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योग पर उद्धरण

योग षड्दर्शन में से

एक है। इसका अर्थ है समाधि या चित्त-वृत्तियों का निरोध। इसका अर्थ जोड़ या योगफल भी है। ‘गीता’ में योग के तीन प्रकार बताए गए हैं—कर्म, भक्ति और ज्ञानयोग। भक्तिधारा में योग-मार्ग के अनुयायी संतों ने योग पर पर्याप्त बल दिया है। इस चयन में पढ़िए—योग विषयक कविताएँ ।

जीवन के सिद्धांतों को व्यवहार में लाने की जो कला या युक्ति है, उसी को 'योग' कहते हैं। सांख्य का अर्थ है— 'सिद्धांत' अथवा 'शास्त्र' और 'योग' का अर्थ है 'कला'।

विनोबा भावे

जो योग का आचरण करता है, जिसका हृदय शुद्ध है, जिसने स्वयं को जीत लिया है, जो जितेंद्रिय है और जिसकी आत्मा सब प्राणियों की आत्मा बनी है, वह कर्म करता हुआ भी अलिप्त रहता है।

वेदव्यास

भक्ति-मार्ग का सिद्धांत है भगवान को बाहर जगत में देखना। 'मन के भीतर देखना' यह योग-मार्ग का सिद्धांत है, भक्ति मार्ग का नहीं।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

हे अर्जुन! जिसने समत्व बुद्धि रूप योग द्वारा सब कर्मों का संन्यास कर दिया है, जिसने ज्ञान से सब संशय दूर किए हैं, और जो आत्मबल से युक्त है, उसको कर्म नहीं बाँधते हैं।

वेदव्यास

जो ज्ञान और विज्ञान से तृप्त हो चुका है, जो सबसे उच्च स्थान में स्थिर हुआ है, जो जितेंद्रिय है तथा जिसकी दृष्टि में मिट्टी, पत्थर और सोना समान है, उस यात्री का योग सिद्ध हुआ ऐसा कहते हैं।

वेदव्यास

पारस्परिक प्रीति योग को हृदय ही जानता है।

भवभूति

यथायोग्य आहार-विहार करने वाले, कर्मों को यथा-योग्य करने वाले, यथायोग्य शयन करने तथा जागने वाले का योग दुःख दूर करने वाला होता है।

वेदव्यास

योग का जिज्ञासु भी शाब्दिक ज्ञान वालों से अधिक श्रेष्ठ होता है।

वेदव्यास

जो कुछ उच्चतम तत्त्व है उसके साथ अपनी सत्ता को सभी भावों में एक हो जाना है- 'योग'।......समस्त प्रकृति और सभी जीवों के साथ एक हो जाना ही है योग।

श्री अरविंद

जीवात्मा का परमात्मा से संयोग ही योग कहा जाता है।

पिंगली सुरन्ना

समत्व को योग कहते हैं।

वेदव्यास