
किसी दूसरे देश की आत्मा को जानने का सबसे अच्छा तरीक़ा उसका साहित्य पढ़ना है।

समग्रता में भाषा, रूपक की सतत प्रक्रिया है। अर्थ-मीमांसा का इतिहास, संस्कृति के इतिहास का एक पहलू है। भाषा एक ही समय में एक जीवित वस्तु, जीवन और सभ्यताओं के जीवाश्मों का संग्रहालय है।

संसार में जितनी बड़ी-बड़ी जीतें हुई हैं, बड़े-बड़े आक्रमण हुए हैं, सबको महान बनाया है माताओं, बहिनों और पत्नियों के त्याग ने। किस युद्ध में कितने पुरुषों ने रक्त दिया—यह इतिहास में लिखा हुआ है, लेकिन उसके समीप में यह नहीं लिखा है कि कितनी स्त्रियों ने अपना सुहाग दान किया, कितनी माताओं ने कलेजा निकाल कर दिया, कितनी बहिनों ने सेवाएँ अर्पित की।

इतिहास ने जिन स्त्री-पुरुषों को मानवता की सेवा का अवसर देकर समादृत किया है, उनमें से अधिकांश को विपरीत परिस्थितियों का अनुभव हुआ है।

उपन्यास भावनाओं को साँचा देते हैं, समय का ऐसा अनुमान देते हैं जिसे औपचारिक इतिहास नहीं दे सकता।

शब्दों, लेखन और पुस्तकों के बिना न कोई इतिहास होगा और न ही मानवता की कोई अवधारणा होगी।

हम सहज ही भूल जाते हैं कि जाति-निर्णय विज्ञान में होता है, जाति का विवरण इतिहास में होता है। साहित्य में जाति-विचार नहीं होता, वहाँ पर और सब-कुछ भूलकर व्यक्ति की प्रधानता स्वीकार कर लेनी होगी।

आप यादों को छुपा सकते हैं, लेकिन आप उस इतिहास को मिटा नहीं सकते जिसने उन्हें पैदा किया था।

व्यक्ति इतिहास में फँसे हुए हैं और इतिहास व्यक्तियों में फँसा हुआ है।

हम इतिहास के बीचोबीच पैदा हुए हैं, यार! न लक्ष्य, न ठिकाना। कोई युद्ध नहीं हमारे सामने। न कोई मंदी। हमारे सारे युद्ध अंदरूनी हैं, आध्यात्मिक हैं। हमारे लिए महान मंदी हमारा जीवन ही है। हम सबके बचपन टेलीविज़न देखते गुज़रे हैं—इस यक़ीन के साथ कि एक रोज़ हम भी भी लखपति होंगे, सिने-स्टार होंगे, रॉकस्टार होंगे; लेकिन नहीं होंगे हम। और धीरे-धीरे खुल रही है यह बात हमारे सामने। और हम नाराज़ हैं इस पर, बेहद नाराज़ हैं।

टेनिसन ने एक बार कहा था कि अगर हम एक फूल को भी समझ सकें, हम यह जान सकेंगे कि हम कौन हैं और यह विश्व क्या है। शायद वह यह कहना चाहते थे कि ऐसा कोई तथ्य नहीं है, चाहे कितना ही महत्त्वहीन क्यों न हो, जो ख़ुद में ब्रह्मांडीय इतिहास न समेटे हो और कारण व प्रभाव की अंतहीन कड़ियाँ न जोड़ता हो। शायद वह यह कहना चाहते हों कि दृश्य विश्व सारे लक्षणों में अंतर्निहित है, जैसा कि शोपेनहावर कहते हैं कि इच्छा सारी विषयवस्तु में अंतर्निहित है।

ईसा और बुद्ध के काम के तल को मैं कहीं गहरा मानता हूँ। इतिहास पर इसलिए उसका परिणाम भी गंभीर है। मार्क्स और लेनिन के काम और विचार का स्तर सामाजिक था और उसका तल उपयोगिता का है। मानव-जीवन के परिपूर्ण संस्कार का प्रश्न उसमें नहीं समा जाता है। समाज क्रांति के अभी ही नए-नए सूत्र निकलने लगे हैं और उनकी अपेक्षा में मार्क्सवाद पुराना पड़ता लगता है।

दुनिया के इतिहास का पूरा हिस्सा अक्सर मुझे कुछ नहीं लगता बल्कि एक चित्र पुस्तक जो मानवता की सबसे शक्तिशाली और बेतुकी इच्छा को दर्शाती है—भूलने की इच्छा।

अमेरिकी इतिहास उससे कहीं अधिक लंबा, विशाल, विविध, सुंदर और भयानक है; जैसा कि लोगों ने इसके बारे में कभी कहा है।

सारा इतिहास वर्तमान है, सभी अन्याय किसी न किसी स्तर पर, दुनिया में कहीं न कहीं जारी रहते हैं।

मनुष्य हर विवेक से ऊपर है—एक चेतना, जो प्रकृति का नहीं बल्कि इतिहास का उत्पाद है।

आदमी अकेला भी बहुत कुछ कर सकता है। अकेले आदमियों ने ही आदि से विचारों में क्रांति पैदा की है। अकेले आदमियों के कृत्यों से सारा इतिहास भरा पड़ा है।

यक़ीनन आधुनिक इतिहास में तो ऐसी कोई मिसाल नहीं मिलती, जिसकी अंग्रेज़ों के सत्ता छोड़ने के काम से तुलना की जा सके।
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विज्ञान का इतिहास भी भूलों से ख़ाली नहीं, किंतु विज्ञान को इन भूलों की कड़ियों से निर्मित नहीं मान सकते।
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कलाकार, ज्ञात इतिहास में हमेशा ही वेश्याओं के पास जाते रहे हैं, और वे इससे अधिक बुरे नहीं हो सकते; अपने अध्ययन से वह इतना तो जानता ही है। असल में, कलाकार और वेश्याएँ सामाजिक युद्ध में हमेशा समान पक्ष में खड़े पाए जाते हैं।

धर्म एक आंतरिक रूपांतरण है, एक आध्यात्मिक परिवर्तन है, हमारे अपने स्वभाव के विसंवादी स्वरों सामंजस्य लाने की क्रिया है—और उसका यह रूप इतिहास के आरंभ से ही मिलता आया है, यही उसका मूल स्वरूप है।

हमारे इतिहास में—चाहे युद्धकाल रहा हो, या शांतिकाल—राजमहलों से लेकर खलिहानों तक गुटबंदी द्वारा ‘मैं’ को 'तू' और ‘तू' को 'मैं' बनाने की शानदार परंपरा रही है।
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सबसे अधिक सुखी राष्ट्रों की तरह सबसे अधिक सुखी स्त्रियों का कोई इतिहास नहीं होता।

संभव है कि ब्रह्मांड का इतिहास कुछ चुनिंदा रूपकों का इतिहास हो।

एक इतिहासकार का मापदंड घटनाप्रधान होता है, डॉक्टर का मापदंड शरीर प्रधान होता है, और जो रचनाकार होते हैं, उनका मापदंड अघटन-घटना-पदीयसी माया प्रधान होता है।

इतिहास की दुनिया में आदर्श नाम की कोई चीज नहीं होती, वहाँ केवल तथ्य होते हैं; सत्य नाम की कोई चीज नहीं होती, वहाँ केवल तथ्य होते हैं।

कल्पना सत्य की बड़ी बहन है। स्पष्टतः जब तक किसी ने कहानी नहीं कही थी तब तक संसार में कोई नहीं जानता था कि सत्य क्या है। अतः यह सबसे प्राचीन कला है, यह इतिहास की जननी है।

इतिहास का प्रयोजन वर्तमान समय और उसके अनुसार कर्तव्य को महत्त्व देना है।

इतिहास घटनाओं के रूप में अपनी पुनरावृत्ति नहीं करता। परिवर्तन का सत्य ही इतिहास का तत्त्व है परंतु परिवर्तन की इस श्रृंखला में अपने अस्तित्व की रक्षा और विकास के लिए व्यक्ति और समाज का प्रयत्न निरंतर विद्यमान रहा है। वही सब परिवर्तनों की मूल प्रेरक शक्ति है।

इतिहास का वह भी अंश जो चेतना-सम्पन्न होता है, आगे चलकर मिथकीय आकृति ले लेता है जैसे गौतम बुद्ध या शिवाजी अथवा अपने युग में लेनिन और गाँधी।
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समूचे जनसमूह में भाषा और भाव की एकता और सौहार्द का होना अच्छा है। इसके लिए तर्कशास्त्रियों की नहीं, ऐसे सेवाभावी व्यक्तियों की आवश्यकता है, जो समस्त बाधाओं और विघ्नों को शिरसा स्वीकार करके काम करने में जुट जाते हैं। वे ही लोग साहित्य का भी निर्माण करते हैं और इतिहास का भी।

इतिहास के पाठ को ठीक से जाँचकर समझना कठिन होता है। सभी देशों के इतिहास में देखा जाता है कि जब कोई बड़ी घटना सामने आती है; तो उसके पहले लोगों पर किसी प्रबल आघात का प्रभाव पड़ चुका होता है, और लोगों के मन आंदोलित हो चुके होते हैं।

इतिहास का कलात्मक प्रस्तुतीकरण इतिहास के यथातथ्य लेखन की अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक और गंभीर प्रयास है क्योंकि साहित्य की कला वस्तुओं के हृदय तक पहुँचती है। जब कि तथ्यपरक वृत्तांत केवल विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है।

प्रत्येक देश और समाज के मुहावरे उसकी सभ्यता, संस्कृति और ऐतिहासिक-भौगोलिक, स्थिति की उपज हैं। पर अँग्रेज़ी की नक़ल में भी हमें इसका भी ध्यान नहीं रहता।

मनुष्य का इतिहास साक्षी है कि विराग मनुष्य की आत्मा में बहुत गहरा बसा हुआ है।

मनुष्य के लिए कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य-असभ्य सभी जातियों में, किसी-न-किसी रूप में, पाई जाती है। चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो, पर कविता का प्रचार अवश्य रहेगा।

इतिहास विश्वास की नहीं, विश्लेषण की वस्तु है। इतिहास मनुष्य का अपनी परंपरा में आत्म-विश्लेषण है।

इतिहास की मुख्यधारा होने के नाते हम जानते थे कि विकास का स्वप्न निरापद नहीं होता। उसकी क़ीमत मनुष्य और समाज के अलावा प्रकृति को भी देनी पड़ती है।

प्रत्येक भाषा का मूल उसकी अपनी संस्कृति में बड़ी गहराई से जाता है जिसमें वह जन्म लेती है, यद्यपि उसका विकास देशकाल के मुक्त इतिहास में होता है।

मानव जिस तरह की कठिनाइयों से जूझता है, उसका इतिहास भी इसी के अनुरूप बनता है।

संस्कृति के रूप में भाषा इतिहास में लोगों के अनुभवों का सामूहिक स्मृति बैंक है।

छठी-सातवीं शताब्दी के आसपास भारतीय इतिहास में भक्ति की जो ऐतिहासिक क्रान्तिकारी घटना हुई थी, उसका जन्म लोकजीवन में हुआ था, लोकभाषा में हुआ था। उसका श्रेय आदि-अद्विज अब्राह्मणों को है। इसे दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों ने शुरू किया था।

भारतीय इतिहास अत्यंत दुर्गम है। इसका शोध केवल इतिहास का विवेचन नहीं है, वह मनुष्य की समस्त वासनाओं और अपूर्णता तथा पूर्णताओं के क्रमिक विकास का अध्ययन है, जो बाह्य रूप में सभ्यता है ओर आंतरिक रूप में अध्यात्म की उन्नति है।
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प्रत्येक जाति और देश का अपना निहितार्थ होता है, अपनी विशेष समस्या होती है। उस अर्थ को पूरा करना पड़ता है, निरंतर प्रयास द्वारा।
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विजय की इच्छा वाले पुरुष को यह 'जय' नामक इतिहास अवश्य सुनना चाहिए।

इतिहास के आरंभिक काल से ही भारत भी अपनी एक समस्या से लगातार जूझता रहा है—और यह समस्या है जाति प्रथा की।

इतिहास का अर्थ है मनुष्य जाति के सम्मुख उपस्थित हुए प्रश्नों का उल्लेखन।

केवल साहित्यिक कृतियाँ व्यर्थ हैं। कार्यकर्ता उस प्रकार से नहीं बनाए जा सकते। भारत के आर्थिक इतिहासों से सद्गुण नहीं जगाए जा सकते।

अनुभव और इतिहास बताता है कि लोगों और सरकारों ने इतिहास से न कभी कुछ सीखा और न इतिहास से निकले नियमों के अनुसार कार्य किया।

इतिहास तो एक सिलसिलेवार मुकम्मिल चीज़ है, और जब तक तुम्हें यह मालूम न हो कि दुनिया के दूसरे हिस्सों में क्या हुआ—तुम किसी एक देश का इतिहास समझ ही नहीं सकतीं।
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