पों की यह माला, चंदन और चंद्रमा आदि सभी शीतल पदार्थ मेरे लिए कुछ और प्रकार के हो गए हैं। भाव यह है कि ये सभी वस्तुएँ शीतल हैं, किंतु मेरी वर्तमान स्थिति में ये सभी मुझे दुःखद प्रतीत हो रही हैं। इतना ही नहीं, प्रिय के बिना शीतल मन्द पवन भी मुझे दाहक प्रतीत हो रहा है। संकेत यह है कि संयोग के सुखद क्षणों में जो वस्तुएँ शीतल और आनंददायक प्रतीत होती हैं, वे सभी अब प्रिय के अभाव में कष्टदायक प्रतीत हो रही हैं।
विरह-दग्ध नायिका अपनी सहेली से कहती है कि कि अब तो पुष्पों की यह माला, चंदन और चंद्रमा आदि सभी शीतल पदार्थ मेरे लिए कुछ और प्रकार के हो गए हैं। भाव यह है कि ये सभी वस्तुएँ शीतल हैं, किंतु मेरी वर्तमान स्थिति में ये सभी मुझे दुःखद प्रतीत हो रही हैं। इतना ही नहीं, प्रिय के बिना शीतल मंद पवन भी मुझे दाहक प्रतीत हो रहा है। संकेत यह है कि संयोग के सुखद क्षणों में जो वस्तुएँ शीतल और आनंददायक प्रतीत होती हैं, वे सभी अब प्रिय के अभाव में कष्टदायक प्रतीत हो रही हैं।
दादू इस संसार में, मुझ सा दुखी न कोइ।
पीव मिलन के कारनैं, मैं जल भरिया रोइ॥
ना बहु मिलै न मैं सुखी, कहु क्यूँ जीवनि होइ।
जिनि मुझ कौं घाइल किया, मेरी दारू सोइ॥
इस संसार में मेरे जैसा कोई दु:खी नहीं है। प्रियतम की विरह-वेदना के कारण, रोते-रोते मेरे नेत्र हमेशा अश्रुओं से भरे रहते हैं। न वे (प्रियतम) मिलते हैं, न मैं सुखी होती हूँ। फिर मेरा जीना कैसे संभव हो सकेगा? जिन्होंने अपने विरह-बाण से मुझे घायल किया है, वही ब्रह्म (उनका साक्षात्कार) मेरी औषधि हैं। अर्थात् वही मेरी वेदना को दूर करने वाले हैं।
या तन की भट्टी करूँ, मन कूँ करूँ कलाल।
नैणाँ का प्याला करूँ, भर-भर पियो जमाल॥
इस शरीर को भट्टी (आसव के बनाने का चूल्हा) और मन को कलाल (मदिरा विक्रेता) बना लूँगी। पर तुम नयनों के प्यालों में प्रेम (भक्ति) की मदिरा भर-भर कब पिओगे।
वाही की चित चटपटी, धरत अटपटे पाइ।
लपट बुझावत बिरह की, कपट-भरेऊ आइ॥
हे प्रियतम, तुम अपनी प्रेयसी के प्रेम-रंग में ऐसे रंग गए हो कि तुम्हारा इस प्रकार का आचरण तुम्हारे कपट भाव को ही व्यक्त कर रहा है। इतने पर भी मैं तुम्हारे कपट भावजनित मिलन को भी अपना सौभाग्य मानती हूँ। मेरे सौभाग्य का कारण यह है कि तुम कम-से-कम मेरे पास आकर दर्शन देते हुए मेरी विरह-ज्वाला को शांत तो कर रहे हो।
मुकता सुख-अँसुआ भए, भयौ ताग उर-प्यार।
बरुनि-सुई तें गूँथि दृग, देत हार उपहार॥
बिरहारति तें रति बढ़ै, पै रुचि बढन न कोय।
प्यासो ज़ख्मी जिए तहूँ, लह्यो न त्यागें तोय॥
विरह की पीड़ा से प्रेम बढ़ता है, पर इस तरह (विरह सहकर) प्रेम को बढ़ाने की रुचि किसी की भी नहीं होती। वैसे ही जैसे प्यासा घायल यह जानते हुए भी कि वह तभी जीवित रहेगा जब वह पानी न पिए, पर प्राप्त जल को वह नहीं त्याग पाता।
फिरि फिरि चितु उत हीं रहतु, टूटी लाज की लाव।
अंग-अंग छबि झौंर में, भयौ भौंर की नाव॥
हे सखि, जिस क्षण से नायक को देखा है उसी क्षण से मेरा मन उस पर इतना अधिक रूपासक्त हो गया है कि उसने उस लज्जा रूपी डोरी को जिसके सहारे वह उसे नायक के पास से हटाती थी, तोड़ डाला है। अब यह चित्त नायक के अंग-प्रत्यंग की छवि के वात्याचक्र में उसी प्रकार फँसकर रह जाता है जिस प्रकार कोई नाव जो किनारे से बाँधने वाली रस्सी के टूट जाने पर भँवर में फँसकर रह जाती है।
मैं तोसौं कैवा कह्यौ, तू जिन इन्है पत्याइ।
लगा लगी करि लोइननु, उर मैं लाई लाइ॥
मैंने तुझसे कितनी बार कहा है कि तू इन नेत्रों पर विश्वास मत किया कर। तूने इन नेत्रों पर विश्वास किया। अतः इन्होंने प्रिय से मेल-जोल किया और तेरे हृदय में विरह की अग्नि लगा दी। भाव यह है कि नेत्रों से नेत्रों का मिलना हृदय में प्रेमाग्नि उत्पन्न करता है। यही प्रेमाग्नि कष्टकारक हो जाती है।
जानराय! जानत सबैं, असरगत की बात।
क्यौं अज्ञान लौं करत फिरि, मो घायल पर घात॥
हे सुजान! तुम मेरे मन की सभी बातें जानती हो। तुम जानती हो कि मैं घायल हूँ। घायल पर चोट करना अनुचित है, इसे भी तुम जानती होंगी, सुजानराय जो ठहरीं। फिर भी तुम मुझ घायल पर आघात कर रही हो, यह अजान की भाँति आचरण क्यों कर रही हो! तुम्हारे नाम और आचरण में वैषम्य है।
जब-जब वै सुधि कीजियै, तब-तब सब सुधि जाँहि।
आँखिनु आँखि लगी रहैं, आँखें लागति नाहि॥
नायिका अपनी विरह-दशा को निवेदित करते हुए कह रही है कि हे सखी, जब-जब मैं प्रियतम का स्मरण करती हूँ, तब व्यथा का भार बढ़ जाता है और मैं अपनी सुध-बुध खो बैठती हूँ। मैं विरह में पड़ी हुई निरंतर अपने मन में प्रिय के आगमन की प्रतीक्षा करती रहती हूँ और व्याकुल होती रहती हूँ। इस स्थिति के कारण बहुत प्रयत्न करने पर भी मुझे किसी भी विधि से नींद नहीं आती है।
पीव पुकारै बिरहणीं निस दिन रहै उदास।
रांम रांम दादू कहै, तालाबेली प्यास॥
विरहिणी अत्यंत बेचैनी और दर्शनों की लालसा से अपने प्रियतम को पुकार रही है। दादू कहते हैं कि वह रात-दिन राम-राम रटती हुई दर्शन की प्यास में खिन्न बनी रहती है।
प्यारे मोकौं तीर दिहु, पै जिन देहु कमान।
कमांन लागत तीर सैम, तीर लगत प्रियप्रांन॥
प्रिय देना ही है तो तुम मुझे तीर (निकटता) दो; कमान (अपमान) मुझे न दो। यदि आपने मुझे कमान (अपमान) दिया तो वह बाण के सदृश मुझे चुभेगा और यदि तुम मुझे तीर (निकट रहने का अवसर) दोगे तो वह मेरे प्राणों को अत्यंत प्रिय लगेगा।
धिक मो कहँ बचन लगि, मो पति लह्यो विराग।
भई वियोगिनी निज करनि, रहूँ उड़वति काग॥
मुझे धिक्कार है, मेरे वचन लग जाने के ही कारण मेरे पति मेरे प्रति अनासक्त हो गए। इस प्रकार अपनी करनी से ही मैं वियोगिनी बनकर काक उड़ाती रहती हूँ।
पूस-मास सुनि सखिनु पैं, सांईं चलत सवारु।
गहि कर बीन प्रबीन तिय, राग्यौ रागु मलारु ॥
जब पूस मास में नायिका को पता लगा कि उसका प्रिय परदेश जा रहा है तो संगीत विद्या में प्रवीण नायिका ने अपने हाथ में वीणा लेकर मल्हार राग अलापना शुरू कर दिया ताकि पानी बरसने लगे और उसके प्रिय का परदेश गमन रुक जाए।
जे महु दिण्णा दिअहडा दइएँ पवसन्तेण।
ताण गणन्तिए अंगुलिउ जज्जरिआउ नहेण॥
जो दिन मुझे प्रवास पर जाते हुए प्रिय ने दिए थे, उन्हें गिनते हुए मेरी अंगुलियाँ नख से जर्जरित हो गईं।
वदन सीतल चंद्रमां, जल सीतल सब कोइ।
दादू बिरही रांम का, इन सूं कदे न होइ॥
चंदन, चंद्रमा और जल की प्रकृति शीतल होती है। इनसे सर्प, चकोर और मीन को असीम तृप्ति (शांति) मिलती है। लेकिन जो ब्रह्म-वियोगी हैं, उन्हें इन पदार्थों से शांति (तृप्ति) नहीं मिल सकती है।
बिलखी डभकौं हैं चखनु, तिय लखि गवनु बराइ।
पिय गहबरि आऐं गरैं, राखी गरैं लगाइ॥
एक सखी कह रही है कि प्रियतम ने डबडबाई आँखों वाली दुखिता नायिका को अपना विदेश जाना स्थगित कर गद्गद कंठ से अपने गले से लगा रखा है। व्यंजना यह है कि नायिका की पीड़ा को देखकर नायक का गला भी भर आया। अत: वह शब्दों से तो कुछ नहीं कह सका, न समझा ही सका, वह तो नायिका को बहुत देर तक अपने गले से लगाए रहा।
झटकि चढ़ति उतरति अटा, नैंक न थाकति देह।
भई रहति नट कौ बटा, अटकी नागर-नेह॥
नायक छत पर खड़ा हुआ है, नायिका उसे देखने के लिए बार-बार किसी-न-किसी बहाने से ऊपर चली जाती है और फिर नीचे चली जाती है। इस प्रकार प्रियतम की प्रेम-डोर से बँधी नायिका चकई के समान प्रतीत होती है।
याकैं उर औरे कछू, लगी बिरह की लाइ।
पजरै नीर गुलाब कैं, पिय की बात बुझाइ॥
नायिका विरह की आग में जल रही है। इस विरहाग्नि की विलक्षणता यह है कि गुलाब जल के छिड़कने से यह प्रज्ज्वलित होती है किंतु वात अर्थात् वायु के चलने से यह शांत हो जाती है। वात का अर्थ बातचीत भी है। भाव यह है कि जब कभी कोई उस नायिका के समक्ष नायक की चर्चा करने लगता है तो उसकी विरहाग्नि किंचित् शांत हो जाती है। वास्तव में यहाँ अग्नि के प्रसंग में वात का अर्थ वायु है जो गुलाबजल के छिड़कने से उद्दीप्त होती है। वही वायु के चलने से शांत होती है। व्यंग्यार्थ यह है कि नायिका किसी साधारण रोग से नहीं, विरह के विलक्षण रोग से पीड़ित है। अत: ऐसी नायिका का उपचार औषध-प्रयोग नहीं, प्रियतम-मिलन है।
रँगराती रातैं हियैं, प्रियतम लिखी वनाइ।
पाती काती बिरह की, छाती रही लगाइ॥
अनुरक्त हृदय से प्रियतम द्वारा बनाकर लिखी हुई अनुराग से रंजित पत्रिका को नायिका विरह की कतरनी समझकर अर्थात् विरह को दूर करने वाली समझकर अपने हृदय से लगा रही है।
नेहु न नैननु, कौं कछू उपजी बड़ी बलाइ।
नीर-भरे नित-प्रति रहैं, तऊ न प्यास बुझाइ॥
मेरे इन नेत्रों को अब कोई ऐसी बीमारी हो गई है कि ये स्नेहभाव को भुला बैठे हैं। इतना ही नहीं, ये निरंतर अश्रुपात होने के कारण या सजल बने रहने से अपनी प्यास नहीं बुझा पाते हैं। भाव यह है कि नायिका विरह में डूबी रहती है, नेत्रों में आँसू भरे रहते हैं, फिर भी उसकी प्यास नहीं बुझती है।
रे हितियारे अधरमी, तू न आवत लाल।
जोबन अजुंरी नीर सम, छिन घट जात जमाल॥
प्रियतम! तुम कितने कठोर हृदय वाले और अन्यायी हो। अंजलि में भरे पानी के समान यौवन अस्थिर है; वह चला जाएगा। तुम आते क्यों नहीं हो?
चंपा हनुमत रूप अलि, ला अक्षर लिखि बाम।
प्रेमी प्रति पतिया दियो, कह जमाल किहि काम॥
उस प्रेमिका ने अपने पति को पत्र में चंपा-पुष्प, हनुमान, भौंरा और ला अक्षर क्यों लिखकर दिया? गूढ़ार्थ यह है कि प्रेमिका अपना संदेश व्यक्त करना चाहती है कि उसकी और प्रेमी की दशा, चंपा और भ्रमर-सी हो रही है। दोनों मिल नहीं रहे हैं। इस हेतु वह स्त्री (चंपा) दूत (हनुमान) से कह रही है कि तू जाकर मेरे प्रेमी (भ्रमर) से कह कि मुझे मिलने की लालसा (ला) है। 'ला' का अर्थ यहाँ लाने का भी हो सकता है, मानो विरहिणी दूत से कहती हो कि तू जाकर प्रेमी को बुला ला।
लाल, तुम्हारे विरह की अगनि अनूप, अपार।
सरसै बरसैं नीरहूँ, झरहूँ मिटै न झार॥
हे प्रिय! तुम्हारे विरह की अग्नि की रीत अनोखी है, उसका किसी ने आज तक पार नहीं पाया। सरस स्नेह का नीर जितना बरसता है, उतनी ही यह अग्नि बढ़ती जाती है।
इन दुखिया अँखियानु कों, सुखु सिरज्यौई नाँहि।
देखे बनै न देखतै, अनदेखे अकुलाँहि॥
हे सखी, मैं क्या करूँ, मेरी इन दु:खिनी आँखों के लिए सुख बनाया ही नहीं गया है। इनके देखने पर, अर्थात् नायक के दृष्टिगोचर होने पर लज्जावश देखते ही नहीं बनता, (और) न देखने से, यानी नायक के दृष्टिगोचर न होने पर ये व्याकुल होती हैं।
को जानै ह्वै है कहा, ब्रज उपजी अति आगि।
मन लागै नैननु चलै, न मग लगि लागि॥
कौन जाने अब क्या होगा क्योंकि यह आग सारे ब्रज में ही उत्पन्न हो चुकी है जिसके कारण लोक-मर्यादा की लीक भी नहीं सूझती है। तू भी उस नायक के प्रेम का शिकार हो गई है। यह आग पहले मन में लगती है और फिर नेत्रों में लग जाती है जिससे संतप्त कोई भी सही रास्ते पर नहीं चलता। तेरी भी यही दशा हो रही है।
अम्बणु लाइवि जे गया पहिअ पराया के वि॥
अवस न सुअहिँ सुहच्छिअहि जिवं अम्हइँ तिवं ते वि॥
प्रीत लगाकर जो कोई बटोही पराए की तरह चले गये वे भी अवश्य ही सुख की सेज पर न सोते होंगे, जैसे हम हैं वैसे वे भी।
मिलै प्रीत न होत है, सब काहू कैं लाल।
बिना मिले मन में हरष, साँची प्रीत जमाल॥
हे लाल! (प्रिय) मिलने पर तो सभी के मन में प्रेम उपजता है पर साची प्रीति तो वही कही जाएगी जो बिना मिले ही (स्मृति द्वारा) आनंद उत्पन्न करती रहे।
करि सिंगार पिय पै चली, हाथ कुसुम की माल।
हरी छोड़ हर पै गई, कारन कौन जमाल॥
सामान्य अर्थ : नायिका शृंगार करके अपने प्रिय से मिलने चली। उसने हरि पूजन के निमित्त पुष्पों की माला भी साथ में ली। पर किस कारण वह हरि पूजन को न जाकर, शिव की पूजा करने चली गई?
गूढ़ार्थ : नायिका की इच्छा हरि पूजन की थी, पर इसी बीच में प्रिय के चले जाने का संदेश मिला तो विरहाग्नि के कारण पुष्पमाल जलकर भस्म हो गई। इसी भस्म को चढ़ाने वह शिव मंदिर की ओर गई।
जो घर हैगा सर्प का, सो घर साध न होय।
सकल संपदा ले गये, विष भरि लागा सोय॥
जो सांप का घर है, वह साधु का घर नहीं है। अर्थात विषयासक्ति और देहादि का अहंकार तो जीव की सारी आध्यात्मिक शक्ति नष्ट कर देते हैं और सांसारिकता का विष लेकर उसमें चिपक जाते हैं।
मैं हो जान्यौ लोइन नु, जुरत बाढ़ि है जाति।
को हो जानतु दीठि कौं, दीठि किरकिटी होति॥
नायिका कहती है कि हे सखी, मैंने तो यह समझा था कि नेत्रों के मिलने से आँखों की ज्योति बढ़ जायेगी। भाव यह है कि जीवन-साथी प्राप्त होने से जीवन में सुख और आनंद की वर्षा होने लगेगी। अपनी इसी समझ के कारण मैं एक परदेशी से आँखें मिला बैठी किंतु दृष्टि में दूसरे की दृष्टि किरकिरी बन गई अर्थात् परिणाम उलटा ही निकला। अब तो स्थिति यह है कि जीवन में सुख और आश्रय मिलना तो दूर रहा, विरह की तीव्रता ने मेरे जीवन को असहनीय पीड़ाओं से परिपूर्ण कर दिया है।
दीन बंधु कर घर पली, दीनबंधु कर छांह।
तौउ भई हों दीन अति, पति त्यागी मो बाहं॥
मैं दीनबंधु पिता के घर में पली और दीनबंधु (दिनों के बंधु पूज्य पति तुलसी) के कर कमलों का आश्रय रहा। फिर भी मैं अत्यंत संतप्त हो गई क्योंकि पति (श्री तुलसीदास जी) ने मेरी बाँह छोड़ दी।
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कर कंपत लेखनि डुलत, रोम रोम दुख लाल।
प्रीतम कूँ पतिया लिखुं, लिखी न जात जमाल॥
हे प्रियतम ! तुम्हें पत्र लिखते समय हाथ काँप रहा है और लेखनी भी हिल रही है। विरह के कारण रोम-रोम में पीड़ा हो रही है, पत्र लिखा ही नहीं जा रहा है।
धौंकी डाही लाकड़ी, वो भी करे पुकार।
अब जो जाय लोहार घर, डाहै दूजी बार॥
जली हुई धौं की लकड़ी कोयला बनकर चिल्लाती है कि यदि मैं लोहार के घर गई तो वह मुझे पुन: जलाएगा। अर्थात जन्म-जन्मान्तरों एवं गर्भवास से पीड़ित मुमुक्षु जीव सद्गुरु की शरण में पुकरता है कि हे सद्गुरु,अब मुझे संसार-सागर से बचा लो, अन्यथा यदि अज्ञानरूपी लोहार के हाथों में पड़ गया तो मैं उसके द्वारा पुन: संसार के तापों में जलाया जाऊंगा।
बिरह बाण जेहि लागिया, औषध लगे न ताहि।
सुसुकि-सुसुकि मरि-मरि जिवै, उठे कराहि-कराहि॥
जिसको विरह का बाण लग गया है, अर्थात जो समझता है कि मेरा लक्ष्य मुझसे अलग है, उसको स्वरूप-विचार की औषधि नहीं लगती। वह तो अपने लक्ष्य को पाने के लिए सुबक-सुबककर रोता है, मूर्छित होता है, जागता है और अपने प्रियतम के वियोग की याद में बारम्बार कराह उठता है।
मलिन देह, वेई बसन, मलिन बिरह कैं रूप।
पिय-आगम औरै चढ़ी, आनन ओप अनूप॥
नायिका का शरीर मलिन था और वह कपड़े भी पुराने ही पहने हुए थी। 'वेई' शब्द से यह ध्वनित भी हो रहा है कि प्रिय मिलन के क्षणों में उसने जो वस्त्र पहने थे, उन्हीं को वह अब तक धारण किए हुए थी। जैसे ही उसे पति के आने का समाचार मिला, वैसे ही उसके चेहरे पर अनिर्वचनीय उल्लास और उससे उत्पन्न कांति फैल गई।
सनक सनातन कुल सुकुल, गेह भयो पिय स्याम।
रत्नावली आभा गई, तुम बिन बन सैम ग्राम॥
हे प्रिय! सनक ऋषि का सुकुल कुल अब श्याम हो गया है। मुझ रत्नावली की भी सभी प्रकार की कांति आपके बिना चली गई है और उसके लिए ग्राम भी, हे कांत! आपके बिना कांतार सम हो गया है।
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सबहिं तीरथनु रमि रह्यौ, राम अनेकन रूप।
जहीं नाथ आऔ चले, ध्याऔ त्रिभुवन भूप॥
सभी तीर्थो में अनेक रूपों में राम रमण कर रहे हैं। हे नाथ! यहीं आ जाइए और त्रिभुवन भूप का यहीं ध्यान कीजिए।
कहा भयौ, जौ बीछुरे, मो मनु तो मन साथ।
उड़ी जाउ कितहू तऊ, गुड़ि उड़ाइक हाथ॥
हे प्रिय, यदि हम बिछुड़ गए हैं तो क्या हुआ, मेरा मन तो तुम्हारे साथ ही जुड़ा हुआ है। अत: इस बिछोह से कोई अंतर नहीं पड़ता है। मैं कहीं भी रहूँ मेरे प्रेम की डोर तो तुम्हीं से ठीक उसी प्रकार जुड़ी हुई है जिस प्रकार पतंग चाहे कहीं भी उड़े, किंतु उसकी डोर तो उड़ाने वाले के ही हाथ होती है। अत: मैं भी तुमसे दूर होते हुए तुम्हारे ही अधिकार में हूँ।
बसि सकोच-दस बदन-बस, साँचु दिखावति बाल।
सियलौं सोधति तिय तनहिं, लगनि-अगनि की ज्वाल॥
अभी तक तो तुम्हारी नायिका ने लज्जा के कारण अपने प्रेम को छिपाए रखा था, अब उसकी स्थिति विकट और विषम होती जा रही है। प्रिय के अभाव में उसका विरह इतना बढ़ रहा है कि वह अब उसे छिपा नहीं पा रही। अब तक तो संकोच रूपी रावण के वश में रहने के कारण तरुणी नायिका अपना सच्चा रूप छिपाती रही है और दूसरों को उसने कुछ भी स्पष्ट नहीं होने दिया है। सीताजी की भाँति वह अपने शरीर को अनुराग से उत्पन्न विरह की आग में तपाकर शुद्ध करती रही है पर अब यह संभव नहीं रहा है।