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अपभ्रंश पर दोहे

अपभ्रंश शब्द पतन, विकृति,

बिगाड़ आदि का अर्थमूलक है। आधुनिक भाषाओं के उदय से पहले उत्तर भारत में प्रचलित बोलचाल और काव्य की भाषा को अपरिष्कृत भाषा के रूप में देखते हुए संस्कृत वैयाकरणों द्वारा इसे ‘अपभ्रंश’ नाम दिया गया था।

अगलिअ-नेह-निवट्टाहं जोअण-लक्खु वि जाउ।

वरिस-सएण वि जो मिलइ सहि सोक्खहं सो ठाउ॥

अगलित स्नेह में में पके हुए लोग लाखों योजन भी चले जाएँ और सौ वर्ष बाद भी यदि मिलें तो हे सखि, मैत्री का भाव वही रहता है।

हेमचंद्र

पंचहँ णायकु वसिकरहु, जेण होंति वसि अण्ण।

मूल विणट्ठइ तरुवरहँ, अवसइँ सुक्कहिं पण्णु॥

पाँच इंद्रियों के नायक मन को वश में करो जिससे अन्य भी वश में होते हैं। तरुवर का मूल नष्ट कर देने पर पर्ण अवश्य सूखते हैं।

जोइंदु

साव-सलोणी गोरडी नवखी वि विस-गंठि।

भडु पच्चलिओ सो मरइ जासु लग्गइ कंठि॥

सर्वांग सुंदर गोरी कोई नोखी विष की गाँठ है। योद्धा वास्तव में वह मरता है जिसके कंठ से वह नहीं लगती।

हेमचंद्र

अङ्गहिं अङ्ग मिलिउ हलि अहरेँ अहरु पत्तु।

पिअ जोअन्तिहे मुह-कमलु एम्वइ सुरउ समत्तु॥

हे सखि, अंगों से अंग नहीं मिला; अधर से अधरों का संयोग नहीं हुआ; प्रिय का मुख-कमल देखते-देखते यों ही सुरत समाप्त हो गई।

हेमचंद्र

पाइ विलग्गी अन्त्रडी सिरु ल्हसिउँ खन्धस्सु।

तो वि कटारइ हत्थडउ बलि किज्जउं कंतस्सु॥

पाँव तक अँतड़ियाँ लटक रही हैं, सिर (कटकर) कंधे से झूल गया है, लेकिन हाथ कटारी पर है। ऐसे कंत की मैं बलि जाऊँ।

हेमचंद्र
  • संबंधित विषय : वीर

हियडा जइ वेरिअ घणा तो किं अब्भि चडाहुँ।

अम्हाहिं बे हत्थडा जइ पुणु मारि मराहुँ॥

हे मन, यदि दुश्मन बहुत हैं तो क्या बादल पर चढ़ जाऊँ? हमारे भी दो हाथ हैं, मार कर मरेंगे।

हेमचंद्र
  • संबंधित विषय : वीर

देउल देउ वि सत्थु गुरु, तित्थु वि वेउ वि कब्बु।

बच्छु जु दोसै कुसुमियउ, इंधणु होसइ सब्बु॥

देवल (मंदिर), देव, शास्त्र, गुरु, तीर्थ, वेद, काव्य, वृक्ष जो कुछ भी कुसुमित दिखाई पड़ता है, वह सब ईंधन होगा।

जोइंदु

ढोल्ला मइँ तुहुँ वारिया मा कुरु दीहा माणु।

निद्दए गमिही रत्तडी दडवड होइ विहाणु॥

हे ढोला, मैंने तुम्हें मना किया कि लंबे समय तक मान मत कर। रात नींद में ही चली जाएगी और शीघ्र ही विहान (सुबह) हो जाएगी।

हेमचंद्र

एहु जम्मु नग्गहं गियउ भड-सिरि खग्गु भग्गु।

तिक्खाँ तुरिय माणिया गोरी गलि लग्गु॥

वह जन्म व्यर्थ गया जिसने शत्रु के सिर पर खड्ग का वार नहीं किया, तीखे घोड़े पर सवारी की और गोरी को गले ही लगाया।

मुंज

एक्कु कइअह वि आवही अन्नु वहिल्लउ जाहि।

मइँ मित्तडा प्रमाणिअउ पइँ जेहउ खलु नाहिं॥

एक तो कभी भी आता नहीं, दूसरे तुरंत चला जाता है। हे मीत, मैंने प्रमाणित किया कि तुम्हारे जैसा खल कोई नहीं है।

हेमचंद्र

भल्ला हुआ जु मारिआ बहिणि महारा कंतु।

लज्जेज्जंतु वयंसिअहु जइ भग्गा धर एंतु॥

हे बहिन, भला हुआ मेरा कंत मारा गया। यदि भागा हुआ घर आता तो मैं सखियों में लजाती।

हेमचंद्र
  • संबंधित विषय : वीर

एइ ति घोड़ा एह थलि एइ ति निसिआ खग्ग।

एत्थु मणीसिम जाणिअइ जो नवि वालइ वग्ग॥

ये वे घोड़े हैं, यह वह स्थली है, ये वे निशित खड्ग हैं, यहाँ यदि घोड़े की बाग मोड़े तो पौरुष जानिए।

हेमचंद्र

जे महु दिण्णा दिअहडा दइएँ पवसन्तेण।

ताण गणन्तिए अंगुलिउ जज्जरिआउ नहेण॥

जो दिन मुझे प्रवास पर जाते हुए प्रिय ने दिए थे, उन्हें गिनते हुए मेरी अंगुलियाँ नख से जर्जरित हो गईं।

हेमचंद्र

भोय एहु गलि कंठलउ, भण केहउ पडिहाइ।

उरि लच्छिहि मुहि सरसतिहि सीम निबद्धी काइ॥

धोज, कहो इसके गले में कंठा कैसा प्रतीत होता है! लगता है उर में लक्ष्मी और मुँह में सरस्वती की सीमा बाँध दी गई है।

मुंज

अम्बणु लाइवि जे गया पहिअ पराया के वि॥

अवस सुअहिँ सुहच्छिअहि जिवं अम्हइँ तिवं ते वि॥

प्रीत लगाकर जो कोई बटोही पराए की तरह चले गये वे भी अवश्य ही सुख की सेज पर सोते होंगे, जैसे हम हैं वैसे वे भी।

हेमचंद्र

सायरु उप्परि तणु धरइ तलि धल्लइ रयणाइं।

सामि सुभिच्चु वि परिहरइ संमाणेइ खलाइं॥

सागर तिनके को जल के ऊपर रखता है और रत्नों को तल में डाल देता है। स्वामी सुभृत्य को भी छोड़ देता है और खलों का सम्मान करता है।

हेमचंद्र

बिट्टीए मइँ भणिय तुहुँ मा कुरु बङ्की दिट्ठि।

पुत्ति सकण्णी भल्लि जिवँ मारइ हियइ पइट्ठि॥

हे बिटिया, मैंने तुमसे कहा था कि चितवन बाँकी मत कर। हे पुत्री, वह नोकदार बर्छी की तरह हृदय में समाकर मारती है।

हेमचंद्र
  • संबंधित विषय : आँख

जइ रच्चसि जाइट्ठिअए हिअडा मुद्ध-सहाव।

लोहें फुट्टणएण जिवँ घणा सहेसइ ताव॥

हे मुग्ध स्वभाव वाले हृदय! जो जो देखा उसी पर यदि मुग्ध हो गया, तो फूटने वाले लोहे के समान बहुत ताप सहना पड़ेगा।

हेमचंद्र

साहु वि लोउ तडप्फडइ वड्डत्तणहो तणेण।

वड्डप्पणु परि पाविअइ हत्थिं मोक्कलडेण॥

सभी लोग बड़प्पन के लिए तड़फड़ाते हैं, पर बड़प्पन उदारता के गुण से मिलता है।

हेमचंद्र

विप्पिअ-आरउ जइ वि पिउ तो वि तं प्राणहि अज्जु।

अरिंगण दड्ढा जइवि घरु तो ते अग्गिं कज्जु॥

प्रिय यद्यपि अप्रिय-कारक है तो भी आज उसे ला। आग से यद्यपि घर जल जाता है तो भी उस आग से काम पड़ता ही है।

हेमचंद्र

आपणपइ प्रभु होइयइ कइ प्रभु कीजइ हत्थि।

काजु करेवा माणुसह तीजउ मागु अत्थि॥

या तो स्वयं ही प्रभु हों या प्रभु को अपने वश में करे। कार्य करने वाले मनुष्य के लिए तीसरा मार्ग नहीं है।

मुंज

जिवँ तिवँ वकिंम लोअणहं णिरु सामलि सिक्खेइ।

तिवँ तिवँ वम्महु निअय-सर खर-पत्थरि तिक्खेइ॥

ज्यों-ज्यों श्यामा उत्तरोत्तर लोचनों को बंकिमा सिखाती है, त्यों-त्यों काम अपने शरों को खरे पत्थर पर तीखा करता है।

हेमचंद्र

तणहँ तइज्जी भंगि नवि तें अवड-यडि वसंति।

अह जणु लग्गिवि उत्तरइ अह सह सइँ मज्जंति॥

तृणों की तीसरी दशा नहीं है; वे अवट तट में बसते हैं। या तो लोग उनको पकड़कर पार उतरते हैं या वे उनके साथ स्वयं डूब जाते हैं।

हेमचंद्र

भमर रुणझुणि रण्णडइ सा दिसि जोइ रोइ।

सा मालइ देसंतरिअ जसु तुहुँ मरहि विओइ॥

हे अलि, वन में मत गुनगुना और उधर (उस दिशा में) देखकर मत रो। वह मालती देशांतरित हो गई जिसके वियोग में तू मर रहा है।

हेमचंद्र

महिवीढह सचराचरह जिणि सिरि, दिन्हा पाय।

तसु अत्थमणु दिखेसरह होउत होउ चिराय॥

सचराचर जगत के सिर पर जिस सूर्य ने अपने पैर (किरण) डाले उस दिनेश्वर का भी अस्त हो जाता है। होनी होकर रहती है।

मुंज

हियडा फुट्टि तड त्ति करि कालक्खेवें काइं।

देखउँ हय-विहि कहिँ ठवइ पइँ विणु दुक्ख-सयाइं॥

हे हृदय, तड़क कर फट जा। काल क्षेप (देर) करने से क्या फ़ायदा? फिर देखें कि यह मुआ विधाता इन सैकड़ों दुखों को तेरे बिना कहाँ रखता है?

हेमचंद्र

अम्मडि पच्छायावडा पिउ कलहिअउ विआलि।

घइं विवरीरी बुद्धडी होइ विणासहो कालि॥

हे अम्मा, अफ़सोस हो रहा है कि संध्या समय प्रिय से कलह कर लिया; विनाश के समय बुद्धि विपरीत हो जाती है।

हेमचंद्र

बलि किउ माणुस जम्मडा, देक्खंतहँ पर सारु।

जइ उट्टब्भइ तो कुहइ, अह डज्झइ तो छारु॥

मनुष्य इस जीवन की बलि जाता हैं (अर्थात् वह अपनी देह से बहुत मोह रखता है) जो देखने में परम तत्व है। परंतु उसी देह को यदि भूमि में गाड़ दें तो सड़ जाती है और जला दें तो राख हो जाती है।

जोइंदु

माणि पणट्ठइ जइ तणु, तो देसडा चइज्ज।

मा दुज्जन-कर-पल्लविहिँ, दंसिज्जंतु भमिज्ज॥

सोमप्रभ सूरि

वेस विसिट्ठह वारिअइ, जइ वि मणोहर-गत्त।

गंगाजल-पक्खालिअवि, सुणिहि कि होइ पवित्त॥

सोमप्रभ सूरि

च्यारि बइल्ला धेनु दुइ, मिट्ठा बुल्ली नारि।

काहुँ मुंज कुडंवियाहँ गयवर बज्झइ वारि॥

जिसके घर चार बैल, दो गायें और मृदुलभाषिणी स्त्री हो, उस किसान को अपने घर पर हाथी बाँधने की क्या ज़रूरत है?

मुंज

जा मति पच्छह सम्पज्जइ, सा मति पहिली होइ।

मुंज भणइ मुणालवइ, विघन बेढइ कोइ॥

मुंज कहता है कि हे मृणालवती! जो बुद्धि बाद में उत्पन्न होती है, वह अगर पहले ही उत्पन्न हो जाय तो कोई विघ्न घेर नहीं सकता।

मुंज

सउ चित्तह सट्ठी मणह, बत्तीसडा हियांह।

अम्मी ते नर ढड्ढसी जे वीससइं तियांह॥

सौ चित्त, साठ मन और बत्तीस हृदयों वाली स्त्रियों पर जो मनुष्य विश्वास करते हैं वे दग्ध होते हैं।

मुंज

सत्त वि महुरइँ उवसमइ, सयल वि जिय वसि हुंति।

चाइ कवित्तें पोरिसइँ, पुरिसहु होइ कित्ति॥

मधुर व्यवहार से शत्रु भी शांत हो जाता है और सभी जीव वश में हो जाते हैं। त्याग, कवित्व और पौरुष से ही पुरुष की कीर्ति नहीं होती।

देवसेन

सत्थसएण वियाणियहँ धम्मु चढइ मणे वि।

दिणयर सउ जइ उग्गमइ, धूयडुं अंधड तोवि॥

सैकड़ों शास्त्रों को जान लेने पर भी [ज्ञान के विरोधी के] मन पर धर्म नहीं चढ़ता। यदि सौ दिनकर भी उग आएँ तो भी उल्लू के लिए अँधेरा ही रहे।

देवसेन

रूवि पयंगा सद्दि मय, गय फांसहि णासंति।

अलि-उल गंधहि मच्छ रसि, किमि अणुराउ करंति॥

रूप के भ्रम में पतंग, शब्द के वशीभूत हो मृग, स्पर्श के लालच में गज, गंध के लालच में अलिकुल तथा रस में मत्स्य नष्ट होते हैं। यह जानकर विवेकी जीव क्या विषयों में अनुराग करते हैं!

जोइंदु

भोली मुन्धि मा गब्बु करि, पिक्खिवि पडरूवाइँ।

चउदह-सइ छहुत्तरइँ, मुंजह गयह गयाइँ॥

हे भोली मुग्धे, इन छोटे पाड़ों को देखकर गर्व करो। मुंज के तो चौदह सौ और छिहत्तर हाथी थे, वे भी चले गए।

मुंज

काइँ बहुत्तइँ जंपिअइँ, जं अप्पणु पडिकूलु।

काइँ मि परहु तं करहि, एहु जु धम्मह मूलु॥

बहुत कल्पना करने से क्या फ़ायदा? जैसा (व्यवहार) अपने अनुकूल हो वैसा दूसरों के प्रति भी करो। यही धर्म का मूल है।

देवसेन

जं दिज्जह तं पाविअइ, एउ वयण विसुद्धु।

गाइ पइण्णइ खडभुसइँ कि पयच्छइ दुद्धु॥

अगर दिया जाता है तो प्राप्त भी होता है, यह वचन क्या सही नहीं है? गाय को खली-भूसा खिलाया जाता है तो क्या वह दूध नहीं देती?

देवसेन

जो जाया झाणग्गियए, कम्म-कलंक डहेवि।

णिच्च-णिरंजण-णाणमय, ते परमप्प णवेवि॥

जो ध्यान की अग्नि से कर्मकलंकों को जलाकर नित्य निरंजन ज्ञानमय हो गए हैं उन परमात्मा को नमन करता हूँ।

जोइंदु

उब्बस वसिया जो करइ, वसिया करइ जु सुण्णु।

वलि किज्जउँ तसु जोइयहिं, जासु पाउ पुण्णु॥

जो ऊजाड़ में वास करता है तथा शून्य में रहता है, जिसके पाप है और पुण्य; मैं मैं उस योगी की बलि जाता हूँ।

जोइंदु

सायरु पाई लंक गढ़, गढवई दसशिरु राउ।

भग्न षइ सो भंजि गउ, मुंज करसि विसाउ॥

स्वयं सागर खाई था, लंका जैसा गढ़ था और गढ़ का मालिक दसानन रावण था फिर भी भाग्य क्षय होने पर भग्न हो गया। हे मुंज, दुःख मत करो।

मुंज

णिद्धण-मणुयह कट्ठडा, सज्जमि उण्णय दिंति।

अह उत्तमपइ जोडिया, जिय दोस वि गुण हुंति॥

निर्धन मनुष्य के कष्ट संयम बढ़ाते हैं। अच्छे का साथ पाकर दोष भी गुण हो जाते हैं।

देवसेन

चूडउ चुन्नी होइसइ मुद्धि कवोलि निहत्तु।

सासानलिण झलक्कियउं वाह-सलि-संसित्तु॥

सोमप्रभ सूरि

पिउ हउं थक्किय सयलु दिणु तुह विरहरग्गि किलंत।

थोडइ जलि जिम मच्छलिय तल्लोविल्लि करंत॥

सोमप्रभ सूरि

हियडा संकुडि मिरिय जिम, इंदिय-पसरु निवारि।

जित्तिउ पुज्जइ पंगुरणु तित्तिउ पाउ पसारि॥

सोमप्रभ सूरि

अम्हे थोड़ा रिउ बहुअ इउ कायर चिंतंति।

मुद्धि निहालहि गयणयलु कइ उज्जोउ करंति॥

सोमप्रभ सूरि
  • संबंधित विषय : वीर

मरगय वन्नह पियह उरि पिय चंपय-पह देह।

कसबट्टइ दिन्निय सहइ नाइ सुवन्नह रेह॥

सोमप्रभ सूरि

निम्मल-मुत्तिअ-हार मिसि, रइय चाउक्कि पहिट्ठ।

पढमु पविट्ठहु हिय तसु, पच्छा भवणि पविट्ठ॥

सोमप्रभ सूरि

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