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आँख पर कविताएँ

आँखें पाँच ज्ञानेंद्रियों

में से एक हैं। दृश्य में संसार व्याप्त है। इस विपुल व्याप्ति में अपने विविध पर्यायों—लोचन, अक्षि, नैन, अम्बक, नयन, नेत्र, चक्षु, दृग, विलोचन, दृष्टि, अक्षि, दीदा, चख और अपने कृत्यों की अदाओं-अदावतों के साथ आँखें हर युग में कवियों को अपनी ओर आकर्षित करती रही हैं। नज़र, निगाह और दृष्टि के अभिप्राय में उनकी व्याप्ति और विराट हो उठती है।

आँख बंद कर लेने से

विनोद कुमार शुक्ल

एक माँ की बेबसी

कुँवर नारायण

ख़ाली आँखें

नवीन रांगियाल

माँ की आँखें

श्रीकांत वर्मा

अपने को देखना चाहता हूँ

चंद्रकांत देवताले

मरीचिका

अमित तिवारी

क्रियापद

दिनेश कुमार शुक्ल

तीसरी आँख

वियोगिनी ठाकुर

आँख भर देखा कहाँ

जगदीश गुप्त

आँख का जल

प्रकाश

कैमरे की आँख

मोनिका कुमार

नयन

बेबी शॉ

होना

गोविंद द्विवेदी

बेतरतीब

अजंता देव

बिछुड़न की रात का काजल

वीरेंद्र कुमार जैन

सलमा की आँखें बारात हैं

दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे

घूसर रेत

बबली गुज्जर

आँखें—घूमता आईना

कैलाश वाजपेयी

वे आँखे

सुमित्रानंदन पंत

आँखें देखकर

गोरख पांडेय

फ़रेब हैं आँखें

अदिति शर्मा

दो आँखों में

सौरभ अनंत

आमा की आँखें

हरि मृदुल

नमामि गंगे

गुंजन श्री

आवरण

मनीष कुमार यादव

शायद अब की आँखों में

वीरभद्र कार्कीढोली

उसकी आँखे

चित्रा सिंह

अंतर्दृष्टि

कुँवर नारायण

दरस-रस

ज्ञानेंद्रपति

देखना

धीरेंद्र 'धवल'

दो साबुत आँखें

लीलाधर मंडलोई

हवा

राकेश मिश्र

मैंने देखा

ज्योति पांडेय

आँखें

राकेश मिश्र

आँख

कमल जीत चौधरी

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