आँख पर दोहे
आँखें पाँच ज्ञानेंद्रियों
में से एक हैं। दृश्य में संसार व्याप्त है। इस विपुल व्याप्ति में अपने विविध पर्यायों—लोचन, अक्षि, नैन, अम्बक, नयन, नेत्र, चक्षु, दृग, विलोचन, दृष्टि, अक्षि, दीदा, चख और अपने कृत्यों की अदाओं-अदावतों के साथ आँखें हर युग में कवियों को अपनी ओर आकर्षित करती रही हैं। नज़र, निगाह और दृष्टि के अभिप्राय में उनकी व्याप्ति और विराट हो उठती है।
कहि रहीम इक दीप तें, प्रगट सबै दुति होय।
तन सनेह कैसे दुरै, दृग दीपक जरु दोय॥
रहीम कहते हैं कि जब एक ही दीपक के प्रकाश से घर में रखी सारी वस्तुएँ स्पष्ट दीखने लगती हैं, तो फिर नेत्र रूपी दो-दो दीपकों के होते तन-मन में बसे स्नेह-भाव को कोई कैसे भीतर छिपाकर रख सकता है! अर्थात मन में छिपे प्रेम-भाव को नेत्रों के द्वारा व्यक्त किया जाता है और नेत्रों से ही उसकी अभिव्यक्ति हो जाती है।
गज बर कुंभहिं देखि तनु, कृशित होत मृगराज।
चंद लखत बिकसत कमल, कह जमाल किहि काज॥
हाथी के कुंभस्थल को देखकर, सिंह दुबला क्यों हो रहा है? और चंद्रमा को देखकर कमल क्यों विकासत हो रहा है? इन विपरीत कार्यों का क्या कारण है? अभिप्राय यह है कि नायिका के हाथी के कुंभस्थल समान स्तनों को बढ़ते देखकर सिंह अर्थात् कटि प्रदेश दुबला हो गया है। नायिका के चंद्रमुख को देखकर, नायक के कमल रूपी नेत्र विकसित हो जाते हैं।
नैनाँ अंतरि आव तूँ, ज्यूँ हौं नैन झँपेऊँ।
नाँ हौं देखौं और कूँ, नाँ तुझ देखन देऊँ॥
आत्मारूपी प्रियतमा कह रही है कि हे प्रियतम! तुम मेरे नेत्रों के भीतर आ जाओ। तुम्हारा नेत्रों में आगमन हाते ही, मैं अपने नेत्रों को बंद कर लूँगी या तुम्हें नेत्रों में बंद कर लूँगी। जिससे मैं न तो किसी को देख सकूँ और न तुम्हें किसी को देखने दूँ।
अर तैं टरत न वर-परे, दई मरक मु मैन।
होड़ा-होड़ी बढ़ि चले चित, चतुराई नैन॥
एक सखी दूसरी सखी से कह रही है कि ऐसा प्रतीत होता है कि कामदेव रूपी नायक की प्रेरणा से ‘चित-चातुरी’ और ‘नयन-विस्तार’ रूपी दूती और दूत में इस बात की स्पर्धा जगी हुई है कि नायिका के शरीर को कौन कितनी शीघ्रता से काम के प्रभाव से प्रभावित कर पाता है। वास्तविकता यह है कि नायिका के शरीर में यौवनोन्मेष के साथ-साथ उसके चित्त की चपलता और नेत्रों का विस्तार बढ़ता जा रहा है। इन दोनों अंगों में कौन अधिक बढ़ा है या गतिमय हुआ है, यह निर्णय करना कठिन हो गया है। यही कारण है कि बिहारी ने मनोगत चंचलता की वृद्धि और नेत्रों के विस्तार की गति में होड़ की कल्पना की है।
सायक-सम मायक नयन, रँगे त्रिबिध रंग गात।
झखौ बिलखि दुरि जात जल, लखि जलजात लजात॥
कवि कह रहा है कि नायिका की आँखें ऐसी हैं कि मछलियाँ भी उन्हें देखकर पानी में छिप जाती हैं, कमल लजा जाते हैं। नायिका के मादक और जादुई नेत्रों के प्रभाव से कमल और मछलियाँ लज्जित हो जाती हैं। कारण, नायिका के नेत्र संध्या के समान हैं और तीन रंगों—श्वेत, श्याम और रतनार से रँगे हुए हैं। यही कारण है कि उन्हें देखकर मछली दु:खी होकर पानी में छिप जाती है और कमल लज्जित होकर अपनी पंखुड़ियों को समेट लेता है। सांध्यवेला में श्वेत, श्याम और लाल तीनों रंग होते हैं और नायिका के नेत्रों में भी ये तीनों ही रंग हैं। निराशा के कारण वे श्याम हैं, प्रतीक्षा के कारण पीले या श्वेत हैं और मिलनातुरता के कारण लाल या अनुरागयुक्त हो रहे हैं।
अरुन नयन खंडित अधर, खुले केस अलसाति।
देखि परी पति पास तें, आवति बधू लजाति॥
स्याम पूतरी, सेत हर, अरुण ब्रह्म चख लाल।
तीनों देवन बस करे, क्यौं मन रहै जमाल॥
हे प्रिय, तुम्हारे नयनों ने तीनों देवताओं को जब वश में कर लिया है, तब मेरा मन क्यों न तुम्हारे वश हो जाएगा? नेत्रों की श्याम पुतली ने विष्णु को, श्वेत कोयों ने शिव को और अरुणाई ने ब्रह्मा को मोह लिया है।
नैणाँ का लडुवा करूँ, कुच का करूँ अनार।
सीस नाय आगे धरूँ, लेवो चतर जमाल॥
हे नागर, मैं नतमस्तक होकर लड्डू-समान नेत्रों और बंद अनार जैसे दृढ़ कुचों को आपके सम्मुख समर्पण करती हूँ, आप इन्हें स्वीकार करें।
नैन सलोने अधर मधु, कहि रहीम घटि कौन।
मीठो भावै लोन पर, अरु मीठे पर लौन॥
रहीम कहते हैं कि नायिका की आँखें सलोनी (नमकीन) हैं और होंठ मधुर हैं। दोनों में कोई किसी से कमतर नहीं बल्कि दोनों ही शोभादायक हैं। मीठे (अधरों) पर नमकीन (नयन) प्रीतिकर है और नमकीन (नयनों) पर (अधरों की) मिठास।
बाल पनैं धोले भये, तरुन पनैं भये लाल।
बिरध पनैं काले भये, कारन कवन जमाल॥
बचपन में भोले-भाले नेत्र श्वेत होते हैं। युवा होने पर चपल अनियारे नेत्र किसी के प्रेम में फँस कर उसकी प्रीति में अनुरंजित होकर रतनारे हो जाते हैं और वे ही नेत्र वृद्धावस्था में सभी कुटिलताओं का अनुभव करके म्लान होकर काले पड़ जाते
हैं।
स्याम पूतरी, सेत हर, अरुण ब्रह्म चख लाल।
तीनों देवन बस करे, क्यों मन रहै जमाल॥
हे प्रिय, तुम्हारे नयनों ने तीनों देवताओं को जब वश में कर लिया है, तब मेरा मन क्यों न तुम्हारे वश हो जायगा? नेत्रों की श्याम पुतली ने विष्णु को, श्वेत कोयों ने शिव को और अरुणाई ने ब्रह्मा को मोह लिया है।
अंषड़ियाँ झाँई पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि॥
प्रियतम का रास्ता देखते-देखते आत्मा रूपी विरहिणी की आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा है। उसकी दृष्टि मंद पड़ गई है। प्रिय राम की पुकार लगाते-लगाते उसकी जीभ में छाले पड़ गए हैं।
तन सुबरन के कसत यो, लसत पूतरी स्याम।
मनौ नगीना फटिक में, जरी कसौटी काम॥
कढ़ि सर तें द्रुत दै गई, दृगनि देह-दुति चौंध।
बरसत बादर-बीच जनु, गई बीजुरी कौंध॥
अपने अँग के जानि कै जोबन-नृपति प्रवीन।
स्तन, मन, नैन, नितंब कौ बड़ौ इजाफा कीन॥
यौवन रूपी प्रवीण राजा ने नायिका के चार अंगों पर अपना अधिकार कर लिया है। उन अंगों को अपना मानते हुए अपनी सेना के चार अंग स्वीकार कर उनकी वृद्धि कर दी है। ऐसा उसने इसलिए किया है कि वे सभी अंग उसके वश में रहे। ये चार अंग यौवन रूपी राजा की चतुरंगिणी सेना के प्रतीक हैं। ये अंग हैं−स्तन, मन, नेत्र और नितंब। स्वाभाविक बात यह है कि जब यौवनागम होता है तब स्वाभाविक रूप से शरीर के इन अंगों में वृद्धि होती है। जिस प्रकार कोई राजा अपने सहायकों को अपना मानकर उनकी पदोन्नति कर देता है, उसी प्रकार यौवनरूपी राजा ने स्तन, मन, नेत्र और नितंब को अपना मान लिया है या अपना पक्षधर या अपने ही अंग मानते हुए इनमें स्वाभाविक वृद्धि कर दी है।
या तन की भट्टी करूँ, मन कूँ करूँ कलाल।
नैणाँ का प्याला करूँ, भर-भर पियो जमाल॥
इस शरीर को भट्टी (आसव के बनाने का चूल्हा) और मन को कलाल (मदिरा विक्रेता) बना लूँगी। पर तुम नयनों के प्यालों में प्रेम (भक्ति) की मदिरा भर-भर कब पिओगे।
नयन रँगीले कुच कठिन, मधुर बयण पिक लाल।
कामण चली गयंद गति, सब बिधि वणी, जमाल॥
हे प्रिय, उस नायिका के प्रेम भरे नेत्र अनुराग के कारण लाल हैं। उन्नत स्तन, कोयल-सी मधुर वाणी वाली सब प्रकार से सजी हुई गजगामिनी कामिनी चली जा रही है।
अमी हलाहल मद भरे, श्वेत श्याम रतनार।
जियत मरत झुकि-झुकि परत, जिहि चितवत इक बार॥
मैं तोसौं कैवा कह्यौ, तू जिन इन्है पत्याइ।
लगा लगी करि लोइननु, उर मैं लाई लाइ॥
मैंने तुझसे कितनी बार कहा है कि तू इन नेत्रों पर विश्वास मत किया कर। तूने इन नेत्रों पर विश्वास किया। अतः इन्होंने प्रिय से मेल-जोल किया और तेरे हृदय में विरह की अग्नि लगा दी। भाव यह है कि नेत्रों से नेत्रों का मिलना हृदय में प्रेमाग्नि उत्पन्न करता है। यही प्रेमाग्नि कष्टकारक हो जाती है।
जुरे दुहुनु के दृग झमकि, रुके न झीनैं चीर।
हलुकी फौज हरौल ज्यौं, परै गोल पर भीर॥
नायिका अपने परिवार के बीच बैठी हुई है। ठीक उसी समय नायक वहाँ आ जाता है। लज्जावश वह तुरंत घूँघट निकाल लेती है, किंतु काम भावना के अतिरेक के कारण वह नायक को देखना भी चाहती है और देखती भी है, इसी स्थिति का वर्णन करते हुए कवि कह है कि नायिका के नेत्र झमक कर नायक के नेत्रों से टकरा गए हैं जो नायिका के झीने घूँघट से स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। यह टकराना वैसे ही है जिस प्रकार आक्रमणकारी फौज द्वारा हरावल (सेना का अग्रभाग) फौज पर आक्रमण किए जाने पर उस पक्ष की फौज भी विपक्षी की फौज से टक्कर लेने लगती है। कहने का तात्पर्य यह है कि नायक-नायिका नेत्रों की सांकेतिक भाषा में प्रेम युद्ध करने लगे हैं।
बहके, सब जिय की कहत, ठौरु कुठौरु लखैं न।
छिन ओरै, छिन और से, ए छबि छाके नैन॥
नायिका कहती है कि नायक के सौंदर्य के नशे में छके हुए मेरे ये नेत्र बहककर ठौर-कुठौर को न देखते हुए अर्थात् स्थान की उपयुक्तता-अनुपयुक्तता का विचार न करते हुए मेरे मन की सारी गुप्त बातें कह देते हैं। इनकी स्थिति यह है कि ये क्षण भर में कुछ होते हैं और दूसरे ही क्षण कुछ और हो जाते हैं। अब तू ही बता कि ऐसी विवशता की स्थिति में मैं इन नेत्रों पर कैसे नियंत्रण रखूँ?
कटि सों मद रति बेनि अलि, चखसि बड़ाई धारि।
कुच से बच अखि ओठ भों, मग गति मतिहि बिसारि॥
हे सखी! यदि तू अपने प्रिय से मान करती है तो अपनी कटि के समान क्षीण (मान) कर, यदि प्रीति करती है तो अपनी चोटी के समान दीर्घ (प्रीति) कर, अगर बड़प्पन धारण करती है तो अपने नेत्रों-सा विशाल कर। पर अपने कुचों के समान कठोर (वचन), ओठों के समान नेत्रों की ललाई (क्रोध), भृकुटी के समान कुटिल (मार्ग पर गमन) और अपनी गति के समान (चंचल) मति को सदा के लिए त्याग दे।
बेधक अनियारे नयन, बेधत करि न निषेधु।
बरबस बेधतु मो हियौ, तो नासा को बेधु॥
नायक कह रहा है कि हे प्रिय नायिका, तुम्हारे नुकीले नेत्र बेधक हैं अर्थात् भीतर तक घायल कर देते हैं। जो नेत्र नुकीले होते हैं, वे देखने वाले के हृदय में गहरा घाव करते हैं। अत: यदि वे घायल करते हैं या कर रहे हैं तो स्वाभाविक है। यहाँ कोई अनौचित्य नहीं है। आश्चर्य तो यह है कि नायिका के छिद्र-छेद ने नायक के हृदय को बलात् घायल कर दिया है।
रससिंगार-मंजनु किये, कंजनु भंजनु दैन।
अंजनु रंजनु हूँ बिना, खंजनु गंजनु नैन॥
नायक नायिका के नेत्रों की प्रशंसा करते हुए कहता है कि ये तेरे नेत्र शृंगार रसोचित हाव-भाव-कटाक्ष आदि कलाओं में इतने निपुण हैं कि अपनी सुंदरता और स्वच्छता से सदैव जल-मज्जित रहने के कारण स्वच्छ रहने वाले कमलों का भी मान-मर्दन करते हैं। ये नेत्र अपनी स्वाभाविक श्यामलता के कारण बिना काजल लगाए ही खंजन पक्षी से भी अधिक श्याम-श्वेत तथा चंचल हैं।
लरैं नैंन, पलकैं गिरैं, चित तरपैं दिन-रात।
उठै सूल उर, प्रीति-पुर, अजब अनौखी बात॥
नैन मिलैं तैं मन मिलैं, होई साट दर हाल।
इह तौ सौदा सहज का, जोर न चलत जमाल॥
नयनों के मिलन से मन भी मिल जाता है। अर्थात दोनों एक दूसरे के प्रति आकृष्ट हो जाते हैं। यह तो प्रेम का स्वाभाविक सौदा है इसमें बल पूर्वक कुछ नहीं प्राप्त किया जा सकता।
जसु अपजसु देखत नहीं, देखत साँवल-गात।
कहा करौं, लालच-भरे, चपल नैन चलि जात॥
यहाँ नायिका अपने विवश प्रेम के विषय में सखी से कह रही है कि हे सखी, मेरे ये चंचल नेत्र यश-अपयश, किसी की प्रशंसा अथवा निंदा की चिंता नहीं करते। वह यह नहीं देखते कि ऐसा करने से मेरी प्रशंसा होगी कि निंदा होगी। ये बस श्याम-शरीर (श्रीकृष्ण) को ही देखते हैं अर्थात् उनको देखने के पश्चात् यश-अपयश की बात भूल जाते हैं। मैं इनका क्या करूँ, ये लालच में भरे हुए श्याम-शरीर को देखने के मोह में चंचल होकर उधर ही चले जाते हैं।
अमी हलाहल मद भरे, सेत स्याम रतनार।
जियत-मरत झुकि-झुकि परत, जिहि चितवन इकबार॥
डारी सारी नील की, ओट अचूक चुकैं न।
मो मन-मृगु करबर गहैं, अहे! अहेरी नैन॥
कवि कह रहा है कि नायक नायिका के नेत्रों से बिद्ध होकर और उसकी नीली साड़ी से युक्त छवि से प्रभावित होकर व्याकुलता का अनुभव कर रहा है। अपनी इसी व्याकुलता के कारण वह दूती से कहता है कि नीली साड़ी की ओट से उसके नेत्रों ने मेरे मन पर अचूक प्रहार किया है। और मेरे मन को बलपूर्वक अपने अधिकार में कर लिया है। चीता झाड़ियों और पत्तों की ओट में छिप-छिपकर मृग के समीप पहुँच जाता है और अकस्मात् उस पर आक्रमण कर मृग को पकड़ लेता है। इस दोहे में अहेरी नेत्र ही कर्बर अर्थात् चीता है, मन ही मृग है, नीली साड़ी की ओट ही झाड़ी की ओट है।
नैना नैंक न मानहीं, कितौ कह्यौ समुझाइ।
तनु मनु हार हूँ हँसैं, तिन सौं कहा बसाइ॥
हे सखी, मैं अपने इन नेत्रों को चाहे कितना ही समझाऊँ, किंतु ये मेरी थोड़ी-सी भी बात नहीं मानते हैं। ये ऐसे चपल हैं जो तन-मन हार जाने पर भी हँसते रहते हैं। ऐसे नेत्रों पर क्या वश चल सकता है? नायिका के इस कथन का व्यंग्यार्थ यह है कि उसके नेत्र इतने चंचल और रूपासक्त हैं कि नायिका उन्हें वश में करने के लिए लाख प्रयत्न करती है, किंतु वे चंचलतावश अपनी सारी मर्यादा तोड़कर प्रिय को देखकर मुस्करा देते हैं।
खेलन सिखए, अलि, भलैं चतुर अहेरी मार।
कानन-चारी नैन -मृग नागर नरनु सिकार॥
नायिका की सखी कहती है कि हे सखी, कामदेव रूपी शिकारी ने तेरे कर्ण पर्यंत फैले नेत्रों रूपी मृगों को नागरिकों का शिकार करना सिखला दिया है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार जंगल में रहने वाले मृगों को कोई चतुर शिकारी बेध देता है, उसी प्रकार से नायिका के कानों तक विस्तीर्ण नेत्र चतुर पुरुषों को बेधने वाले हैं।
तरुन कोकनद-बरनबर, भए अरुन निसि जागि।
बाही कैं अनुराग दृग, रहे मनौ अनुरागि॥
नायिका कह रही है कि हे लाल,आपके नेत्र रात भर जगने से पूर्ण विकसित कमल से भी सुंदर लाल रंग वाले हो गए हैं। उन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो तुम्हारे नेत्र उसी के अनुराग में रंगे हुए हैं जिसके पास तुम रात भर रहे हो। भाव यह है कि तुम्हारे नेत्रों से जो लाली दिखाई पड़ रही है, वह उस नायिका के प्रेम की साक्षी है।
इन दुखिया अँखियानु कों, सुखु सिरज्यौई नाँहि।
देखे बनै न देखतै, अनदेखे अकुलाँहि॥
हे सखी, मैं क्या करूँ, मेरी इन दु:खिनी आँखों के लिए सुख बनाया ही नहीं गया है। इनके देखने पर, अर्थात् नायक के दृष्टिगोचर होने पर लज्जावश देखते ही नहीं बनता, (और) न देखने से, यानी नायक के दृष्टिगोचर न होने पर ये व्याकुल होती हैं।
चितवनि रूखे दृगनु की, हाँसी-बिनु मुसकानि।
मानु जनायौ मानिनी, जानि लियौ पिय जानि।।
नायिका की सखी अपनी दूसरी सखी से कह रही है कि हे सखी, नायिका की रूक्ष दृष्टि से उसका मान व्यक्त हो रहा था और नायक बिना मुस्कराहट के हँस रहा था। इससे यह स्पष्ट हो गया था कि वह समझ रहा था कि नायिका ने उसके अपराध को जानकर मान किया है।
बीच अमल का समल बिच, दोहु कलेजों खाय।
दीठि असित तें सित बुरी, कछू न जाहि उपाय॥
दृष्टि उज्ज्वल हो चाहे मैली, दोनों में भेद ही क्या है? दोनों ही कलेजे को खाती है। लेकिन मैली दृष्टि से उज्ज्वल दृष्टि बहुत बुरी है क्योंकि (मैली दृष्टि 'नज़र' का तो इलाज भी है पर) उज्ज्वल दृष्टि (प्रेम) का कोई उपचार नहीं।
सकुचि न रहियै स्याम सुनि, ए सतरौहैं बैन।
देत रचौंहौं चित्त कहे, नेह-नैचौ हैं नैन॥
हे श्याम, आप मेरी अंतरंग सखी के रोषयुक्त वचनों से क्रोधित न हों और न उससे मिलने में कोई संकोच करें। वह तो केवल विनोद में मान किए बैठी है। उसका मान वास्तविक नहीं है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उसके स्नेह से चंचल हुए नेत्र उसके हृदय में आपके प्रति जो असीमित अनुराग है, उसे व्यक्त कर रहे हैं।
को जानै ह्वै है कहा, ब्रज उपजी अति आगि।
मन लागै नैननु चलै, न मग लगि लागि॥
कौन जाने अब क्या होगा क्योंकि यह आग सारे ब्रज में ही उत्पन्न हो चुकी है जिसके कारण लोक-मर्यादा की लीक भी नहीं सूझती है। तू भी उस नायक के प्रेम का शिकार हो गई है। यह आग पहले मन में लगती है और फिर नेत्रों में लग जाती है जिससे संतप्त कोई भी सही रास्ते पर नहीं चलता। तेरी भी यही दशा हो रही है।
बिट्टीए मइँ भणिय तुहुँ मा कुरु बङ्की दिट्ठि।
पुत्ति सकण्णी भल्लि जिवँ मारइ हियइ पइट्ठि॥
हे बिटिया, मैंने तुमसे कहा था कि चितवन बाँकी मत कर। हे पुत्री, वह नोकदार बर्छी की तरह हृदय में समाकर मारती है।
साजे मोहन-मोह कौं, मोहीं करत कुचैन।
कहा करौं, उलटे परे, टोने लोने नैन॥
नायिका अपनी अंतरंग सखी से कह रही है कि मैंने अपने प्रिय मोहन को मोहित करने के उद्देश्य से अपने नेत्रों को अंजन आदि के प्रयोग से सज्जित किया था किंतु इस क्रिया का परिणाम विपरीत हुआ। मोहन के सौंदर्य के वशीभूत होकर मेरे नेत्र अब मुझको ही व्याकुल कर रहे हैं। भाव यह है कि प्रिय के सौंदर्य का जादू अब मेरे नेत्रों पर हो गया है और ये स्वयं मुझ पर जादू करने लग गए हैं। अतः हे सखी, अब तू ही मुझे बतला कि मैं इस व्याकुलता में कैसे रहूँ और क्या करूँ।
चलेहिँ चलन्तेहिँ लोअणेहिँ जे तइँ दिट्ठा बालि।
तहिं मयरद्धय दडवडउ पडइ अपूरइ कालि॥
हे बाले, जिनको तूने अस्थिर चंचल नयनों से देखा, उन पर समय से पहले ही मकरध्वज (कामदेव) का आक्रमण हो जाता है।
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संबंधित विषय : मणिपुरी कविता
बर जीते सर मैन के, ऐसे देखे मैं न।
हरिनी के नैनानु तैं, हरि, नीके ए नैन॥
हे हरि, इस नायिका के नेत्र तो मृगी के नेत्रों से भी सुंदर हैं। इन्होंने कामदेव के बाणों को भी बलात् जीत लिया है। वास्तविकता यह है कि मैंने तो इस प्रकार के नेत्र कहीं देखे ही नहीं हैं।
डगमग नयन सुसगमगे, विमल सु लखे जु बाल।
तसकर चितवनि स्याम की, चित हर लियो जमाल॥
जब बाला ने कृष्ण को अपने चंचल नेत्रों से देखा तो किसी को अपनी ओर देखता जान कर श्याम ने भी उसकी ओर देखा। उनकी इस चितवन ने उसका मन मोह लिया।
कहा लडैते दृग करे, परे लाल बेहाल।
कहुँ मुरली, कहुँ पीत पटु, कहूँ मुकटु बनमाल॥
नायिका के नेत्र-बाणों की चोट खाकर श्रीकृष्ण बेहाल हो गए हैं। उनकी चोट से या उनके मारक प्रभाव से कृष्ण बेहाल होकर पड़े हैं। उनकी स्थिति यह है कि उन्हें अपनी प्रिय वस्तुओं तक की सुधि नहीं रही है। यही कारण है कि कहीं तो उनकी मुरली पड़ी हुई है, कहीं मुकुट है और कहीं वनमाला है।
नैन मिलैं तैं मन मिलैं, होई साट दर हाल।
इह तौ सौदा सहज का, ज़ोर न चलत जमाल॥
नयनों के मिलन से मन भी मिल जाता है अर्थात् दोनों एक दूसरे के प्रति आकृष्ट हो जाते हैं। यह तो प्रेम का स्वाभाविक सौदा है इसमें बलपूर्वक कुछ नहीं प्राप्त किया जा सकता।
पहुँचति डटि रन-सुभट लौं, रोकि सकैं सब नाँहि।
लाखनु हूँ की भीर में, आँखि उहीं चलि जाँहि॥
एक सखी दूसरी से कहती है कि हे सखी, तेरी दृष्टि लाखों की भीड़ में अपने प्रेमी के निकट सभी प्रकार की बाधाओं को दूर कर उसी प्रकार पहुँच जाती है जिस प्रकार कोई वीर योद्धा रण-क्षेत्र में अपने मार्ग के समस्त विघ्नों को दूर करता हुआ अपने प्रतिपक्षी नायक के पास पहुँच जाता है।
जौ कुछ उपजत आइ उर, सो वे आँखें देत।
रसनिधि आँखें नाम इन, पायो अरथ समेत॥
रसनिधि कवि कहते हैं कि हृदय में जो कुछ विचार उत्पन्न होते हैं, उन्हें ये आँखें ‘आख’ देती हैं अर्थात कह देती हैं। इसीलिए इनका यह सार्थक ‘आँखे’ नाम है। (पंजाबी में ‘कह’ ‘देने’ को ‘आख देना’ कहते हैं।)
बाल, कहा लाली भई, लोइन-कोंइनु माँह।
लाल, तुम्हारे दृगनु की, परी दृगनु में छाँह॥
पूर्वार्द्ध में नायक-वचन नायिका के प्रति और उत्तरार्द्ध में नायिका-वचन नायक के प्रति है। नायक कहता है कि हे बाला, तेरी आँखों के कोयों में लाली क्यों हो आई है? हे लाल, यह तो तुम्हारी आँखों की छाया मेरी आँखों में पड़ रही है। नायिका की आँखों की लाली नायक की आँखों की छाया स्वरूप है अथवा यह कि नायक के ही कारण उसकी आँखें लाल हुई हैं क्योंकि उसे यह पता चल गया है कि नायक रात्रि में अन्यत्र किसी अन्य स्त्री के साथ रहा है अत: वह क्रुद्ध है।
कियौ सुकछु नैनन कियौ, मैं न कियौ मिर लाल।
लंका सो गढ़ टूटियो, घर के भेद जमाल॥
मेरे प्रिय! जो कुछ हुआ वह सब इन नयनों के कारण ही मेरे मन का भेद खुल गया। घर के भेदी के कारण ही लंका-सा सुदृढ़ दुर्ग तोड़ा गया था।
नख-सिख-रूप भरे खरे, तौ माँगत मुसकानि।
तजत न लोचन लालची, ए ललचौहीं बानि॥
नायिका कहती है कि हे सखी, मेरे ये नेत्र श्याम को नख से शिख तक देख चुके हैं, अर्थात् सर्वांगीण रूप से मेरे नेत्रों में कृष्ण ही बसे हुए हैं, फिर भी ये लालची नयन अपने लोभी स्वभाव को नहीं त्यागते और इनकी एक मुस्कान और देखने की माँग कर रहे हैं।