आलोचक का धर्म साहित्यिक नेतागिरी करना नहीं है, वरन् जीवन का मर्मज्ञ बनना और उसी विशेषता की सहायता से कला-समीक्षा करना भी है।
कबीर जब तक अपने रंग में मस्त होकर जीवन का ज्ञान सुनाता है, तभी तक वह कलाकार है। पर जब वह हमें अपने बौद्धिक दार्शनिक निर्गुणवाद के प्रति आस्था रखने के लिए आग्रह करता-सा दिख पड़ता है, वहीं वह कला का दृष्टिकोण छोड़कर दार्शनिक दृष्टिकोण के क्षेत्र में उत्तर आता है—जिसके अलग नियम हैं और मूल्यांकन के अलग स्टैंडर्ड हैं।
किसी साहित्य का वास्तविक विश्लेषण हम तब तक नहीं कर सकते; जब तक कि हम उन गतिमान सामाजिक शक्तियों को नहीं समझते, जिन्होंने मनोवैज्ञानिक-सांस्कृतिक धरातल पर आत्मप्रकटीकरण किया है।
महान से महान समीक्षक जब काव्य-सृजन की मानव-भूमिका से कट जाता है, तब वह एक बहुत बड़ा ख़तरा उठाता है।
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तू स्वयं अपना उच्च न्यायालय है। अपनी रचना का मूल्यांकन केवल तू ही कर सकता है।
इतिहास विश्वास की नहीं, विश्लेषण की वस्तु है। इतिहास मनुष्य का अपनी परंपरा में आत्म-विश्लेषण है।
कलात्मक चिंतन के बिना समीक्षा-कार्य नहीं चल सकता। उसी प्रकार वास्तविक जीवन-ज्ञान और जीवन-चिंतन के बिना, उसका मानव-विवेक और कलात्मक विवेक (ये दोनों, एक तरह से पृथक् और दूसरी तरह से अभिन्न हैं) नहीं हो सकता।
आलोचक का कार्य केवल गुण-दोष विवेचन ही नहीं है, वरन् साहित्य का नेतृत्व करना भी है।
हमारी सृजन-प्रतिभा; जीवन-प्रसंग की उद्भावना से लेकर तो अंतिम संपादन तक, अपनी मूल्यांकनकारी शक्ति का उपयोग करती रहती है।
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समीक्षा में समीक्षक की इच्छा-शक्ति की भी लीला होती है।
जो लोग साहित्य के केवल सौंदर्यात्मक-मनोवैज्ञानिक पक्ष को चरम मानकर चलते हैं, वे समूची मानव-सत्ता के प्रति दिलचस्पी न रख सकने के अपराधी तो हैं ही, साहित्य के मूलभूत तत्त्व, उनके मानवीय अभिप्राय तथा मानव-विकास में उनके ऐतिहासिक योगदान, अर्थात्, दूसरे शब्दों में, साहित्य के स्वरूप का विश्लेषण तथा मूल्यांकन न कर पाने के भी अपराधी हैं।
मैं समझता हूँ कि किसी भी साहित्य का ठीक-ठाक विश्लेषण तब तक नहीं हो सकता, जब तक हम उस युग की मूल गतिमान सामाजिक शक्तियों से बननेवाले सांस्कृतिक इतिहास को, ठीक-ठाक न जान लें।
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सही इलाज का नुस्ख़ा वास्तविकता के कठोर विश्लेषण पर निर्भर करता है।
जो लोग केवल ऊपरी तौर पर साहित्य का ऐतिहासिक विहंगावलोकन अथवा समाजशास्त्रीय निरीक्षण कर चुकने में ही अपनी इति-कर्तव्यता समझते हैं, वे भी एकपक्षीय अतिरेक करते हैं।
कर्म ही से बौद्धिक विश्लेषण-शक्ति बढ़ती है, इसमें संदेह नहीं।
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बौद्धिक विश्लेषण-शक्ति भावनानुभूति से एकरस और एकरूप होकर जहाँ काम करती है, वहाँ भावना की अथाह गंभीरता के साथ ही साथ, विश्लेषित भाव, तथा संश्लेषित भाव-दृश्य, सभी कुछ एक साथ प्राप्त होते हैं।
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