आत्मा पर उद्धरण
आत्मा या आत्मन् भारतीय
दर्शन के महत्त्वपूर्ण प्रत्ययों में से एक है। उपनिषदों ने मूलभूत विषय-वस्तु के रूप में इस पर विचार किया है जहाँ इसका अभिप्राय व्यक्ति में अंतर्निहित उस मूलभूत सत् से है जो शाश्वत तत्त्व है और मृत्यु के बाद भी जिसका विनाश नहीं होता। जैन धर्म ने इसे ही ‘जीव’ कहा है जो चेतना का प्रतीक है और अजीव (जड़) से पृथक है। भारतीय काव्यधारा इसके पारंपरिक अर्थों के साथ इसका अर्थ-विस्तार करती हुई आगे बढ़ी है।

मनुष्य की आत्मा ही राजनीति है, अर्थशास्त्र है, शिक्षा है और विज्ञान है, इसलिए अंतरात्मा को सुसंस्कृत बनाना ही सबसे अधिक आवश्यक है। यदि हम अंतरात्मा को सुशिक्षित बना लें तो राजनीति, अर्थशास्त्र, शिक्षा और विज्ञान के प्रश्न स्वयं ही हल हो जाएँगे।

स्त्री को पाकर, स्त्री को समझकर, उसे अपनी बाँहों और आत्मा में महसूस करके ही प्रकृति की गति और प्रकृति की सुंदरता को और प्रकृति के रहस्य को लिया, भोगा और समझा जा सकता है।

मुझे लगता है कि व्यक्ति ईश्वर से आता है और ईश्वर के पास वापस जाता है, क्योंकि शरीर की कल्पना की जाती है और जन्म होता है, यह बढ़ता है और घटता है, यह मर जाता है और ग़ायब हो जाता है; लेकिन जीवात्मा शरीर और आत्मा का मेल है, जिस तरह एक अच्छी तस्वीर में आकार और विचार का अदृश्य संगम होता है।

मेरी आत्मा को छोड़कर, हर चीज़, धूल का हर कण, पानी की हर बूँद, भले ही अलग-अलग रूपों में हो, अनंत काल तक अस्तित्व में रहती है?

हम इन मृतात्माओं को अपने दिल में किस तरह रखते हैं। हममें से प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर अपना क़ब्रिस्तान रखता है।

प्रकृति सिर्फ़ वह नहीं जो आँखों को नज़र आती है… आत्मा की अंदरूनी तस्वीर में भी यह मौजूद होती है।

जो शोर की जगह संगीत, आनंद की जगह ख़ुशी, आत्मा की जगह सोना, रचनात्मक कार्य की जगह व्यापार, और जुनून की जगह मूर्खता चाहता है, उसे इस साधारण दुनिया में कोई घर नहीं मिलता।

आत्मा के लिए अच्छा अंतःकरण वैसा ही है जैसा शरीर के लिए स्वास्थ्य।

ज़रूरी चीज़ यह है कि जब तलवार तुम्हारी आत्मा के टुकड़े करे, मन को शांत बनाए रखा जाए, रक्तस्राव नहीं होने दिया जाए, तलवार की ठंडक को पत्थर की-सी शीतलता से स्वीकार किया जाए। इस तरह के प्रहार से, प्रहार के बाद तुम अक्षर बन जाओगे।

अपने देश के प्रति मेरा जो प्रेम है, उसके कुछ अंश में मैं अपने जन्म के गाँव को प्यार करता हूँ। और मैं अपने देश को प्यार करता हूँ पृथ्वी— जो सारी की सारी मेरा देश है—के प्रति अपने प्रेम के एक अंश में। और मैं पृथ्वी को प्यार करता हूँ अपने सर्वस्व से, क्योंकि वह मानवता का, ईश्वर का, प्रत्यक्ष आत्मा का निवास-स्थान है।

जिस तरह लियोनार्डो दा विंसी ने इंसानी शारीरिक रचना विज्ञान का अध्ययन किया और मुर्दा शरीरों को क़रीब से समझा, उसी तरह मैं आत्माओं के मनोभावों को पढ़ने की कोशिश करता हूँ।


सबसे महत्त्वपूर्ण बात आत्मा को ऊपर रखना है।

…आत्मा एक रास्ता खोज सकती है, जो मुझे लगता है कि प्रेम है—स्वयं से स्वयं का पलायन।


हमेशा मेरे साथ रहो—चाहे कोई भी रूप धारण करो—मुझे पागल बना दो! मुझे ऐसे अधर में मत छोड़ो जहाँ मैं तुम्हें ढूँढ़ न सकूँ! हे ईश्वर! कैसे कहूँ! मैं अपने जीवन के बिना नहीं रह सकती! मैं अपनी आत्मा के बिना नहीं रह सकती!



हम अन्य राज्यों, अन्य ज़िंदगियों, अन्य आत्माओं की तलाश में सफ़र करते हैं, हम में से कुछ लोग हमेशा भटकते रहते हैं।


प्रेम—सिर्फ़ आत्मा को ‘लाभ’ पहुँचाता है।


अगर आप अपनी फ़ुरसत को खो रहे हैं, तो ख़बरदार! हो सकता है कि आप अपनी आत्मा को खो रहे हों।

हम दिव्य आत्मा के प्रवक्ता होंगे।

हर कोई अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में आत्मा का हत्यारा है।

जब भी हम ऐसा कुछ करते हैं जो हमारी इच्छा या आत्मा से जुड़ा हुआ नहीं होता है— वह कष्ट का कारण बनता है।

दोस्ती आत्मा की बात है। यह एक ऐसी चीज़ है जिसे हम महसूस करते हैं। यह किसी चीज़ के बदले में नहीं है।

धन के बिना संसार व्यर्थ है परंतु अत्यधिक धन भी व्यर्थ है, जैसे अन्न के बिना तन नहीं रहता, परंतु अत्यधिक भोजन करने से प्राण चले जाते हैं।

धर्मों की आत्मा एक है। परंतु वह अनेक रूपों में प्रकट हुई है। धर्म में रूप अनंत काल तक रहेंगे।

मैं शरीर में रहकर भी शरीर-मुक्त, और समाज में रहकर भी समाज-मुक्त हूँ।

धर्म आध्यात्मिक परिवर्तन है, एक अंतर्मुखी रूपांतरण है। यह अंधकार से प्रकाश की ओर जाना है, आत्मोद्धारहीनता से आत्मोद्धार की स्थिति में पहुँचना है। यह एक जागरण है. एक प्रकार की पुनर्जन्मता है।

मैंने ऐसे आदमी देखे हैं, जिनमें किसी ने अपनी आत्मा कुत्ते में रख दी है, किसी ने सूअर में। अब तो जानवरों ने भी यह विद्या सीख ली है और कुछ कुत्ते और सूअर अपनी आत्मा किसी आदमी में रख देते हैं।


संगीत दो आत्माओं के बीच फैली अनंतता को भरता है।

अमिश्रित आदर्शवाद में मुझे आत्मा का गौरव दिखाई देता है।

हम मात्र एक, ‘भटकन’ हैं, अपनी आत्मा के विशाल दृश्यों में कोई अर्थ ढूँढ़ते हुए।

कभी भी लोगों की आत्माओं में कमीनेपन को कम मत आँको… विशेष रूप से तब जब वे दयालु होते हैं।

दुःख उसीकी आत्मा को शुद्ध करता है जो उसे दूर करने की कोशिश करता है। शुद्धि दूसरे के साथ दुःखी होने में नहीं; दूसरे के स्थान पर दुःखी होने में है।

(हिंदी में) ‘आत्मकथ्य’ केवल एक शब्द भर है। यहाँ आत्मा को शक से देखा जाता है और कथ्य पर कोई भरोसा नहीं करता।

प्राणी मात्र को अपनी आत्मा प्यारी लगती है, इसलिए स्वरचित ग्रंथों में उसकी दोषदृष्टि नहीं होती।


अपने को दुर्बल मानकर स्वयं ही अपनी अवहेलना न कर। इस आत्मा का अल्प से भरण-पोषण न कर। मन को कल्याणमय बनाकर निडर हो जा, भय को सर्वथा त्याग दे।

जैसे शुद्ध पानी में सोने और चांदी का वजन होता है, वैसे ही आत्मा मौन में अपना वजन परखती है, और हम जिन शब्दों का प्रयोग करते हैं हमारे जो उनका कोई अर्थ नहीं होता उस मौन के सिवा जो उन्हें घेरे रहता है।

सबसे बढ़कर आत्मा की खोज यह अहसास है, कि हम अकेले हैं।

मन से विचारे हुए कार्य को वाणी से नहीं कहना चाहिए। मंत्रणा द्वारा गुप्त बात की रक्षा करे। और फिर क्रियात्मक रूप से कर देना चाहिए।

अन्तःकरण हम सबको क़ायर बना देता है।

आत्मशुद्धि सबसे पहली चीज़ है, वह सेवा की अनिवार्य शर्त है।

मेरी आत्मा बड़ी सुलझी हुई बात कह देती है कभी-कभी। अच्छी आत्मा ‘फ़ोल्डिंग’ कुर्सी की तरह होनी चाहिए। ज़रूरत पड़ी तब फैलाकर उस पर बैठ गए; नहीं तो मोड़कर कोने में टिका दिया।

आत्महत्या या स्वेच्छा से मरने के लिए प्रस्तुत होना—भगवान् की अवज्ञा है। जिस प्रकार सुख-दुःख उसके दान हैं, उन्हें मनुष्य झेलता है, उसी प्रकार प्राण भी उसकी धरोहर हैं।

आत्मा की शक्ति को पहचानना ही आत्म-ज्ञान है। आत्मा तो बैठे-बैठे दुनिया को हिला सकती है।