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प्रतीक्षा पर दोहे

प्रतीक्षा या इंतिज़ार

किसी व्यक्ति अथवा घटित के आसरे में रहने की स्थिति है, जहाँ कई बार एक बेचैनी भी अंतर्निहित होती है। यहाँ प्रस्तुत है—प्रतीक्षा के भाव-प्रसंगों का उपयोग करती कविताओं से एक अलग चयन।

अंषड़ियाँ झाँई पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।

जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि॥

प्रियतम का रास्ता देखते-देखते आत्मा रूपी विरहिणी की आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा है। उसकी दृष्टि मंद पड़ गई है। प्रिय राम की पुकार लगाते-लगाते उसकी जीभ में छाले पड़ गए हैं।

कबीर

तिय पिय सेज बिछाइयों, रही बाट पिय हेरि।

खेत बुवाई किसान ज्यों, रहै मेघ अवसेरि॥

रसलीन

जब-जब वै सुधि कीजियै, तब-तब सब सुधि जाँहि।

आँखिनु आँखि लगी रहैं, आँखें लागति नाहि॥

नायिका अपनी विरह-दशा को निवेदित करते हुए कह रही है कि हे सखी, जब-जब मैं प्रियतम का स्मरण करती हूँ, तब व्यथा का भार बढ़ जाता है और मैं अपनी सुध-बुध खो बैठती हूँ। मैं विरह में पड़ी हुई निरंतर अपने मन में प्रिय के आगमन की प्रतीक्षा करती रहती हूँ और व्याकुल होती रहती हूँ। इस स्थिति के कारण बहुत प्रयत्न करने पर भी मुझे किसी भी विधि से नींद नहीं आती है।

बिहारी

रे हितियारे अधरमी, तू आवत लाल।

जोबन अजुंरी नीर सम, छिन घट जात जमाल॥

प्रियतम! तुम कितने कठोर हृदय वाले और अन्यायी हो। अंजलि में भरे पानी के समान यौवन अस्थिर है; वह चला जाएगा। तुम आते क्यों नहीं हो?

जमाल

नभ लाली चाली निसा, चटकाली धुनि कीन।

रति पाली, आली, अनंत, आए बनमाली न॥

नायिका सखी से कहती है कि हे सखी, देख आकाश में लालिमा छा गई है, रात्रि चली गई है, इस प्रभात वेला में चिड़ियाओं का समूह कलरव करने लग गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने कहीं अन्यत्र प्रेम पाल लिया है इसलिए वे वनमाली अर्थात् श्रीकृष्ण नहीं आए हैं।

बिहारी

दया करहु अब रामजी, आवौ मेरै भौंन।

सुन्दर भागै दुःख सब, बिरह जाइ करि गौंन॥

सुंदरदास

प्रियतम को पोख्यो चहैं, प्रेम-पियासे नैन।

आँसु निगोरे चहत हैं, औसर पै दुख दैन॥

मोहन

पीपा पी पथ निरखता, आँखा झाँई पड़ी।

अभी पी अडग अलख लखूँ, अडिकूं घड़ी-घड़ी॥

संत पीपा

कुंजा ज्यों कुरल्या करै, बिरही जणा को जीव।

पेपा आगि बुझ सके, जब लग मिले पीव॥

संत पीपा

सुन्दर बिरहनि बहु तपी, मिहरि कछु इक लेहु।

अवधि गई सब बीति कैं, अब तौ दरसन देहु॥

सुंदरदास

कहति ललन आए क्यौं, ज्यौं-ज्यौं राति सिराति।

त्यौं-त्यौं वदन सरोज पैं, परी पियरई जाति॥

रामसहाय दास

जिन कजरारे नैन ने, कजरारो मुख कीन।

तिनपै बेगि सिधाइये, मोहन! परम प्रवीन॥

मोहन

ये समीर तिहुँ लोक के, तुम हौ जीवन दानि।

पिय के हिय में लागि के, कब लगिहौ हिय आनि॥

भूपति

पीय लुभाना सुनि सखा, काहू सौं परदेस।

सुन्दर बिरहनि यौं कहै, आया नहीं संदेस॥

सुंदरदास

सुन्दर बिरहनि यौं कहै, जिनि तरसावौ मोहि।

प्रान हमारै जात हैं, टेरि कहतु हौं तोहि॥

सुंदरदास

अजौं अली आयौ पिउ, कहा हेत सु कहै न।

अध विकास नैननि रही, आधे कहि मुख बैन॥

दौलत कवि

पीउ आयौ क्यौं यह, कहो हेत अब सोय।

नैन बेग चाहत मिल्यौ, सखी ध्यान मग होय॥

दौलत कवि

पीउ आयौ सो वनहिं, रह्यौ कहूँ रस पागि।

कहत काहू लाज सों, रही सोच मग लागि॥

दौलत कवि

जमुना तीर, समीर तहँ, बहै त्रिबिधि सुख होय।

अजौं आयौ क्यौं पिय, करैं दोर द्रग दोय॥

दौलत कवि

पिउ हउं थक्किय सयलु दिणु तुह विरहरग्गि किलंत।

थोडइ जलि जिम मच्छलिय तल्लोविल्लि करंत॥

सोमप्रभ सूरि