
विशुद्ध व्याकरण और परिभाषा आदि के द्वारा घटना का बखान करने से ही यदि घटना का पूरा बखान हो जाता तो साहित्य समाचार-पत्रों में ही बंद रहता।

अख़बार का एक काम तो है लोगों की भावनाएँ जानना और उन्हें ज़ाहिर करना, दूसरा काम है लोगों में अमुक जरूरी भावनाएँ पैदा करना और तीसरा काम है लोगों में दोष हों तो चाहे जितनी मुसीबतें आने पर बेधड़क होकर उन्हें दिखाना।

समाचारपत्र एक ज़बरदस्त शक्ति है, किंतु जिस प्रकार निरंकुश पानी का प्रवाह गाँव के गाँव डुबो देता है और फसल को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार कलम का निरंकुश प्रवाह भी नाश की सृष्टि करता है।
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संबंधित विषय : महात्मा गांधी

नाम और तारीख़ पर ध्यान न दें तो दस साल पुराना अख़बार भी हमें आज का ही जान पड़ेगा। डकैती, लूट, अपहरण, हत्या, बलात्कार, सत्ता की छीना-झपटी—ख़बरों की यही तो वह अमरबेल है जो सदा अख़बारों पर छाई रहती है।

अगर मैं किसी अख़बार का संपादक होता, तो मेरा अख़बार रोज़ न निकलता। जिस दिन ढंग का समाचार न होता, उस दिन अख़बार बंद रहता। एक स्थायी सूचना छाप देता कि जिस दिन अख़बार न आए, उस दिन समझ लीजिए कि कोई समाचार नहीं। बिना किसी समाचार के अख़बार के बारह या सोलह पृष्ठ छाप देना, मूल्यवान अख़बारी काग़ज़ की और पाठकों के समय की बर्बादी ही कही जाएगी।

जो गृहिणियाँ अपने पति को अख़बार के पीछे से घूर रही होती हैं, या बिस्तर पर उनकी साँसों को सुन रही होती हैं, वे किराए के कमरे में रहने वाली अविवाहिता से भी ज़्यादा अकेली हैं।

हम अपने हृदय को साफ़ करें, गंदी चीज़ को पसंद न करें। गंदी चीज़ को पढ़ना छोड़ दें। अगर ऐसा करेंगे तो अख़बार अपना सच्चा धर्म पालन करेंगे।

सफलता वह जगह है जो एक व्यक्ति अख़बार में घेरता है।

आज आज़ादी के ज़माने में तो यह पब्लिक का फ़र्ज़ हो जाता है कि गंदे अख़बारों को न पढ़े, उनको फेंक दें।
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संबंधित विषय : महात्मा गांधीऔर 1 अन्य

हिंदी में राजनैतिक आलोचना करने वाले अख़बार अब नहीं हैं।

थोड़ा भाषण देना आ जाने से, और अख़बारों मे लिखना सीख जाने से ही नेता बन जाने की नौजवानों मे कल्पना हो तो वह ग़लत है। सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ना चाहिए

मूर्खता, दुर्बलता, पक्षपात, ग़लत धारणा, ठीक धारणा, हठधर्मिता और समाचारपत्रों के अंशों के मिले-जुले रूप का नाम जनमत है।

हिंदी के बड़े अख़बार उसकी आत्मा को बेचने में जुटे हैं।

अख़बार वालों ने भी हवाई बातें कर करके सबको गुलाम बना डाला है, लेकिन वे सारी बातें क़रीब-क़रीब निकम्मी ही होती हैं।

लोग अपना पेट पालने के लिए अख़बार के पन्ने भरते हैं और उससे हिंदुस्तान का बिगाड़ होता है तो उन्हें चाहिए कि वे अख़बार का काम छोड़ दें और कोई दूसरा काम गुज़ारे के लिए ढूँढ़ लें।

यदि अख़बार दुरुस्त नहीं रहेंगे तो फिर हिंदुस्तान की आज़ादी किस काम की रहेगी ?

ख़त निजी अख़बार है घर का।

अख़बार लिखने वाले मामूली सिक्के के मनुष्य होते हैं।

हिंदी में तो जैसे अब जो कुछ है, स्मार्ट फ़ोन पर है। अख़बारों में शायद ही कभी कोई क़ायदे की विवेचना छपती हो।

'इंडियन ओपीनियन' के पहले महीने के कामकाज से ही मैं इस परिणाम पर पहुँच गया था कि समाचार-पत्र सेवा भाव से ही चलाने चाहिए।
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संबंधित विषय : महात्मा गांधी

कोई कितना ही चीखे, हमारे अख़बार दुरुस्त होते ही नहीं हैं।

समाचारपत्रों से भाषा बिगड़ती है।