चीज़ें पर उद्धरण

कविता के भाव में कहें

तो चीज़ें वे हैं जिनसे हमारी दुनिया बनती है और बर्बाद भी होती है। यहाँ प्रस्तुत है चीज़ों की उपस्थिति-अनुपस्थिति को दर्ज करती कविताओं का यह व्यापक चयन।

कपड़े पहनने ही के लिए नहीं हैं—उतार कर रखना भी होता है कि धुल सकें।

अज्ञेय

अच्छाई का पेड़ छाया प्रदान नहीं कर सकता, आश्रय प्रदान नहीं कर सकता।

गजानन माधव मुक्तिबोध

आटे को जितनी बार छाना जाए थोड़ा-बहुत चोकर तो निकल ही आता है।

सिद्धेश्वर सिंह

नंगा होने, नंगे हो जाने, नंगा करने में फ़र्क़ है। गहरा फ़र्क़। शिशु और जंतु का नंगा होना सहजावस्था है; आदमी जब नंगा हो जाता है तब वह ग्लानि अथवा अपमान की स्थिति होती है। स्त्री जब नंगी की जाती है तब वह भी अपमान और जुगुप्सा की स्थिति होती है—या आपकी बुद्धि वैसी हो तो हँसी की हो सकती है। स्त्री का लहँगा उतारना, या बंदरिया को लहँगा पहनाना—दोनों इन प्राणियों की प्रकृत परिविष्ट अवस्था को हीन दृष्टि से देखने के परिणाम हैं।

अज्ञेय

आजकल बाज़ार में ऐसे पपीते भी मिलते हैं, जिन्हें काटो तो उनके भीतर से कोई बीज नहीं निकलता।

सिद्धेश्वर सिंह

जो चीज़ कम होती है, उसकी याद लंबे समय तक आती रहती है।

सिद्धेश्वर सिंह

मेरे पास जूते हैं, मुझे मेरे पैर लौटा दो।

स्वदेश दीपक

नकार के मौन में तूफ़ान की-सी गडग़ड़ाहट हो सकती है!

अज्ञेय

वह क्यों चीज़ों को बाहर से छुए जो उनके भीतर से धधक कर उन्हें दीप्त कर देता है?

अज्ञेय

चलते थ्रेशर को मुग्ध भाव से देखते किसान ने कहा, ‘‘अच्छा हुआ जो भूसा दूर जाकर गिरा और अनाज पास में।’’

सिद्धेश्वर सिंह

सारे तत्त्व एक दूसरे को प्रति-प्रयुक्त भी करते हैं।

श्रीनरेश मेहता

अभिनंदन उस सलीब का होता है जो प्रतीक बन चुका है। और प्रतीक की ढुलाई करने वाला बस उतना ही है—यानी प्रतीक की ढुलाई करने वाला। यह बिल्कुल ‘डिस्पेंसेबल’ है—उसकी जगह कोई दूसरा ले सकता है, क्योंकि प्राणवत्ता तब प्रतीक में जा चुकी है, भारवाही में नहीं।

अज्ञेय

तुम चीज़ों से अलग होते हो जब उन्हें देखते हो!

नवीन सागर

अलंकार भावों के अभाव का आवरण है।

प्रेमचंद

परिणति, उतार, समाप्ति भी अनिवार्यताएँ हैं।

श्रीनरेश मेहता

तत्त्व, वह कोई हो, निरपेक्ष ही होता है।

श्रीनरेश मेहता

अनोखी और अजीब और नई चीज़ें ज़रूरी नहीं कि बेशक़ीमती भी हों। वह परखने पर हल्की और घटिया, बल्कि सुबह की शाम बासी भी हो सकती हैं—एकदम बासी।

शमशेर बहादुर सिंह

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