योग पर दोहे
योग षड्दर्शन में से
एक है। इसका अर्थ है समाधि या चित्त-वृत्तियों का निरोध। इसका अर्थ जोड़ या योगफल भी है। ‘गीता’ में योग के तीन प्रकार बताए गए हैं—कर्म, भक्ति और ज्ञानयोग। भक्तिधारा में योग-मार्ग के अनुयायी संतों ने योग पर पर्याप्त बल दिया है। इस चयन में पढ़िए—योग विषयक कविताएँ ।
लोग मगन सब जोग हीं, जोग जायँ बिनु छेम।
त्यों तुलसी के भावगत, राम प्रेम बिनु नेम॥
लोग सब योग में ही (अप्राप्त वस्तु के प्राप्त करने के काम में ही) लगे हैं, परंतु क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा) का उपाय किए बिना योग व्यर्थ है। इसी प्रकार तुलसीदास के विचार से श्रीरामजी के प्रेम बिना सभी नियम व्यर्थ हैं।
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि।
दसवाँ द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछांणि॥
मन को मथुरा (कृष्ण का जन्म स्थान) दिल को द्वारिका (कृष्ण का राज्य स्थान) और देह को ही काशी समझो। दशवाँ द्वार ब्रह्म रंध्र ही देवालय है, उसी में परम ज्योति की पहचान करो।
इड़ा-गंग, पिंगला-जमुन, सुखमन-सरसुति-संग।
मिलत उठति बहु अरथमय, अनुपम सबद-तरंग॥
भँवर कँवल रस बेधिया, सुख सरवर रस पीव।
तह हंसा मोती चुणैँ, पिउ देखे सुख जीव॥
असुन्न तखत अड़ि आसना, पिण्ड झरोखे नूर।
जाके दिल में हौं बसा, सैना लिये हजूर॥
हे जीव! जिसने शरीर के इन्द्रिय-झरोखों से अपना ज्ञान-प्रकाश फैला रखा है, वह सत्य चेतनस्वरूप ही तुम्हारी अविचल स्थिति-दशा है। ज्ञान-प्रकाश की सेना लेकर 'मैं' के रूप में सभी दिलों में वही उपस्थिति है।
जोग समाधि सुख सुरति सौं, सहजै-सहजै आव।
मुक्ता द्वारा महल का, इहै भगति का भाव॥
काया अंतर पाइया, त्रिकुटी के रे तीर।
सहजै आप लखाइया, व्यापा सकल सरीर॥