आलोचक पर उद्धरण
आलोचना एक साहित्यिक
विधा है जो कृतियों में अभिव्यक्त साहित्यिक अनुभूतियों का विवेकपूर्ण विवेचन उपरांत उनका मूल्यांकन करती है। कर्ता को आलोचक कहते हैं और उससे रचनाकार के प्रति, कृति के प्रति और समाज के प्रति उत्तरदायित्वों के निर्वहन की अपेक्षा की जाती है। नई कविता में प्रायः कवियों द्वारा आलोचकों को व्यंग्य और नाराज़गी में घसीटा गया है।
आलोचक का धर्म साहित्यिक नेतागिरी करना नहीं है, वरन् जीवन का मर्मज्ञ बनना और उसी विशेषता की सहायता से कला-समीक्षा करना भी है।
कहना न होगा कि शिल्प की दृष्टि से शमशेर हिंदी के एक अद्वितीय कवि है।
अपने स्वयं के शिल्प का विकास केवल वही कवि कर सकता है, जिसके पास अपने निज का कोई ऐसा मौलिक-विशेष हो, जो यह चाहता हो कि उसकी अभिव्यक्ति उसी के मनस्तत्वों के आकार की, उन्हीं मनस्तत्वों के रंग की, उन्हीं के स्पर्श और गंध की ही हो।
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हमारे अधिकांश उपन्यास अति सामान्य प्रश्नों (ट्रीविएलिटीज) से जूझते रहते हैं और उनसे हमारा अनुभूति-संसार किसी भी तरह समृद्ध नहीं होता।
आलोचक के लिए सर्व-प्रथम आवश्यक है—अनुभवात्मक जीवन-ज्ञान, जो निरंतर आत्म-विस्तार से अर्जित होता है।
शमशेर की आत्मा ने अपनी अभिव्यक्ति का एक प्रभावशाली भवन अपने हाथों तैयार किया है, उस भवन में जाने से डर लगता है—उसकी गंभीर प्रयत्नसाध्य पवित्रता के कारण।
सबसे पहली कमी तो हमारे उपन्यासों में चिंतन और वैचारिकता की ही है।
हमारे साहित्य में एक बहुचर्चित स्थापना यह है कि भारतीय उपन्यास मूलतः किसान चेतना की महागाथा है—वैसे ही जैसे उन्नसवीं सदी के योरोपीय उपन्यास को मध्यम वर्ग का महाकाव्य कहा गया था।
भारत जैसे विराट मानवीय क्षेत्र के अनुभवों, गहरी भावनाओं, आशाओं, आकांक्षाओं और यातनाओं आदि को हमारा उपन्यास अभी अंशतः ही समेट पाया है—और जितना तथा जिस प्रकार उसे समेटा गया है उसमें प्रतिभा एवं कौशल के कुछ दुर्लभ उदाहरणों को छोड़कर, अब भी बहुत अधकचरापन है।
वह आलोचना, जो रचना-प्रकिया को देखे बिना की जाती है—आलोचक के अहंकार से निष्पन्न होती है। भले ही वह अहंकार आध्यात्मिक शब्दावली में प्रकट हो, चाहे कलावादी शब्दावली में, चाहे प्रगतिवादी शब्दावली में।
शमशेर की मूल मनोवृत्ति एक इंप्रेशनिस्टिक चित्रकार की है।
उपन्यास की पूरी संभावनाओं का अभी भी हमारे यहाँ दोहन होना है।
‘झूठा सच’ उन दुर्लभ कृतियों में से है जो ठोस, यथार्थवादी स्तर पर, भावुकता के सैलाब में बहे बिना इस भयानक मानवीय त्रासदी को अत्यंत सशक्त रूप में प्रस्तुत करती है।
स्वत्रंता-प्राप्ति के बाद पहला औपन्यासिक चमत्कार रेणु का ‘मैला आँचल’ है।
अल्प-समृद्ध, दरिद्र जो आलोचक है, वह अपने को चाहे जितना बड़ा समझे; साहित्य-क्षेत्र का अनुशासक समझे—वह वस्तुतः साहित्य-विश्लेषण के अयोग्य है, कला-प्रक्रिया के कार्य में अक्षम है—भले ही वह साहित्य का 'शिखर' बनने का स्वांग रचे, मसीहा बने।
‘मैला आँचल’ के साथ ही हिंदी में उपन्यासों में एक नई कोटि का प्रचलन होता है, जिसे ‘आंचलिक’ कहते हैं।
‘कुल्ली भाट’ जैसे छोटे उपन्यास में निराला ने यथार्थ को एक साथ इतने धरातलों पर खोजा है और इतने जटिल शिल्प के साथ कि उसका निर्वाह—असाधारण प्रतिभा ही कर सकती थी, जो कि स्वयं वे थे।
कबीर जब तक अपने रंग में मस्त होकर जीवन का ज्ञान सुनाता है, तभी तक वह कलाकार है। पर जब वह हमें अपने बौद्धिक दार्शनिक निर्गुणवाद के प्रति आस्था रखने के लिए आग्रह करता-सा दिख पड़ता है, वहीं वह कला का दृष्टिकोण छोड़कर दार्शनिक दृष्टिकोण के क्षेत्र में उत्तर आता है—जिसके अलग नियम हैं और मूल्यांकन के अलग स्टैंडर्ड हैं।
प्रयोगवादी कविता के संवेनात्मक उद्देश्यों को न समझने के कारण ही, उसके संबंध में बहुत-सी भ्रांतियाँ फैलाई गई।
किसी साहित्य का वास्तविक विश्लेषण हम तब तक नहीं कर सकते; जब तक कि हम उन गतिमान सामाजिक शक्तियों को नहीं समझते, जिन्होंने मनोवैज्ञानिक-सांस्कृतिक धरातल पर आत्मप्रकटीकरण किया है।
यह आवश्यक नहीं है कि ‘महान्’ आलोचक संवेदनशील हों।
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आलोचक साहित्य का दारोग़ा है।
पवित्रता की माप है मलिनता, सुख का आलोचक है दुःख, पुण्य की कसौटी है पाप।
आधुनिक हिंदी उपन्यास का प्रसंग उठने पर जो सबसे पहली बात ध्यान में आती है वह यह है कि हिंदी उपन्यास के साथ ‘आधुनिक’ का विशेषण अनावश्यक है।
अगर भारतीय उपन्यास की कोई स्पष्ट पहचान करनी हो—उसकी जटिलता के बाबजूद—तो ‘मैला आँचल’ उसका सशक्त संकेतक है।
गेय काव्य (लिरिकल पोएट्री) की रचना-प्रक्रिया; उस कविता की रचना-प्रक्रिया से बिल्कुल भिन्न है, जो मन की किसी प्रतिक्रिया-मात्र का रेखांकन करती है।
अनुभवी कवि आभ्यंतर भाव-संपादन का महत्व जानता है।
आलोचक का कार्य केवल गुण-दोष विवेचन ही नहीं है, वरन् साहित्य का नेतृत्व करना भी है।
आलोचना को छोड़कर हर व्यवसाय सीखने में मनुष्य को अपना समय लगाना चाहिए क्योंकि आलोचक तो सब बने बनाए ही हैं।
प्रकृति-सौंदर्य, साधारणतः प्रसादजी के लिए काव्य का उपादन है।
श्रेष्ठता की कसौटी को लेकर हमारे साहित्य में रचनाकारों और आलोचकों के दो-तीन बड़े मज़बूत और सुपरिचित खेमे हैं; इनकी मान्यताएँ और दृष्टियाँ अत्यंत सुपरिभाषित हैं और अपने को एक-दूसरे से भिन्न मानने में ही उनकी सैद्धांतिक सार्थकता समझी जाती है, पर एक मामले में दोनों खेमों के सदस्य एक जैसे हैं। वे एक ओर भावुकता-विरोध को एक स्वतः सिद्ध मूल्य मानते हैं और दूसरी ओर अकेले में वे सभी भावुक होने की अपार क्षमता दिखा सकते हैं—सब नहीं तो अधिकांश। उन्हीं अधिकांश में एक मैं भी हूँ।
कंडीशंड साहित्यिक रिफ्लेक्सेज, यंत्रवत कविताएँ तैयार करवाते हैं।
अभिव्यक्ति की प्रणाली बदलते ही आलोचकों की नाड़ी छूटने लगती है।
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इंप्रेशनिस्टिक ढंग का चित्रकार, जीवन की उलझी हुई स्थितियों का चित्रण नहीं कर सकता—वह उसके किसी दृश्य-खंड को ही प्रस्तुत कर सकता है।
इंप्रेशनिस्ट चित्रकार दृश्य के सर्वाधिक संवेदनाघात करनेवाले अंशों को प्रस्तुत करेगा, और यह मानकर चलेगा कि यदि यह संवेदनाघात दर्शक के हृदय में पहुँच गया; तो दर्शक अचित्रित शेष अंशों को, अपनी सृजनशील कल्पना द्वारा भर देगा।
रचना-प्रक्रिया से अभिभूत कवि जब भावों की प्रवहमान संगति संस्थापित करता चलता है, तब उस संगति की संस्थापना में उसे भावों का संपादन यानी एडीटिंग करना पड़ता है। यदि वह इस प्रकार भावों की काट-छाँट न करे, तो मूल प्रकृति उसे संपूर्ण रूप से अपनी बाढ़ में बहा देगी और उसकी कृति विकृति में परिणत हो जाएगी।
जिस विशेष अर्थ में पंतजी प्रकृति-सौंदर्य के कवि हैं, उस अर्थ में उदाहरणतः प्रसादजी नहीं।
वास्तविकता हमेशा, अनिवार्य रूप से अटूट नियम की भाँति उलझी हुई होती है। उसमें दिक् और काल, भूगोल और इतिहास, व्यक्ति और समाज, चरित्र और परिस्थिति, आलोचक मन और आलोचित आत्म-व्यक्तित्व—आदि-आदि घनिष्ठ रूप में बिंधे हुए होते हैं।
‘शेखर : एक जीवनी’ के प्रकाशन से हिंदी उपन्यास अपनी अनेक पुरानी सीमाओं को पीछे छोड़ देता है, उपन्यास विधा एक विस्तीर्ण फ़लक हासिल करती है, उसे एक मुक्ति का एहसास होता है; उपन्यास अब घटनाओं का संपुँजन भर नहीं रहा, न चरित्रों की अंतिम परिणति पर आधारित एक नीति कथा और न कोई जीवन-दृष्टि भर। वह अब जीवन का समग्र अनुभव बन गया, एक समानांतर संसार, जिसमें हम स्वयं अपनी जटिल अनुभूतियों को पहचान सकते हैं—और सरंचना की दृष्टि से वह एक साथ कथा जीवनी, चिंतन, दार्शनिक विश्लेषण, काव्य, महाकाव्य बन गया।
‘मैला आँचल’ के अनेक आयामों में से एक यह भी है कि उसका काव्य-तत्त्व अत्यंत प्रबल है।
पेशेवर आलोचकों की त्रासदी शायद यहाँ से शुरू होती है कि वे प्राय: कविता के संवेदनशील पाठक नहीं होते।
हिंदी में राजनैतिक आलोचना करने वाले अख़बार अब नहीं हैं।
कवि-जीवन की प्रथम-स्तरीय उपलब्धि, उस अंतःप्रकृति से साक्षात्कार है जो अपना कुछ विशेष कहना चाहती है, जिसके पास कुछ विशेष कहने के लिए है। इस आत्म-चेतना के प्रत्यक्ष संवेदनात्मक ज्ञान के बिना कोई कवि मौलिक नहीं हो सकता।
उस भाषा के साहित्य का दुर्भाग्य तय है, जहाँ आलोचक महान् हों, कवि नहीं।
शमशेर की आत्मा एक रोमैंटिक क्लासिकल प्रकार की है। किंतु इंप्रेशनिस्टिक होने के कारण, उनका ज़ोर संवेदन-विशिष्टता और संवेदनाघात (पर) और केवल इसी पर होने से—वे नई कविता के एक अद्वितीय कवि के रूप में हमारे सामने आते हैं।
अंधा युग नई साहित्यिक पीढ़ी का एक अत्यंत मूल्यवान और महत्वपूर्ण प्रयास है—ऐसा प्रयास जिस पर व्यापक बहस होना आवश्यक है।
रचना-प्रक्रिया का जो सर्वाधिक मूल-स्थित, सर्वाधिक प्रच्छन्न, किंतु क्रमशः प्रकट होने वाला अंश है, वह पाठक और आलोचक के लिए सर्वप्रथम है। कलाकार रचना के समय, शब्दाभिव्यक्ति के संघर्ष में, संगति और निर्वाह के संघर्ष में, भावों के उत्स को प्रातिनिधिक रूप देने के यत्न में लीन होता है।
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केवल ग्रामीण स्थिति देख-भर लेने से या गाँवों के वातावरण में लेखक के रहने से सच्चे यथार्थवादी साहित्य का जन्म नहीं हो सकता, जब तक लेखक की आत्मा ग्रामीणता में स्वयं नहीं पनपती और वहाँ की क्रिया-प्रतिक्रिया से प्रवहनशील होकर साहित्य में नहीं उतरती।
विशिष्ट की मौलिकता की क़ीमत पर, अर्थात उसकी मौलिकता की उपेक्षा करते हुए जो सामान्यीकरण होगा, वह छिछला, सतही और यांत्रिक होगा।
सुधारवादियों की तथा आज की भी एक पीढ़ी को तुलसीदासजी के वैचारिक प्रभाव से संघर्ष करना पड़ा, यह भी एक बड़ा सत्य है।