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परंपरा पर उद्धरण

मनुष्य ने नियम-कायदों के अनुसार; अपने सजग ज्ञान द्वारा भाषा की सृष्टि नहीं की, और उसके निर्माण की उसे आत्म-चेतना ही थी। मनुष्य की चेतना के परे ही प्रकृति, परम्परा, वातावरण, अभ्यास अनुकरण आदि के पारस्परिक संयोग से भाषा का प्रारम्भ और उसका विकास होता रहा।

विजयदान देथा

इस देश की परंपरा रही है कि लोक और शास्त्र, लगातार संवाद करते रहे हैं।

नामवर सिंह

भारत की सभ्यता अद्भुत इस माने में रही है कि इतना स्थिर समाज, इतनी सदियों तक चीन के अलावा और कहीं क़ायम नहीं रहा। लेकिन इस सामाजिक स्थिरता के साथ-साथ; जितनी राज्य-गत अराजकता और अस्थिरता भारत में रही है, उतनी पृथ्वी पर और कहीं नहीं रही।

राजेंद्र माथुर

धर्म के बिना तो हिंदुस्तान का या किसी भी देश का काम चल सकता है; लेकिन एक साझा मिथकावली के बिना, किसी देश का काम नहीं चल सकता।

राजेंद्र माथुर

महाभारत कोई धर्मग्रंथ नहीं है। वह इस ज़मीन के बाशिंदों के अनुभवों का निचोड़ है और होमर या शेक्सपीयर की तरह का सार्वकालिक और पंथ-निरपेक्ष है।

राजेंद्र माथुर

यदि कोई वामपंथी विशेषज्ञ यह नुस्ख़ा सुझाए कि आप महाभारत की कथाओं को अपनी याददाश्त से बाहर निकाल दीजिए और फिर देश बनाइए, तो यह काम ब्रह्मा और विश्वकर्मा मिलकर भी नहीं कर सकते।

राजेंद्र माथुर

जन-रागिनी और उसकी अंत:श्रद्धा जाने कितनी घटनाओं को अपनी गहराई के जादू से दैवी रूप प्रदान कर देती है, इतिहास विफल रहता है, कला समय का आघात बर्दाश्त नहीं कर पाती और साहित्य कभी-कभी पन्नों में सोया रह जाता है, किन्तु लोक-रागिनी का स्वर आँधी-पानी के बीच समय की उद्दाम-धारा के बहाव के बीच, विस्मृति के कितने अभिचारों के बीच भी शाश्वत बना रहता है और यद्यपि यह नहीं पता चलता कि किस युग से, किस घटना से और किस देश से उसका संबंध है और यह भी नहीं पता चलता कि उसके कितने संस्करण अपने-आप अनजाने कण्ठों द्वारा हो गए हैं, पर उसमें जो सत्य सत्त बनकर खिंच आता है, उसे कोई भी हवा उड़ा नहीं पाती, क्योंकि वह सत्य बहुत भारी होता है।

विद्यानिवास मिश्र

हर नई पीढ़ी अपने पुरखों से वसीयत के रूप में 'शब्द-ज्ञान' का भंडार प्राप्त करती है और अपने नए अनुभवों द्वारा आवश्यकता पड़ने पर, उन परम्परागत शब्दों को नए अर्थों का नया बाना पहनाती रहती है।

विजयदान देथा

कालिदास ने कहा था कि पुराना सब अच्छा नहीं होता, नया सब बुरा नहीं होता। दोनों का समन्वय ज़रूरी है। मनुष्य का विवेक सर्वोपरि है और उसी के आधार पर वह समन्वय संभव होगा।

श्यामाचरण दुबे

परंपरा को जड़ और विकास को गतिमान मानना, हमारी विचार प्रक्रिया में रूढ़ हो गया है।

श्यामाचरण दुबे

परंपराएँ हर समाज और उसके भिन्न समुदायों और समूहों की आत्म-छवि का अविभाज्य अंग होती हैं, और जीवन के अनेक क्षेत्रों में उनका दिशा-निर्देश करती हैं।

श्यामाचरण दुबे

परंपरा और विद्रोह, जीवन में दोनों का स्थान है। परंपरा घेरा डालकर पानी को गहरा बनाती है। विद्रोह घेरों को तोड़कर पानी को चोड़ाई में ले जाता है। परंपरा रोकती है, विद्रोह आगे बढ़ना चाहता है। इस संघर्ष के बाद जो प्रगति होती है, वही समाज की असली प्रगति है।

रामधारी सिंह दिनकर

जो मनीषी परम्परागत मूल्यों के विरोध में खड़े हैं, उनकी ईमानदारी पर शंका करने की कोई गुंजाइश नहीं है। मूल्यों की महिमा यह होनी चाहिए कि वे मनुष्य के भीतर मानवीय भावनाओं को जगाएँ। मनुष्य को सोचने को बाध्य करें, उसे व्याकुल और बेचैन बनायें।

रामधारी सिंह दिनकर

परंपरा सीखी नहीं जाती…

लुडविग विट्गेन्स्टाइन

परंपरा साधन है, साध्य नहीं।

श्यामाचरण दुबे

साहित्य और कला की हमारी पूरी परंपरा में, जीव की प्रधान कामना आनंद की अनुभूति है।

लक्ष्मीनारायण मिश्र

हमने विलायती तालीम तक देसी परंपरा में पाई है और इसलिए हमें देखो, हम आज भी उतने ही प्राकृत हैं! हमारे इतना पढ़ लेने पर भी हमारा पेशाब पेड़ के तने पर ही उतरता है, बंद कमरे में ऊपर चढ़ जाता है।

श्रीलाल शुक्ल

परिवार मर्यादाओं से बनता है। परस्पर कर्त्तव्य होते हैं, अनुशासन होता है और उस नियत परंपरा में कुछ जनों की इकाई एक हित के आसपास जुटकर व्यूह में चलती है। उस इकाई के प्रति हर सदस्य अपना आत्मदान करता है, इज़्ज़त ख़ानदान की होती है। हर एक उससे लाभ लेता है और अपना त्याग देता है।

जैनेंद्र कुमार

इतिहास विश्वास की नहीं, विश्लेषण की वस्तु है। इतिहास मनुष्य का अपनी परंपरा में आत्म-विश्लेषण है।

यशपाल

भाषा, समाज और परंपरा के जरिये मनुष्य के ज्ञान में विकास होता है; उस नए ज्ञान से भौतिक जगत के नए तत्वों का अनुसंधान होता है। नए तत्वों का संपर्क फिर मनुष्य के मानस में नए ज्ञान का सर्जन करता है।

विजयदान देथा

अगर मेरे दिमाग़ में लिखे हुए इतिहास और कमोबेश जाने हुए वाक्यों के चित्र भरे हुए थे, तो मैंने अनुभव किया कि अनपढ़ किसान के दिमाग़ में भी एक चित्रशाला थी, हाँ! इसका आधार परंपरा, पुराण की कथाएँ और महाकाव्य के नायकों और नायिकाओं के चरित्र थे। इसमें इतिहास कम था, फिर भी चित्र काफ़ी सजीव थे।

जवाहरलाल नेहरू

यह हमारी प्राचीन परंपरा है, वैसे तो हमारी हर बात प्राचीन परंपरा है, कि लोग बाहर जाते हैं और ज़रा-ज़रा सी बात पर शादी कर बैठते हैं।

श्रीलाल शुक्ल

धर्म का विनाश संभव है, लेकिन मनुष्य जाति की पुराण-चेतना का विनाश आज तक संभव नहीं हुआ।

राजेंद्र माथुर

परंपराएँ अतीत को वर्तमान और वर्तमान को भविष्य से जोड़ती हैं। उनके माध्यम से सामाजिक जीवन को निरंतरता मिलती है, और उसका स्वरूप निर्धारित होता है।

श्यामाचरण दुबे

किसी इंसान, किसी प्रजाति या फिर किसी भी राष्ट्र की—कहीं कहीं एक जड़ ज़रूर होती है।

जवाहरलाल नेहरू

ईसा की वाणी में भारतीय चिंतन ही बोला था, यूरोप में उस वाणी की कोई परंपरा ही नहीं थी। इराक़ तक फैले हुए बौद्ध, शैव और वैष्णव चिंतनों का दर्शन ही उसकी पृष्ठभूमि में था।

रांगेय राघव

हम जिस समाज, संस्कृति, परंपरा, युग और ऐतिहासिक आवर्त में रह रहे हैं—उन सबका प्रभाव हमारे हृदय का संस्कार करता है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

उत्कृष्टता बहुत कुछ परंपरा पर निर्भर है। अर्थात् जिस युग में साहित्य एक नवीन अ-पूर्व-निश्चित दिशा की ओर मुड़ता है, वहाँ किसी पूर्वकालीन परंपरा का आसरा होने के कारण; उसे प्रयोगावस्था में से गुज़रना पड़ता है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

शब्दों के भूल जाने का अर्थ होता है संस्कारों को भूल जाना।

कुबेरनाथ राय

आज़ादी मिलने के बाद हमने अपनी बहुत-सी सांस्कृतिक परंपराओं को फिर से खोदकर निकाला है। तभी हम हवाई जहाज़ से यूरोप जाते हैं, पर यात्रा का प्रोग्राम ज्योतिषी से बनवाते हैं; फॉरेन एक्सचेंज और इनकमटैक्स की दिक्क़तें दूर करने के लिए बाबाओं का आशीर्वाद लेते हैं, स्कॉच व्हिस्की पीकर भगंदर पालते हैं और इलाज के लिए योगाश्रमों में जाकर साँस फुलाते हैं, पेट सिकोड़ते हैं।

श्रीलाल शुक्ल

पुरानी अवधारणओं को मानने के कारण हम पुराने हैं; लेकिन जब पुरानी अवधारणाएँ हमसे जुड़ी हों तो इसका मतलब यह है कि ये चीज़ें हमारे अंदर हैं, फिर भी हम वर्तमान में हैं और हम भविष्य की ओर देखते हैं।

जवाहरलाल नेहरू

घोर अधःपतन और दरिद्रता होते हुए भी हिंदुस्तान में काफ़ी शालीनता और महानता है और हालाँकि वह पुरानी परंपरा और मौजूदा मुसीबतों से काफ़ी दबा हुआ है, और उसकी पलकें थकान से कुछ भारी मालूम होती हैं, फिर भी अंदर से निखरती हुई सौंदर्य-कांति उसके शरीर पर चमकती है।

जवाहरलाल नेहरू

रवींद्रनाथ एक सम्भ्रांत कलाकार थे, जो आम लोगों से सहानुभूति रखने की वजह से लोकतंत्रवादी हो गए थे। वह ख़ासतौर से हिंदुस्तान की सांस्कृतिक परंपरा के नुमाइंदे थे—उस परंपरा के, जो ज़िंदगी को उसके पूरे रूप में अंगीकार करती है, और जिसमें नृत्य-संगीत के लिए जगह है।

जवाहरलाल नेहरू

अपने यहाँ की मूर्ति-कला पर और चाहे जो कुछ कहा जाए, उसके विरुद्ध कोई यह नहीं कह सकता कि हमारे देश की मूर्तियों में लिंग-भेद का कोई घपला है।

श्रीलाल शुक्ल

भारत में आधुनिक सभ्यता की जो प्रगति हुई है, उसमें अच्छी और बुरी दोनों बातें शामिल हैं। बीते वक़्त में हमने जो कुछ खोया है, उसमें से एक है गीत-संगीत को अपनी ज़िंदगी में शामिल करने का जज़्बा, और हमारी उत्सवधर्मिता की क्षमता।

जवाहरलाल नेहरू

पता नहीं यह परंपरा कैसी चली कि भक्त का मूर्ख होना ज़रूरी है।

हरिशंकर परसाई

परंपरा और उससे अनुप्राणित संस्कृति मानव के सामूहिक अस्तित्व का अविभाज्य अंग होती है।

श्यामाचरण दुबे

पूर्व और नूतन का जहाँ मेल होता है, वहीं उच्च संस्कृति की उपजाऊ भूमि है।

वासुदेवशरण अग्रवाल

भारत अपने शानदार अतीत के साथ एक बहुत प्राचीन देश है। लेकिन यह एक नवीन राष्ट्र भी है, जिसमें नई उमंगें और इच्छाएँ हैं।

जवाहरलाल नेहरू

संस्कृति, परंपरा और सभ्यता बड़ी, शक्तिशाली अवधारणाएँ हैं। उनकी जड़ों में मिथक भी होते हैं और ऐतिहासिक अनुभवों की जातीय स्मृतियों भी।

श्यामाचरण दुबे

भारतीय परंपरा में रामायण तथा महाभारत—इन दोनों ग्रंथों को इतिहास कहा जाता है।

राधावल्लभ त्रिपाठी

जड़ों की खोज एक बुनियादी मुद्दा है। इसके पीछे जातीय स्मृतियों का आग्रह हैं और है नए इतिहास-बोध की माँग।

श्यामाचरण दुबे

दुनिया में शायद ही कोई ऐसा समाज हो, जो पूरी तरह से अपनी परंपराओं से कटा हो।

श्यामाचरण दुबे

परंपरा आत्मिक जीवन को पंगु कर देने वाला और हमसे एक सदा के लिए गए गुज़रे युग में लोटने की अपेझा करने वाला कोई कड़ा और कठोर साँचा नहीं है। वह अतीत की स्मृति नहीं है, बल्कि जीवंत आत्मा का सतत आवास है। वह आत्मिक जीवन की जीवंत धारा है।

सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

परंपरा जीवन-दृष्टि, मूल्यों, विचार-प्रकारों, आचार, प्रथाओं और सम्बद्ध सामाजिक क्रियाओं की ऐसी समग्रता है, जिसकी निरंतरता पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनी रहती है।

श्यामाचरण दुबे

परंपरा अपने को ही काटकर, तोड़ कर आगे बढ़ती है, इसलिए कि वह निरंतर मनुष्यों को अनुशासित रखते हुए भी स्वाधीनता के नए-नए आयामों में प्रतिष्ठित करती चलती है। परंपरा बंधन नहीं है, वह मनुष्य की मुक्ति (अपने लिए ही नहीं, सबके लिए मुक्ति) की निरंतर तलाश है।

विद्यानिवास मिश्र

परंपरा की परिधि स्थितियों और संदर्भों के अनुसार फैलती और सिकुड़ती रहती है।

श्यामाचरण दुबे

परंपरा मिथक होती है, इतिहास। दोनों के तत्त्व उसमें घुले-मिले होते हैं।

श्यामाचरण दुबे

मानवजाति के पूर्वापर सारे संस्कारों को छोड़कर कोई रूपदक्ष कुछ भी प्रस्फुटित नहीं कर सकता है, इसीलिए एकरूप, किंतु उसका इतिहास, उसकी ख़बर जगत्-भर में फैल जाती है।

अवनींद्रनाथ ठाकुर

परंपरा बहुत बड़ा भंडार है। इसका प्रयोग परिवर्तन और विकास की विचारधारा के समर्थन में किया जा सकता है, साथ ही उसका प्रयोग परिवर्तन और विकास विरोधी विचारधारा के लिए भी हो सकता है।

श्यामाचरण दुबे