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एनसीईआरटी समस्त (NCERT ALL) पाठ्यक्रम के दोहे

रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।

पानी गए ऊबरै, मोती, मानुष, चून॥

रहीम ने पानी को तीन अर्थों में प्रयुक्त किया है। पानी का पहला अर्थ मनुष्य के संदर्भ में 'विनम्रता' से है। मनुष्य में हमेशा विनम्रता (पानी) होना चाहिए। पानी का दूसरा अर्थ आभा, तेज या चमक से है जिसके बिना मोती का कोई मूल्य नहीं। तीसरा अर्थ जल से है जिसे आटे (चून) से जोड़कर दर्शाया गया है। रहीम का कहना है कि जिस तरह आटे के बिना संसार का अस्तित्व नहीं हो सकता, मोती का मूल्य उसकी आभा के बिना नहीं हो सकता है उसी तरह विनम्रता के बिना व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं हो सकता। मनुष्य को अपने व्यवहार में हमेशा विनम्रता रखनी चाहिए।

रहीम

रहिमन देखि बड़ेन को, लघु दीजिये डारि।

जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तलवारि॥

रहीम कहते हैं कि बड़ी या मँहगी वस्तु हाथ लगने पर छोटी या सस्ती वस्तु का मूल्य कम नहीं हो जाता। हर वस्तु का अपना महत्त्व होता है। जहाँ सूई काम आती है, वहाँ सूई से ही काम सधेगा; तलवार से नहीं।

रहीम

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो छिटकाय।

टूटे से फिर मिले, मिले गाँठ परिजाय॥

रहीम कहते हैं कि प्रेम का रिश्ता बहुत नाज़ुक होता है। इसे झटका देकर तोड़ना यानी ख़त्म करना उचित नहीं होता। यदि यह प्रेम का धागा (बंधन) एक बार टूट जाता है तो फिर इसे जोड़ना कठिन होता है और यदि जुड़ भी जाए तो टूटे हुए धागों (संबंधों) के बीच में गाँठ पड़ जाती है।

रहीम

एकै साधे सब सधै, सब साधै सब जाय।

रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय॥

रहीम कहते हैं कि पहले एक काम पूरा करने की ओर ध्यान देना चाहिए। बहुत से काम एक साथ शुरू करने से कोई भी काम ढंग से नहीं हो पता, वे सब अधूरे से रह जाते हैं। एक ही काम एक बार में किया जाना ठीक है। जैसे एक ही पेड़ की जड़ को अच्छी तरह सींचा जाए तो उसका तना, शाख़ाएँ, पत्ते, फल-फूल सब हरे-भरे रहते हैं।

रहीम

रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।

सुनि अठिलैहैं लोग सब, बाँटि लैहैं कोय॥

रहीम कहते हैं कि अपने मन के दुःख को मन के भीतर छिपा कर ही रखना चाहिए। दूसरे का दुःख सुनकर लोग इठला भले ही लें, उसे बाँट कर कम करने वाला कोई नहीं होता।

रहीम

बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कोय।

रहिमन फाटे दूध को, मथे माखन होय॥

रहीम कहते हैं कि मनुष्य को सोच-समझ कर व्यवहार करना चाहिए। क्योंकि जैसे एक बार दूध फट गया तो लाख कोशिश करने पर भी उसे मथ कर मक्खन नहीं निकाला जा सकता उसी प्रकार किसी नासमझी से बात के बिगड़ने पर उसे दुबारा बनाना बड़ा मुश्किल होता है।

रहीम

कहि रहीम संपत्ति सगे, बनत बहुत बहु रीत।

बिपति कसौटी जे कसे, तेई साँचे मीत॥

रहीम

ऐसी बाँणी बोलिये, मन का आपा खोइ।

अपना तन सीतल करै, औरन कौं सुख होइ॥

कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि।

ऐसैं घटि घटि राँम है, दुनियाँ देखै नाँहि॥

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहिं।

सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि॥

सुखिया सब संसार है, खाए अरु सोवै।

दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै॥

बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र लागै कोइ।

राम बियोगी ना जिवै, जिवै तो बौरा होइ॥

निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ।

बिन साबण पाँणीं बिना, निरमल करै सुभाइ॥

पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया कोइ।

एकै आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होइ॥

हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।

अब घर जालौं तासका, जे चले हमारे साथि॥

कबीर

नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत।

ते रहीम पशु से अधिक, रीझेहु कछू देत॥

रहीम

जाति पूछो साध की, पूछ लीजिए ज्ञान।

मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।1।

आवत गारी एक है, उलटत होइ अनेक।

कह कबीर नहिं उलटिए, वही एक की एक।2।

माला तो कर में फिरै, जीभि फिरै मुख माँहि।

मनुवाँ तो दहुँ दिसि फिरै, यह तौ सुमिरन नाहिं।3।

कबीर घास नींदिए, जो पाऊँ तलि होइ।

उड़ि पड़ै जब आँखि मैं, खरी दुहेली होइ।4।

जग में बैरी कोइ नहीं, जो मन सीतल होय।

या आपा को डारि दे, दया करै सब कोय।5।

कबीर

रहिमन बिपदाहू भली, जो थोरे दिन होय।

हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कपाल॥

रहीम

रहिमन निज संपति बिना, कोउ बिपति सहाय।

बिनु पानी ज्यों जलज को, नहिं रवि सके बचाय॥

रहीम

धनि रहीम जल पंक को लघु जिय पिअत अघाय।

उदधि बड़ाई कौन है, जगत पिआसो जाय॥

रहीम

तरुवर फल नहिं खात हैं, सरवर पियहिं पान।

कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥

रहीम कहते हैं कि परोपकारी लोग परहित के लिए ही संपत्ति को संचित करते हैं। जैसे वृक्ष फलों का भक्षण नहीं करते हैं और ना ही सरोवर जल पीते हैं बल्कि इनकी सृजित संपत्ति दूसरों के काम ही आती है।

रहीम

रहिमन जिह्वा बावरी, कहि गई सरग पताल।

आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल॥

रहीम

थोथे बादर क्वार के, ज्यों रहीम घहरात।

धनी पुरुष निर्धन भए, करें पाछिली बात॥

रहीम

जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।

रहिमन मछरी नीर को तऊ छाँड़ति छोह॥

रहीम

धरती की-सी रीत है, सीत घाम मेह।

जैसी परे सो सहि रहे, त्यों रहीम यह देह॥

रहीम

चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध-नरेस।

जा पर बिपदा पड़त है, सो आवत यह देस॥

रहीम

दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे आहिं।

ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमिटि कूदि चढ़ि जाहिं॥

रहीम

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