आँख पर उद्धरण
आँखें पाँच ज्ञानेंद्रियों
में से एक हैं। दृश्य में संसार व्याप्त है। इस विपुल व्याप्ति में अपने विविध पर्यायों—लोचन, अक्षि, नैन, अम्बक, नयन, नेत्र, चक्षु, दृग, विलोचन, दृष्टि, अक्षि, दीदा, चख और अपने कृत्यों की अदाओं-अदावतों के साथ आँखें हर युग में कवियों को अपनी ओर आकर्षित करती रही हैं। नज़र, निगाह और दृष्टि के अभिप्राय में उनकी व्याप्ति और विराट हो उठती है।
बदसूरती आम हिंदुस्तानी आँख को दिखाई ही नहीं देती।
आँख सपने में किसी चीज़ को जागती कल्पना की तुलना में अधिक स्पष्ट रूप से देखती है।
सौंदर्य से आँखें पराई हो जाती हैं और तब प्राप्ति-लालसा बढ़ जाती है।
जब तक हम अपनी आँखें बंद नहीं करते, हम हमेशा धोखा खाते हैं।
आँख वाले प्रायः इस तरह सोचते हैं कि अँधों की, विशेषतः बहरे-अँधों की दुनिया, उनके सूर्य-प्रकाश से चम-चमाते और हँसते-खेलते संसार से बिल्कुल अलग हैं और उनकी भावनाएँ और संवेदनाएँ भी बिल्कुल अलग हैं और उनकी चेतना पर उनकी इस अशक्ति और अभाव का मूल-भूत प्रभाव है।
राजधानी की एक आँख हमारी लाख आँखों से तेज़ होती है। जब वह खुलती है हमारी चौंधिया जाती है।