आलोचक पर उद्धरण
आलोचना एक साहित्यिक
विधा है जो कृतियों में अभिव्यक्त साहित्यिक अनुभूतियों का विवेकपूर्ण विवेचन उपरांत उनका मूल्यांकन करती है। कर्ता को आलोचक कहते हैं और उससे रचनाकार के प्रति, कृति के प्रति और समाज के प्रति उत्तरदायित्वों के निर्वहन की अपेक्षा की जाती है। नई कविता में प्रायः कवियों द्वारा आलोचकों को व्यंग्य और नाराज़गी में घसीटा गया है।
पेशेवर आलोचकों की त्रासदी शायद यहाँ से शुरू होती है कि वे प्राय: कविता के संवेदनशील पाठक नहीं होते।
उस भाषा के साहित्य का दुर्भाग्य तय है, जहाँ आलोचक महान् हों, कवि नहीं।
मैं थोड़ा-सा कवि हूँ और आलोचक तो बिल्कुल नहीं हूँ।
कई बार एक आलोचक जो कहता है, उससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण वह होता है जो वह नहीं कहता।
आलोचना आधुनिक काल की ज़रूरत है। जहाँ से आदमी अपने को कंफ्रंट करता है, अपने को संबोधित करता है।
कोई भी अच्छा कवि किसी भी आलोचक की गिरफ़्त में पूरा नहीं आता।
किसी अच्छी किताब की मुकम्मल समीक्षा के लिए शायद दूसरी ही किताब लिखनी पड़ती है और फिर भी लगेगा कि कुछ छूट-सा गया है।
कुछ कवि और कुछ कविताएँ इतने असली होते हैं कि किसी भी ऐसे समीक्षक के लिए, जो बेशर्मी से समसामयिक रूढ़ियाँ नहीं दुहरा रहा है, बहुत बड़ी कठिनाई हो जाते हैं।
हिंदी की समकालीन समीक्षा में बार-बार जो नवलेखन से अनास्था की शिकायत की जाती है, दुर्भाग्य से उसकी प्रकृति बहुत कुछ बहेलिया-विप्र के शाप जैसी है।
कला समीक्षक क्या कहते हैं, मैं नहीं सुनता। मैं ऐसे किसी मनुष्य को भी नहीं जानता जिसे यह समझने के लिए कि कला क्या है, एक कला समीक्षक की आवश्यकता पड़ती हो।
पीले और बसंती के बीच फ़र्क़ न कर पाना एक तरह की आलोचना है, जो पीला रंग बसंती कहकर बेचने वाले पंसारियों ने हमारे ऊपर थोप दी है।