बालगोबिन भगत मँझोले क़द के गोरे-चिट्टे आदमी थे। साठ से ऊपर के ही होंगे। बाल पक गए थे। लंबी दाढ़ी या जटाजूट तो नहीं रखते थे, किंतु हमेशा उनका चेहरा सफ़ेद बालों से ही जगमग किए रहता। कपड़े बिलकुल कम पहनते। कमर में एक लँगोटी-मात्र और सिर में कबीरपंथियों की-सी
उस दिन एक अतिथि को स्टेशन पहुँचाकर मैं लौट रही थी कि चिड़ियों और ख़रगोशों की दुकान का ध्यान आ गया और मैंने ड्राइवर को उसी ओर चलने का आदेश दिया। बड़े मियाँ चिड़ियावाले की दुकान के निकट पहुँचते ही उन्होंने सड़क पर आकर ड्राइवर को रुकने का संकेत दिया। मेरे
साहबों, उस दिन अपन मटियामहल की तरफ़ से न गुज़र जाते तो राजनीति, साहित्य और कला के हज़ारों-हज़ार मसीहों के धूम-धड़क्के में नानबाइयों के मसीहा मियाँ नसीरुद्दीन को कैसे तो पहचानते और कैसे उठाते लुत्फ़ उनके मसीही अंदाज़ का! हुआ यह कि हम एक दुपहरी जामा मस्जिद
सन् 1916 से 1922 के आसपास की काशी पंचगंगा घाट स्थित बालाजी मंदिर की ड्योढ़ी। ड्योढ़ी का नौबतख़ाना और नौबतख़ाने से निकलने वाली मंगलध्वनि। अमीरुद्दीन अभी सिर्फ़ छः साल का है और बड़ा भाई शम्सुद्दीन नौ साल का। अमीरुद्दीन को पता नहीं है कि राग किस चिड़िया को
आकाश के तारों में शुक्र की कोई जोड़ नहीं। शुक्र चंद्र का साथी माना गया है। उसकी आभा-प्रभा का वर्णन करने में संसार के कवि थके नहीं। फिर भी नक्षत्र मंडल में कलगी-रूप इस तेजस्वी तारे को दुनिया या तो ऐन शाम के समय, बड़े वेर घंटे-दो घंटे से अधिक देख नहीं
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जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली
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