अनहद पर दोहे

अनहद का अर्थ अनाहत या

सीमातीत है। इसका अर्थ समाधि की स्थिति में सुनाई पड़ने वाला नाद भी है। कबीर, गुरु नानक, मलूकदास आदि मध्यकालीन भक्त-कवियों द्वारा इस शब्द के प्रयोग ने इसे विशेष लोकप्रिय बनाया है।

सुंदर मन मृग रसिक है, नाद सुनै जब कांन।

हलै चलै नहिं ठौर तें, रहौ कि निकसौ प्रांन॥

सुंदरदास

इड़ा-गंग, पिंगला-जमुन, सुखमन-सरसुति-संग।

मिलत उठति बहु अरथमय, अनुपम सबद-तरंग॥

दुलारेलाल भार्गव

सुन्दर मन मृग रसिक है, नाद सुनै जब कान।

हलै चलै नहिं ठौर तें, रहौ कि निकसौ प्रांन॥

सुंदरदास

बाजत अनहद बाँसुरी, तिरबेनी के तीर।

राग छतीसो होइ रहे, गरजत गगन गंभीर॥

यारी साहब

सैना अमरत प्रेम को, जिन पीयो बड़भाग।

रिदै तैतरी बज उठे, गूँजें छत्तीस राग॥

सैन कहते हैं कि जिस-जिस ने भी प्रेमामृत का पान किया है, वे बड़भागी हैं। इस अमृत रस के पीते ही भीतर की हृदय-तंत्री बज उठती है और मधुर-मधुर छत्तीसों राग गूँजने लगते हैं।

सैन भगत

जोग समाधि सुख सुरति सौं, सहजै-सहजै आव।

मुक्ता द्वारा महल का, इहै भगति का भाव॥

दादू दयाल

काया अंतर पाइया, त्रिकुटी के रे तीर।

सहजै आप लखाइया, व्यापा सकल सरीर॥

दादू दयाल

जिनको कंत मिलाप है, तिनं मुख बरसत नूर।

घट सीतल हिरदा सुखी, बाजे अनहद तूर॥

संत शिवदयाल सिंह

अजर जरै रसना झरै, घटि माहिं समावै।

दादू सेवग सो भला, जे कहि जणावै॥

दादू दयाल

जहँ तन मन का मूल है, उपजै ओअंकार।

अनहद सेझा सबद का, आतम करै बिचार॥

दादू दयाल

निरंतर पिउ पाइया, तहँ पंखी उनमन जाइ।

सप्तौ मंडल भेदिया, अष्ट रह्या समाइ॥

दादू दयाल

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