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पूँजी पर दोहे

आधुनिक राज-समाज में

पूँजीवाद के बढ़ते असर के साथ ही उसके ख़तरे को लेकर कविता सजग रही है। कविता जहाँ अनिवार्यतः जनपक्षधरता को अपना कर्तव्य समझती हो, वहाँ फिर पूँजी की दुष्प्रवृत्तियों का प्रतिरोध उसकी ज़िम्मेवारी बन जाती है। प्रस्तुत चयन ऐसी ही कविताओं से किया गया है।

कहि रहीम संपत्ति सगे, बनत बहुत बहु रीत।

बिपति कसौटी जे कसे, तेई साँचे मीत॥

रहीम

रहिमन निज संपति बिना, कोउ बिपति सहाय।

बिनु पानी ज्यों जलज को, नहिं रवि सके बचाय॥

रहीम

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