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संगीत पर दोहे

रस की सृष्टि करने वाली

सुव्यवस्थित ध्वनि को संगीत कहा जाता है। इसमें प्रायः गायन, वादन और नृत्य तीनों शामिल माने जाते हैं। यह सभी मानव समाजों का एक सार्वभौमिक सांस्कृतिक पहलू है। विभिन्न सभ्यताओं में संगीत की लोकप्रियता के प्रमाण प्रागैतिहासिक काल से ही प्राप्त होने लगते हैं। भर्तृहरि ने साहित्य-संगीत-कला से विहीन व्यक्ति को पूँछ-सींग रहित साक्षात् पशु कहा है। इस चयन में संगीत-कला को विषय बनाती कविताओं को शामिल किया गया है।

नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत।

ते रहीम पशु से अधिक, रीझेहु कछू देत॥

रहीम

तंत्री नाद, कबित्त रस, सरस राग, रति-रंग।

अनबूड़े बूड़े, तरे जे बूड़े सब अंग॥

वीणा आदि वाद्यों के स्वर, काव्य आदि ललित कलाओं की रसानुभूति तथा प्रेम के रस में जो व्यक्ति सर्वांग डूब गए हैं, वे ही इस संसार-सागर को पार कर सकते हैं। जो इनमें डूब नहीं सके हैं, वे इस भव-सिंधु में ही फँसकर रह जाते हैं अर्थात् संसार-का संतरण नहीं कर पाते हैं। कवि का तात्पर्य यह है कि तंत्री-नाद इत्यादि ऐसे पदार्थ हैं जिनमें बिना पूरण रीति से प्रविष्ट हुए कोई भी आनंद नहीं मिल पाता है। यदि इनमें पड़ना हो तो पूर्णतया पड़ो। यदि पूरी तरह नहीं पड़ सकते हो तो इनसे सर्वथा दूर रहना ही उचित श्रेयस्कर है।

बिहारी

सुंदर मन मृग रसिक है, नाद सुनै जब कांन।

हलै चलै नहिं ठौर तें, रहौ कि निकसौ प्रांन॥

सुंदरदास

सुन्दर मन मृग रसिक है, नाद सुनै जब कान।

हलै चलै नहिं ठौर तें, रहौ कि निकसौ प्रांन॥

सुंदरदास

पूस-मास सुनि सखिनु पैं, सांईं चलत सवारु।

गहि कर बीन प्रबीन तिय, राग्यौ रागु मलारु

जब पूस मास में नायिका को पता लगा कि उसका प्रिय परदेश जा रहा है तो संगीत विद्या में प्रवीण नायिका ने अपने हाथ में वीणा लेकर मल्हार राग अलापना शुरू कर दिया ताकि पानी बरसने लगे और उसके प्रिय का परदेश गमन रुक जाए।

बिहारी

श्रवन परत जाकी ध्वनी, भूलत पसु तन-भान।

जो सुनि मूढ़न रीझिहै, चूक बीन सुजान॥

मोहन

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