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जीवन पर दोहे

जहाँ जीवन को स्वयं कविता

कहा गया हो, कविता में जीवन का उतरना अस्वाभाविक प्रतीति नहीं है। प्रस्तुत चयन में जीवन, जीवनानुभव, जीवन-संबंधी धारणाओं, जीवन की जय-पराजय आदि की अभिव्यक्ति देती कविताओं का संकलन किया गया है।

कहि रहीम संपत्ति सगे, बनत बहुत बहु रीत।

बिपति कसौटी जे कसे, तेई साँचे मीत॥

रहीम

धन्नो कहै ते धिग नरां, धन देख्यां गरबाहिं।

धन तरवर का पानड़ा, लागै अर उड़ि जाहिं॥

धन्ना भगत

थोड़ा जीवण कारनै, मत कोई करो अनीत।

वोला जौ गल जावोगे, जो बालु की भीत॥

संत लालदास

जिन दिन देखे वे कुसुम, गई सु बीति बहार।

अब अलि रही गुलाब में, अपत कँटीली डार॥

हे भ्रमर! जिन दिनों तूने वे सुंदर तथा सुगंधित पुष्प देखे थे, वह बहार बीत गई। अब (तो) गुलाब में बिन पत्ते की कंटकित डाल रह गई है (अब इससे दुःख छोड़ सुख की सम्भावना नहीं है)।

बिहारी

तीन लोक भौ पींजरा, पाप-पुण्य भौ जाल।

सकल जीव सावज भये, एक अहेरी काल॥

सत, रज और तम ये तीनों गुण पिंजड़े बन गए, पाप तथा पुण्य जाल बन गए और सब जीव इनमें फंसने वाले शिकार बन गए। एक अज्ञान-काल-शिकारी ने सबको फंसाकर मारा।

कबीर

काग आपनी चतुरई, तब तक लेहु चलाइ।

जब लग सिर पर दैइ नहिं, लगर सतूना आइ॥

हे कौए! तू अपनी चतुरता तब तक दिखा ले जब तक कि तेरे सिर पर बाज पक्षी आकर अपनी झपट नहीं मारता। भाव यह है कि जब तक मृत्यु मनुष्य को आकर नहीं पकड़ लेती, तभी तक मनुष्य का चंचल मन अपनी चतुरता दिखाता है।

रसनिधि

पायन पुहुमी नापते, दरिया करते फाल।

हाथन पर्वत तौलते, तेहि धरि खायो काल॥

जो ओंधे पैरों से पूरी पृथ्वी नाप लेते थे, समुद्र को एक ही छलांग में कूद जाते थे और अपने हाथों से पर्वत उठा लेते थे, उन्हें भी मौत ने धर दबोचा।

कबीर

सबहि समरथहि सुखद प्रिय, अच्छम प्रिय हितकारि।

कबहुँ काहुहि राम प्रिय, तुलसी कहा बिचारि॥

(संसार की यह दशा है कि) जो समर्थ पुरुष है उन सबको तो सुख देने वाला प्रिय लगता है और असमर्थ को अपना भला करने वाला प्रिय होता है। तुलसी विचारकर ऐसा कहते हैं कि भगवान श्री राम (विषयी पुरुषों में) कभी किसी को भी प्रिय नहीं लगते।

तुलसीदास

हाड़ जरै जस लाकड़ी, बार जरै जस घास।

कबिरा जरे रामरस, जस कोठी जरै कपास॥

मृत शरीर का दाह करने पर उसकी हड्डी लकड़ी के समान जलती है और बाल घास के समान जलते हैं, परंतु परोक्ष में राम मानकर उसकी उपासना एवं विरह-वेदना में जीव उसी प्रकार भीतर-भीतर जलता रहा जैसे कोठी में कपास जल जाए और बाहर पता चले।

कबीर

जाके चलते रौंदे परा, धरती होय बेहाल।

सो सावत घामें जरे, पण्डित करहू विचार॥

हे पंडितों! विचार करो, जिनके चलने के कारण पद-मर्दन से जमीन रगड़ जाती थी और धरती के जीव परेशान हो जाते थे, वे राजे-महाराजे एवं योद्धागण युद्धस्थल में अधमरे पड़े धूप में जलते हैं।

कबीर

मूवा है मरि जाहुगे, बिन शिर थोथी भाल।

परेहु करायल बृक्ष तर, आज मरहु की काल॥

पहले के लोग मर चुके हैं। तुम भी अविवेकरूपी बिना धार के भोथरे भाले के प्रहारों से एक दिन मर जाओगे। क्षणभंगुर संसार रूपी बिना पत्ते एवं बिना छाया के कंटीले झाड़ीदार करील पेड़ के नीचे पड़े हो, आज मरो या कल।

कबीर

मूवा है मरि जाहुगे, मुये कि बाजी ढोल।

सपन सनेही जग भया, सहिदानी रहिगौ बोल॥

पहले के लोग मर चुके हैं। तुम भी मर जाओगे। मुये चाम का ही तो ढोल बजता है। संसार के लोग सपने में मिले हुए प्राणी-पदार्थों के मोही बने हैं। एक दिन यह सपना टूट जाता है। मर जाने के बाद लोगों में उसकी चर्चा ही कुछ दिनों तक पहचान रह जाती है।

कबीर

शुतर गिरयो भहराय के, जब भा पहुँच्यो काल।

अल्प मृत्यु कूँ देखि के, जोगी भयो जमाल॥

ऊँट के समान विशाल शरीर वाला पशु भी काल (मृत्यु) आने पर हड़बड़ाकर गिर पड़ता है। इस प्रकार शरीर की नश्वरता देखकर कवि जमाल उदासीन हो गया।

जमाल

मानुष जन्म दुर्लभ है, बहुरि दूजी बार।

पक्का फल जो गिर पड़ा, बहुरि लागै डार॥

मनुष्य का जन्म पुन: मिलना बड़ा कठिन है। पके फल जब डाली से टूटकर गिर पड़ते हैं तब वे पुन: लौटकर उसमें नहीं लगते। इसी प्रकार जीव जब देह छोड़कर चला जाता है तब पुन: उसमें नहीं लौटता।

कबीर

पानी जैसी ज़िंदगी

बनकर उड़ती भाप।

गंगा मैया हो कहीं

तो कर देना माफ़॥

जीवन सिंह

धन दारा संपत्ति सकल, जिनि अपनी करि मानि।

इन में कुछ संगी नहीं, नानक साची जानि॥

गुरु तेगबहादुर

रजत सीप मैं रजु भुजंग, जथा सुपन धन धाम।

तथा वृथा भ्रम रूप जग, साँच चिदातम राम॥

दीनदयाल गिरि

असु गज अरु कंचन 'दया', जोरे लाख करोर।

हाथ झाड़ रीते गये, भयो काल को ज़ोर॥

दयाबाई

सुन्दर तूं तौ एकरस, तोहि कहौं समुझाइ।

घटै बढै आवै रहै, देह बिनसि करि जाइ॥

सुंदरदास

सुन्दर अविनाशी सदा, निराकार निहसंग।

देह बिनश्वर देखिये, होइ पटक मैं भंग॥

सुंदरदास

माटी सूं ही ऊपज्यो, फिर माटी में मिल जाय।

फूली कहै राजा सुणो, करल्यो कोय उपाय॥

फूलीबाई

बलि किउ माणुस जम्मडा, देक्खंतहँ पर सारु।

जइ उट्टब्भइ तो कुहइ, अह डज्झइ तो छारु॥

मनुष्य इस जीवन की बलि जाता हैं (अर्थात् वह अपनी देह से बहुत मोह रखता है) जो देखने में परम तत्व है। परंतु उसी देह को यदि भूमि में गाड़ दें तो सड़ जाती है और जला दें तो राख हो जाती है।

जोइंदु

भाई बंधु कुटुंब सब, भये इकट्ठे आय।

दिना पाँच को खेल है, 'दया' काल ग्रासि जाय॥

दयाबाई

तात मात तुम्हरे गये, तुम भी भये तैयार।

आज काल्ह में तुम चलो, 'दया' होहु हुसियार॥

दयाबाई

जैसो मोती ओस को, तैसो यह संसार।

बिनसि जाय छिन एक में, 'दया' प्रभू उर धार॥

दयाबाई

जग रचना सब झूठ है, जानि लेहु रे मीत।

कहु नानक थिर ना रहे, जिउ बालू की भीत॥

गुरु तेगबहादुर

'दया कुँवर' या जक्त में, नहीं रह्यो थिर कोय।

जैसो बास सराँय को, तैसो यह जग होय॥

दयाबाई

‘लालू’ क्यूँ सूत्याँ सरै, बायर ऊबो काल।

जोखो है इण जीव नै, जँवरो घालै जाल॥

लालनाथ

रावन कुंभकरण गये, दुरजोधन बलवंत।

मार लिये सब काल ने, ऐसे 'दया' कहंत॥

दयाबाई

जिउ स्वप्ना और पेखना, ऐसे जग को जान।

इन मैं कछु साचो नहीं, नानक बिन भगवान॥

गुरु तेगबहादुर

सुन्दर मानुषा देह यह, पायौ रतन अमोल।

कौड़ी सटै खोइये, मांनि हमारौ बोल॥

सुंदरदास

जैसो मोती ओंस को, तैसो यह संसार।

बिनसि जाय छिन एक में, ‘दया’ प्रभू उर धार॥

दयाबाई

सुन्दर मानुषा देह की, महिमा बरनहिं साथ।

जामैं पइये परम गुरु, अविगति देव अगाध॥

सुंदरदास

सुन्दर मानुषा देह की, महिमा कहिये काहि।

जाकौ बंछै देवता, तूं क्यौं खोवै ताहि॥

सुंदरदास

सुन्दर चेतनि आतमा, जड़ सौं कियौ सनेह।

देह खेह सौं मिलि रह्यौ, रत्न अमोलक येह॥

सुंदरदास

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