
मुझे अपनी कल्पना को साकार करने के लिए अकेलेपन के दर्द की ज़रूरत है।

एक बार जब बुराई व्यक्तिगत हो जाती है, रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन जाती है तो उसका विरोध करने का तरीक़ा भी व्यक्तिगत हो जाता है। आत्मा कैसे जीवित रहती है? यह आवश्यक प्रश्न है। और उत्तर यह है : प्रेम और कल्पना से।

कला का कार्य यथास्थिति बताने से ज़्यादा यह कल्पना करना है कि क्या संभव है।

मुझे लगता है कि व्यक्ति ईश्वर से आता है और ईश्वर के पास वापस जाता है, क्योंकि शरीर की कल्पना की जाती है और जन्म होता है, यह बढ़ता है और घटता है, यह मर जाता है और ग़ायब हो जाता है; लेकिन जीवात्मा शरीर और आत्मा का मेल है, जिस तरह एक अच्छी तस्वीर में आकार और विचार का अदृश्य संगम होता है।

शैतान की मौत कल्पना के लिए त्रासदी थी।

मैं कल्पना नहीं कर सकता कि कोई आदमी वास्तव में किसी किताब का आनंद ले और उसे केवल एक बार पढ़े।

सिर्फ़ उन चीज़ों के बारे में लिखिए जिनमें वास्तव में आपकी रुचि है; वे चाहे वास्तविक हों या काल्पनिक, और किसी चीज़ के बारे में नहीं।

कल्पित कथा मकड़ी के जाल की तरह है, जो शायद थोड़ा-बहुत जुड़ा हुआ है, लेकिन फिर भी चारों कोनों पर जीवन से जुड़ा हुआ है।

वास्तविकता को प्रचुर कल्पना से हराया जा सकता है।

कल्पना प्रकृति पर मनुष्य की हुकूमत है।

कल्पना चीज़ों की अभिलाषा है।

ईश्वर और कल्पना एक ही हैं।

दुःख के प्रतिकार से थोड़ा दुःख रहने पर भी मनुष्य सुख की कल्पना कर लेता है।

खनखनाते हुए मणिमय मुक्ताहार, सोने के नूपुर, कुंकम के अंगराग, सुगंधित पुष्प, विचित्र मालाएँ, रंगबिरंगे वस्त्र—इन सब चीज़ों की मूर्खों ने नारी में कल्पना कर ली है किंतु भीतर-बाहर विचारने वालों के लिए तो स्त्रियाँ नरक ही हैं।

सत्य कल्पना से अधिक अजीब है। लेकिन ऐसा इसलिए है, क्योंकि कल्पना संभावनाओं से चिपके रहने के लिए बाध्य है; सच नहीं।

ईश्वर की कृपा की भयावह विचित्रता की कल्पना न तुम कर सकते हो, और न ही मैं।

नफ़रत की वजह कल्पना का न होना है।

मैं ऐसे किसी समय की कल्पना नहीं कर सकता जब पृथ्वी पर व्यवहार में एक ही धर्म होगा।

कवि का वेदांत-ज्ञान, जब अनुभूतियों से रूप, कल्पना से रंग और भावजगत से सौंदर्य पाकर साकार होता है, तब उसके सत्य में जीवन का स्पंदन रहेगा, बुद्धि की तर्क-श्रृंखला नहीं। ऐसी स्थिति में उसका पूर्ण परिचय न अद्वैत दे सकेगा और न विशिष्टाद्वैत।

कल्पना गीत गाती है और उस गीत से प्राण-वीणा में नृत्य छंद बज उठता है।

मुझे हृदय की भावनाओं की पवित्रता तथा कल्पना की सत्यता पर ही पक्का विश्वास है, अन्य पर नहीं—कल्पना जिसे सौंदर्य के रूप में ग्रहण करती है वह सत्य ही होना चाहिए चाहे पहले वह अस्तित्व में था या नहीं।

कवि को अपने कार्य में अंतःकरण की तीन वृत्तियों से काम लेना पड़ता है—कल्पना, वासना और बुद्धि। इनमें से बुद्धि का स्थान बहुत गौण है। कल्पना और वासनात्मक अनुभूति ही प्रधान है।

कल्पना की तुलना में बुद्धि इसी प्रकार है जैसे कर्ता की तुलना में उपकरण, आत्मा की तुलना में शरीर और वस्तु की तुलना में उसकी छाया।

हिंदुस्तान की कल्पना भरी हुई है; यूरोप की कला में प्रकृति का अनुकरण है। इस कारण शायद पश्चिम की कला समझने में आसान हो सकती है लेकिन समझ में आने पर वह हमें पृथ्वी से ही जकड़ने वाली होगी, और हिंदुस्तान की कला जैसे-जैसे हमारी समझ में आएगी, वैसे-वैसे हमें ऊपर उठाती जाएगी।

कल्पना सत्य की बड़ी बहन है। स्पष्टतः जब तक किसी ने कहानी नहीं कही थी तब तक संसार में कोई नहीं जानता था कि सत्य क्या है। अतः यह सबसे प्राचीन कला है, यह इतिहास की जननी है।

हमारा भविष्य जैसे कल्पना के परे दूर तक फैला हुआ है, हमारा अतीत भी उसी प्रकार स्मृति के पार तक विस्तृत है।

मानसिक रूप-विधान का नाम ही संभावना या कल्पना है।

यथार्थता के जगत की अपनी सीमाएँ हैं; कल्पना का जगत असीम है। हम एक को बढ़ा नहीं सकते अतः हमें दूसरे को छोटा करना चाहिए, क्योंकि उनके अंतर से ही वे बुराइयाँ उत्पन्न होती हैं जो हमें दुखी कर देती हैं।

कल्पना, मनुष्य-प्राण की मानसी वीणा का चिरंतन संगीत है।

थोड़ा भाषण देना आ जाने से, और अख़बारों मे लिखना सीख जाने से ही नेता बन जाने की नौजवानों मे कल्पना हो तो वह ग़लत है। सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ना चाहिए

हमारे विचार या आदर्श अमर होंगे, हमारे भाव जाति की स्मृति से कभी नहीं मिटेंगे, भविष्य में हमारे वंशधर की हमारी कल्पनाओं के उत्तराधिकारी बनेंगे, इस विश्वास के साथ मैं दीर्घ काल तक समस्त विपदाओं और अत्याचारों को हँसते हुए सहन कर सकूँगा।

मेरी देशभक्ति कोई वर्जनशील वस्तु नहीं है। वह तो सर्वग्रहणशील है और मैं ऐसी देशभक्ति को स्वीकार नहीं करूँगा जिसका उद्देश्य दूसरे राष्ट्रों के दुख का लाभ उठाना या उनका शोषण करना हो। मेरी देशभक्ति की जो कल्पना है व हर हालत में हमेशा, बिना अपवाद के समस्त मानव-जाति के व्यापकतम हित के अनुकूल है। यदि ऐसा न हो तो उस देशभक्ति का कोई मूल्य नहीं होगा। इतना ही नहीं, मेरा धर्म तथा धर्म से नि:सृत मेरी देशभक्ति समस्त जीवों को अपना मानती है।

जिस कवि में कल्पना की समाहार-शक्ति के साथ भाषा की समास-शक्ति जितनी ही अधिक होगी उतना ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा।

हर युग की अनुश्रुति पुराण पर कल्पना का नया रंग चढ़ा देती है और इस प्रकार हम तक आते-आते यह जीवन-गाथा सत्य, कल्पना, सिद्धांत, आदर्श, नीति आदि का संघात बन जाती है।

कल्पना का विचार मैं प्राथमिक तथा परवर्ती के रूप में करता हूँ। प्राथमिक कल्पना को मैं समस्त मानवीय ज्ञान की जीवंत शक्ति और प्रमुख कारक, तथा अनंत 'अहम् अस्मि' में होने वाली शाश्वत सृजन-प्रक्रिया की शांत मन में आवृत्ति मानता हूँ। द्वितीयक कल्पना को मैं प्राथमिक कल्पना की प्रतिध्वनि मानता हूँ, जो चेतन संकल्प-शक्ति के साथ अस्तित्त्वशील है, और फिर भी प्राथमिक कल्पना से कारकता के प्रकार में तादात्म्यशील होती है, और केवल मात्रा में तथा क्रियाविधि में उससे भिन्न होती है। पुनः सृजन के निमित्त यह विघटित करती है, प्रसारित करती है तथा क्षय करती है; या जहाँ यह प्रक्रिया असंभव हो जाती है वहाँ भी यह प्रत्ययीकरण तथा एक करने के लिए संघर्ष को सदैव करती है। यह अनिवार्यतः सजीव होती है, वैसे ही जैसे सभी वस्तुएँ वस्तुओं के रूप में स्थिर और निर्जीव होती हैं।

जिस व्यक्ति में कल्पना है परंतु विद्वत्ता नहीं, उसके पंख हैं परंतु पैर नहीं।

कल्पना विश्व पर शासन करती है।

सोचने वाले दिमाग़ को कल्पना द्वारा सबसे बेहतर तरीक़े से नियंत्रित किया जाता है।

होरेशियो! तुम्हारे दर्शनशास्त्र में जिन बातों की को कल्पना की गई है, उनकी तुलना में पृथ्वी और स्वर्ग में कहीं अधिक वस्तुएँ हैं।
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